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हास्य व्यंग्य

गड़े मुर्दों की तलाश
सुशील यादव


ये राजनीति भी अब गजब की हो गई है। ज़िंदा लोगों पर आजकल की नहीं जाती। मुद्दे नहीं मिलते, मुर्दे उखाड़े जाते हैं। राजनीतिज्ञ लोगों को आजकल फावड़ा बेलचा ले के चलना होता है। क्या पता किस जगह किस रूप में क्या गड़ा मिल जावे? एक अच्छे किस्म के, ताजा-ताजा, स्वच्छ, लगभग हाल में पाटे हुए मुरदे की खुशबु नेता को सैकड़ों मील दूर से मिल जाती है। एक अच्छा मुरदा किस्मत के खजाने खोल देता है, ऐसा जानकार, तजुर्बेकार, राजनीति में चप्पलें घिसे नेताओं का मानना है।

इन दिनों कनछेदी मेरे पास आकर ‘मुरदा पुराण‘ सुनाये जाने की जिद करने लगा है। गुरुजी ! आपने सन बावन से इस देश के पचासों इलेक्शन देखे हैं। आपके जमाने में कैसा क्या होता था ? इलेक्शन के वेद-पुराण के आप पुरोधा पुरुष हैं।
हम आपके तजुर्बों को अक्षुण रखना चाहते हैं। उसके ये कहने से मुझे लगा कि, ”क्या पता आप कब टपक जाओ”, वाली अंदरुनी सोच को कनछेदी भीतर कहीं दबाते हुए है। कनछेदी हमें फ्लेश बेक में ले जाने की, गाहे-बगाहे भरपूर कोशिश करता है। वो कहता है अगर आप हम जैसे आम लोगों का, या चेटिंग- सेटिंग में बीजी नौजवान पीढ़ी के बचे हुए समय में कुछ ज्ञान वर्धन करेंगे तो बड़ी कृपा होगी। मै कनछेदी को, इलेक्शन वाले किसी अपडेट से नावाकिफ रखना खुद भी कभी गवारा नहीं करता। उसके अनुरोध को मुझे टालना कभी अच्छा नहीं लगा। मेरे पास इन दिनों समय-पास का कोई दूसरा शगल या आइटम, सिवाय कनछेदी के और कोई बचा भी तो नहीं इसलिए उसे बातों के मायाजाल में घेरे रहना मेरी भी मजबूरी है। उसे पुराने किस्से सुनने और मुझे सुनाने का शौक है।

आप लोगों के पास समय है तो चलें, समय पास के लिए कुछ गड़े मुर्दे उखाड़ लें? सन बावन से सत्तर तक के इलेक्शन में, ‘लोकतंत्र के पर्व की तरह’ खुशबू थी, सादगी और भाईचारे से लोग इस पर्व के उत्साह में झूमते रहे। वैसे कुछ प्रदेशों में, कट्टा से वोट छापे जाने की शुरुआत हो चुकी थी। बूथ पर काबिज हो के मजलूम लोगों के वोट के हक़ को छीन लेना नए फैशन में शामिल होने लगा था। धीरे-धीरे लोगों ने सोचा इससे बदनामी हो रही है। जीतने में मजा नहीं आ रहा, वे अपने आदमियों से बाकायदा हवाई गोलियाँ चलाकर लोगो को सचेत कर देने की कहने लगे। हिन्दुस्तानी नेता, चाहे कैसा भी हो, उनमें कहीं न कहीं से गाँधी बब्बा की आत्मा घुस ही आती है वे अहिंसा का पाठ भी पढ़े होने के हिमायती बने दीखते हैं।

वे अपने लोगों को सीखा के भेजते, आप को बूथ पर ये जरुर कहना है कि, हम आपको लूटने-धमकाने आये नहीं हैं, हमें बस डिब्बा उठाना है। नेता जिताना है। वे डिब्बा उठाये चलते बनते। सत्यमेव जयते ‘लोगो’ वाले खाकी वर्दीधारी, पोलिग बूथ के कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी, इस पुनीत कार्य को होते देखने में खुद को अभ्यस्त करते दिखते, वे ‘जान बची और लाखों पाए’ वाले नोटों को गिनने में लग जाते।

अब ये हरकते, प्राय कम जगहों पर, या कहें तो नक्सलवाद आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों को छोड़ कहीं देखने में नहीं आतीं। उन दिनों मुर्दा उखाड़ने का झंझट कोई नहीं पालता था, तब मुर्दे बनाने, टपकाने के खेल हुआ करते थे। सीमित जगहों पर ये खेल था तो सांकेतिक मगर जबरदस्त था। एक चेतावनी थी, प्रजातंत्र पर आस्था रखने वालो चेतो, नहीं तो हम समूची बिरादरी में फैलाने के लिए बेकरार हैं। कनछेदी ! जानते हो इसकी वजह क्या थी ?
कनछेदी भौचक्क देख के, ना वाली मुंडी भर हिला पाता।

मै आगे कहता, राजनीति में आजादी के बाद बेहिसाब पैसा आ गया। अपना देश, गरीब, शोषित, दलित, अशिक्षा, महामारी, अंधविश्वास, झाड़ फुक में उलझा हुआ था। या तो बाबानुमा धूर्त लोग या चालाक नेता इसे ठग रहे थे। योजना के नाम पर बेहिसाब पैसा, सड़कों, नालियों, बाँधों में, ठेकेदार इंजिनीयर के बीच बह रहा था। बाढ़ में पैसा, तूफान में पैसा, भूकंम्प में पैसा, सूखे में पैसा। पैसा कहाँ नही था.....? नेताओं ने इन पैसों को, दिल खोल के बटोरने के लिए इलेक्शन लड़ा। लठैत-गुंडे पाले ......दबदबा बनाया ......मुँह में राम बगल में छुरी लिए घूमे। एक रोटी की छीन झपट, जो भूखों-नंगों के बीच हो सकती थी वो बेइन्तिहा हुई। मेरा कहना तो ये है की कमोबेश आज भी आकलन करें तो कोई तब्दीली नजर नहीं आती, हाल कुछ बदले स्वरूप में वही है। अब, वोटर के दिल को जीतने का नया खेल यूँ खेला जाने लगा है कि गड़े हुए मुर्दे उखाड़ो।

बोफोर्स के मुर्दे उखाड़ते-उखाड़ते सरकार पलट गई नेताओं के सामने नजीर बन गया, पिछले किये गए कार्यों का पोस्टमार्टम, उनके कर्ताधर्ताओं का चरित्र हनन अच्छे परिणाम देने लगे। घोटालो को, घोटालेबाजों को हाईलाईट किये रहना, पानी पी पी के कोसना, गले बैठने तक कोसना फैशन बन गया। दामाद जी को सूट सिलवा दो तो आफत, न सिलवा के दो, तो जग हँसाई। परीक्षा पास करा के लोगों को नौकरी दो तो उनके घर के मुर्ग-मुस्सल्ल्म की उड़ती खुशबू सूघ के घोटाले की गणना करने वालो की आज कमी नहीं।

‘आय से ज्यादा आमदनी’ के मामले में, अपने देश में बेशुमार मुर्दे गड़े हैं। इनको तरीके से उखाड़ लो तो, विदेशों से काला धन वापस लाने की तात्कालिक जरूरत नहीं दिखती। कोयला माफिया की कब्र उघाड़ के देख लो, माइनिग वाले, प्लाट आवंटन, मिलेट्री के टाप सीक्रेट सौदे पर तो हम अपनी आँख भी उठा नहीं सकते। जो है जैसा है, की तर्ज पर, मुंबई फुटपाथ पर सोये हुए बेसहारा ग़रीबों की बात हो, गड़े हुए मुर्दे तमाम हैं किन किन मुर्दों को को कहाँ कहाँ से उठायें ? सब एक साथ खोद डाले गए तो चारों तरफ बदबू फैल जायेगी। महामारी फैलने का खरता अलग से हो सकता है। स्वच्छ भारत के आम स्वच्छ आदमी के मन से सोचे... इस प्रजातंत्र में, कई इलेक्शन आने हैं...अपनी हिन्दू परंपरा में ये अच्छा करते हैं मुर्दों को हम गड़ाने की बजाय जला देते हैं। शरीर जला देने के बाद भी, अविनाशी आत्मा का अंश फकत कुछ दिनों के लिए हमारे दिलों में गड़ा रह जाता है बस।

कनछेदी की तन्द्रा भंग हुई। वह मायूस सा लौट गया।

२४ नवंबर २०१४

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