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हास्य व्यंग्य

रेल की रेलमपेल
शरद तैलंग


हवाई जहाज या पानी के जहाज की बनिस्पत मुझे रेल में यात्रा करना ज़्यादा ठीक लगता है क्योंकि आपात स्थिति में न तो मैं उड सकता हूँ, न ही आसमान से नीचे कूद सकता हूँ और ना ही तैर सकता हूँ, भाग जरूर सकता हूँ उसका मुझे विद्यार्थी जीवनकाल से ही खूब तजुर्बा है बल्कि कई परिस्थितियों में तो मेरे पीछे पीछे बहुत से लोग भी भागते पाए जाते थे। इसलिये रेल का सफर ज़्यादा सुविधाजनक है। ऊपर की दो स्थितियों में तो मरने की पूरी पूरी संभावना है लेकिन तीसरी स्थिति में मरने और बचने की दोनो सँभावनाएँ हो सकतीँ हैं।

वरिष्ठ नागरिक होने के कारण रेल यात्रा के टिकट में कुछ छूट का भी प्रावधान है जबकि जहाज और हवाई जहाज में तो सिर्फ लूट का होता है। एक बात और है कि हवाई जहाज और जहाज की यात्रा के लिये हवाई अड्डा और समुद्र की आवश्यकता भी तो होती ही है आप हवाई जहाज या पानी के जहाज को सड़क या रेल की पटरियों पर तो चला नहीं सकते और सिर्फ इस कारण से आप मुम्बई, कोलकता या चेन्नई में घर भी नहीं बना सकते हैं कि आपको जहाज या हवाई जहाज में यात्रा करनी है इसलिये बेहतर यही है कि कहीं भी रहें रेल वहीं या आसपास मिल ही जाएगी।

पहले रेल यात्रा का एक अलग ही आनन्द था। आपने सोचा कहीं जाना है, उठाया सामान और चल पड़े। उस समय पहले से कई दिन पूर्व आरक्षण करवाओ फिर जाओ वाला लफड़ा नहीं था। सामान्य डिब्बे में ही यात्रा की जाती थी। उच्च श्रेणी में यात्रा करने वालों को लोग अच्छी नज़र से नहीं देखते थे तथा सबके मन में यही धारणा रहती थी कि वह सरकारी खर्चे पर ही जा रहा है। सामान्य डिब्बे में अन्दर जाने के लिये दरवाजा तो होता था लेकिन लोग खिडकी से ही अंन्दर जाना ज़्यादा सुविधाजनक मानते थे क्योंकि घूम फिर कर सीट पर पहुँचने से अच्छा था कि सीधे सीट पर ही पहुँचा जाए। इस प्रक्रिया में कुली के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता जो व्यक्ति और उसके सामान को एक ही नज़र से देखता था तथा उनके साथ एक सा ही सुलूक करता था।

एक बर्थ पर चार लोगोँ के बैठने की जगह होती थी लेकिन सहयोग और सद्भाव की मिसाल कायम करने के लिये आठ आठ, दस दस लोग भी तत्पर रहते थे। अब वैसा प्रेम कहाँ है ? उस स्थिति में मनुष्य को बैठने के लिये सीट का एक कोना ही काफी होता था जिस पर वह अपने पृष्ठ भाग का पंद्रह प्रतिशत हिस्से का ही आरक्षण करवाकर बैठने के लिये उपयोग कर लेता था तथा बाक़ी हिस्सा किसी अन्य कार्य के लिये। किसी सोते हुए व्यक्ति को जगाना जघन्य पाप की श्रेणी में माना जाता था इसलिये किसी किसी बर्थ पर कोई महिला या व्यक्ति कब्ज़ा करके झूठ मूठ सोने का अभिनय करता रहता था तथा बाकी लोग उसके इस अभिनय की मन ही मन प्रशंसा करते रहते थे कि इतनी गर्मी तथा शोर में भी उसे नींद आ रही है।

सामान रखने के लिये ऊपर की बर्थ पर कोई भाग्यशाली व्यक्ति भी सोने का अभिनय करता रहता था इसलिये हमेशा की तरह सामान सीट के नीचे ही स्थान पाते थे तथा लोगों को उनके सामान खो जाने का या चोरी हो जाने का डर भी नहीं रहता था क्योंकि सब जानते थे कि जिस डिब्बे में तिल धरने को भी जगह नहीं है उसमें चोरों को सामान चुराने के लिये सीट के नीचे सामान तक पहुँचना और उसे निकालकर ले जाना श्रमसाध्य कार्य ही था।

प्रत्येक परिवार अपने साथ लोहे का एक सन्दूक ले जाता था जो हाउस फुल होने की स्थिति में एक्स्ट्रा सीट का काम देता था। उस समय मिनरल पानी की बोतल का चलन भी नहीं था इसलिये सामान में एक सुराही या बादला को होना अत्यावश्यक माना जाता था जिसे अन्य प्यासे लोग ललचाई दृष्टि से देखते रहते थे। डिब्बे में चने, मूँगफली, अमरूद, नमकीन बेचने वाले भी तिल तक न रख पाने की जगह में भी ताड़ रख दिया करते थे। गाड़ी के स्टेशन आने पर अन्य सामान बेचने वाले हर सामान के आगे गरम शब्द जोड कर, जो बिलकुल भी गरम नहीं होते थे जैसे, गरम समोसे, गरम कचौडी, कहकर अपना सड़ा गला बासी सामान और ठंडी चाय भी बेच दिया करते थे क्योंकि जब तक खरीदने वाले को उसकी गुणवत्ता का भान होता था तब तक या तो गाड़ी चल देती थी या बेचने वाला।

खरीदने वाले भी उस पदार्थ के भूतकाल को ध्यान में रख कर उसे गरम मान लिया करते थे। ऐसे डिब्बे में लघु या दीर्घ शंकाओँ के निवारण के लिये प्रस्तावित स्थान के लिये हवाई मार्ग से ही जाना पडता था अर्थात लोगों के ऊपर सीटों के ऊपर पर्वतारोही की भाँति, तब जाकर बडे संघर्ष से मंज़िल मिलती थी। सभी लोगों के मन में रेलवे के सफाई कर्मचारियों के प्रति एक दया का भाव हिलोरें मारता रहता था तथा सभी मानते थे कि यदि रेल के डिब्बे साफ सुथरे रहेंगे तो सफाई कर्मचारी किस चीज़ की सफाई करेंगे। उन्हें भी तो रोज़गार की आवश्यकता है इसलिये चने और मूँगफली खाकर छिलकों को सीट के नीचे फेंकना एक आम फैशन था जिसमें परोपकार की बू आती थी।

इसके अतिरिक्त भी अधिकांश लोग इस परम वाक्य कि ‘बाज़ार में बनी हुई चीज़ों का सेवन नहीं करना चाहिये’ अपने घर की बनी हुई आलू की सब्जी तथा पूड़ियों और आम के अचार का उपयोग करते थे। आलू की सब्जी अक्सर रास्ते में खराब हो जाती थी तथा चलती रेल में खिडकी से बाहर फेंकने के काम आती थी जिसके कुछ कणोँ का स्वाद हवा के संग
संग, घटा के साथ साथ पीछे के डिब्बोँ के यात्रियों को भी चखना पडता था।

देश में आलू की पैदावार बढाने का श्रेय कृषि मंत्रालय की जगह रेल मंत्रालय को मिलना चाहिये। किसी सीट पर कब्ज़ा जमा लेने के पश्चात यदि कोई अन्य यात्री उस कोच में प्रवेश करने की कोशिश करता था तो बाक़ी के लोगों को एक दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती थी तथा वे वहीं बैठे बैठे उस यात्री को बता दिया करते थे कि आगे के कोच खाली पड़े हैं वहाँ चले जाओ, लेकिन इस बात पर कोई भरोसा नहीं करता था तथा उसी कोच में जबरन घुस आता था।

रेल विभाग वालों को देश की वन सम्पदा से अत्यधिक प्रेम होता था तथा वे यात्रियों को भी उसके दर्शन करवाना चाहते थे इसलिये यदाकदा गाड़ी को बीच जंगल में खडी कर देते थे जिससे आप उसके सौन्दर्य को निहार सकें और कह सकें कि ‘
अहा वन्यजीवन भी क्या है।'

रेल के डिब्बे में हवा के लिये पंखे भी लगे रहते थे जिनके बारे में ये खोज का विषय हो सकता था कि उनकी हवा किस दिशा में जा रही है तथा कौन उससे लाभान्वित हो रहा है। अधिकांश पंखों को चलाने के लिये छोटा कंघा आवश्यक होता था यदि दुर्भाग्यवश सवारियों में अधिकांश गंजे लोग शामिल हों तो उन्हें गर्मी में ही रहना पडता था इसलिये अपने साथ एक कंघा ले जाना ज़रूरी था। गाड़ी के कहीं भी खड़े हो जाने पर कुछ लोग गाड़ी विशेषज्ञ की भाँति गाड़ी रुकने का कारण
बता दिया करते थे कि “क्रौसिंग हो रही है या सिग्नल नहीं मिला रहा है।

अब समय बदल गया है। अब सभी लोग आरक्षण करवाकर ही यात्रा करना पसंद करते हैं। आरक्षण करवाने का तरीका भी सरल है तथा अब घर पर बैठे बैठे ही इंटरनेट का उपयोग करके किया जा सकता है फिर भी मैं कुछ सलाह देना चाहूँगा। यदि आप वरिष्ठ नागरिक हैं और आरक्षण कराते समय अपनी वांछित सीट अर्थात ऊपर की, बीच की नीचे की, या साइड की का विकल्प भर रहे हों तो कभी भी नीचे की सीट पर निशान न लगाएँ क्योंकि आप जिस विकल्प पर निशान लगाएँगे वो आप को कभी नहीं मिलेगी, यदि आप यह जानते हुए भी कि आप उस पर नहीं चढ सकते हैं ऊपर की सीट पर निशान लगा दें तो इसकी पूर्ण गारंटी है कि आप को नीचे की सीट मिल ही जाएगी।

लेकिन इसमें खुश होने की बात नहीं है क्योंकि जब आप निश्चित दिन पर अपनी सीट पर पहुँचेंगे तो पाएँगे कि उस सीट पर पहले से ही किसी स्थूलकाय महिला या नौजवान युवती ने अपने दो बच्चों के साथ कब्ज़ा किया हुआ है। आप उनकी मज़बूरी समझ जाते है तथा त्याग और बलिदान की कथा के प्रमुख पात्र बन जाते हैं अर्थात वही ऊपर की सीट। फिर भी लोग रेल में यात्रा कर रहे हैं सीट मिले तो भी कर रहे हैं नहीं मिले तो भी कर रहे हैं। बैठकर, लेटकर, खडे होकर चले जा रहे हैं।इस देश की आधी से ज़्यादा समस्याएँ सीट के कारण ही उत्पन्न होतीँ हैं कि किसी को मनचाही सीट नहीं मिलती और जिसे मिल जाती है वह यह कभी नहीं चाहता कि उस सीट पर कोई और कब्ज़ा करे।

१८ मार्च २०१३

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