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हास्य व्यंग्य

मोबाइल
- विनोद कुमार दवे


मोबाइल और अंतर्जाल के जाल में हम किस कदर उलझे हुए हैं इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ९०% लोग अपने स्मार्टफोन लिए बिना शौचालय में भी नहीं जा सकते, मानो स्मार्टफोन कोई फोन न हो, कब्ज हेतु टेक्नोपेथी की दवा हो। वो समय गया जब उठते ही बच्चे अपने माता पिता के चरण स्पर्श करते थे, अब तो आँख खुलते ही पहले अपना मोबाइल ढूँढते हैं। भोजन करते वक़्त भी स्वादिष्ट चैटिंग में इतने बिजी होते हैं. सभी चपातियाँ दाल सब्जी की जगह पानी में भिगोकर खा लेंगे किन्तु स्वाद का ध्यान न रहेगा। “हाय जानु, हाय जानु” की जितनी हाय तौबा मचा रखी है इतना हाय-हाय सरकार के खिलाफ किया होता तो सत्ता में हाय-हाय मच जाती। घर में बीमार माँ महीनों बीमार पड़ी होगी मगर हाल न पूछेंगे और जानु को छींक भी आई तो निमोनिया की दवाइयाँ ढूँढते फिरेंगे।

मोबाइल चैटिंग ने सभी को दीवाना बना रखा है। अभी ऑरकुट का दाह संस्कार भी न निपटा था कि फेसबुक व्हाट्सऐप के रूप में चैटिंग का पुनर्जन्म हो गया। और इनके पीछे न जाने कितने अवतार प्रकट हो गए हाइक और वाइबर जैसे रूप में। एक ही बन्दा ढेर सारी जानु, सोना, फ्रेंड, गर्लफ्रेंड, यत्र तत्र सर्वत्र ढेरों सोशल साइट्स पर लेकर बैठा है। कई लड़कों ने तो ऑनलाइन लिंग परिवर्तन करा रखा है और साइट पर लड़की बन बैठे हैं। वीर रस का कवि शृंगार की कविता गाएगा तो प्रेम की मार काट तो होनी ही है। इन नकली आशिकों ने शृंगार रस का रस निचोड़ लिया है। ये ही हाल त्योहारों का भी है। वैलेंटाइन डे विश करने को रात भर जागने वाले १५ अगस्त भूल जाते हैं। प्रेमिका के लिए एक ही जगह घंटों तक खड़े रहकर इंतजार लेंगे मगर राष्ट्र गान पर ५२ सेकंड खड़े रहना भी गवारा नहीं। गर्लफ्रेंड की टें टें पर प्यार आता है लेकिन माँ की खाँसी से नींद खराब हो जाती है।

मोबाइल की आदत भी ऐसी है कि सोते टाइम तीन चार घंटे तक नींद की ऐसी की तैसी न कर दे तब तक नींद भी नहीं आती। जैसे-जैसे मोबाइल की रैम में वृद्धि हो रही है, दिमाग के न्यूरॉन्स बेमौत मरते जा रहे हैं। पहले लोगों की याददाश्त में काफी कुछ सुरक्षित रहता था, अब मोबाइल में सेव करने पड़ते हैं। नाम नंबर चेहरे सब मोबाइल में सेव पड़े हैं और दिमाग से डिलीट होते जा रहे हैं। कुछ वर्ष बाद तो हालत ये होगी कि घर में चेहरे अंजान लगेंगे, फिर लोग मोबाइल से कन्फर्म करेंगे कि ये तो घर का ही सदस्य है।

मोबाइल की रैम बढ़ती जा रही है, हृदय से राम घटते जा रहे हैं। गेम खेलने में मशगूल लोग पोकेमोन ढूँढते ढूँढते खुद खो जाते हैं, जिन्हें गूगल भी नहीं ढूँढ पाता। खो-खो कबड्डी तो चीता की तरह लुप्त प्रायः है। इन खेलों का टेम्पल रन और पोकेमोन गो जैसे खेलों ने खेल बिगाड़ दिया है। बच्चे फोन में बिजी हैं, माँ बाप भी टेंशन फ्री हैं कि बच्चे घर में चुपचाप खेल रहे हैं। बच्चे भी मोबाइल में क्रिकेट खेल कर खुश हैं कि भाग दौड़ का कोई चक्कर नहीं। नहीं तो पागलों की तरह एक गेंद के पीछे इतने सारे लड़के भागते ही जाते हैं मानो गली की नवयौवना ने सभी जवानों को दीवाना बना रखा हो।

मोबाइल होने के और भी फायदे हैं। लाखों पेड़ों की जान बच गई, आप पूछोगे कैसे? मोबाइल ने लव लेटर की संख्या घटा दी, नहीं तो कितने पेड़ तो प्रेम पत्र की बलि चढ़ जाते थे। कइयों की तो हालत ऐसी थी कि एक लव लेटर लिखने में हाथ इतना काँपता था कि फटे हुए प्रेम पत्रों का ढेर लग जाता। ऊपर से लव लेटर पहुँचाने का झंझट। कुटाई पिटाई का खौफ। लव लेटर फेंकने के चक्कर में प्रेमिका के पापा, भाई पर गिर जाए तो साक्षात यमराज को बुलावा। इस से अच्छा तो मोबाइल बेचारा चुपचाप अपना काम किए जाता है। प्रेमिका की सहेली की गरज भी नहीं करनी पड़ती। मोबाइल ने रिश्तों की परिभाषा भी बदल दी है।

कई बार तो शमशान के किसी कोने में भी लोग व्हाट्सएप चलाते दिख जाएँगे, सोचते होंगे लाश जलने में तो टाइम लगता है, तब तक बैठे बैठे बोर क्यों हों। और जिनके फोन की बैटरी जल्दी दम तोड़ देती होगी वे तो कुंठा में मरे हुए को गालियाँ देते होंगे कि भाई या तो जल जा, या उठ जा, क्यों खोटी कर रहा है? क्या पता कोई खास मेल आया हो। हो सकता है नोबल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट होने की सूचना कहीं बीच नेटवर्क में लटक रही हो, या चुनाव का टिकट बँट रहा हो। कहीं सेंसेक्स ऊपर नीचे हो गया तो सेल बाय के चक्कर में एक और साँस अटक जाएगी। लगे हाथों एक और सोग हो जाएगा। वैसे मोबाइल इतनी भी बुरी चीज तो नहीं है।

अभी नोटबन्दी के बाद तो सरकार खुद कह रही है, मोबाइल को बैंक बना लो। यूट्यूब ने मोबाइल को सिनेमाघर बना दिया है। मोबाइल आने के बाद टेलीग्राम तो अकाल मृत्यु का शिकार हो गया। मोबाइल ने कलाई से घड़ी छीन ली। मोबाइल ने लुगाई से शौहर छीन लिया। मोबाइल ने पी. के. का रेडियो छीन लिया। मोबाइल ने रातों की नींद, दिन का चैन छीन लिया। मोबाइल ने पारो से देवदास छीन लिया।
बाबूजी ने कहा, "व्हाट्सएप छोड़ दो।"
सबने कहा, “चैटिंग छोड़ दो।"
पारो ने कहा, “फेसबुक छोड़ दो।"
आज तुमने कह दिया, “ट्विटर इंस्टाग्राम हाइक वाईबर छोड़ दो।"
एक दिन आएगा जब वो कहेंगे, “ये मोबाइल ही छोड़ दो।"
क्या देवदास से मोबाइल छूट पाएगा। आज के देवदास पारो को तो छोड़ सकते हैं, चंद्रमुखी को नहीं छोड़ सकते। और मोबाइल तो हरगिज नहीं छोड़ सकते। प्राण जाए पर मोबाइल न जाए।

पूरा सावन गुजर जाएगा स्टेटस अपडेट करते-करते , “वाओ! व्हाट अ लवली क्लाइमेट। इट्स रैनिंग।" लेकिन एक बार भी बारिश में नहाकर नहीं देखेंगे कि मोबाइल पर वाओ वाओ करने से कुछ नहीं मिलता, सिवाय लाइक और कमेंट्स के। और बारिश में नहाएँ कैसे, मोबाइल की फिक्र जो है। कहीं भीग जाएगा। दूर तो होता है नहीं मोबाइल। शरीर के हर समय इतना चिपका हुआ रहता है कि कई बार लगता है, शरीर का ही कोई अंग है मोबाइल। काश भगवान ने स्मार्टफोन के साथ ही पैदा किया होता। चेहरा भले स्मार्टनेस से कोसों दूर होगा, मोबाइल तो स्मार्ट ही चाहिए। और इंसान ओवरस्मार्ट।

कल को ऐसा न हो के इंसान अंडरस्मार्ट रह जाए और मोबाइल ओवरस्मार्ट बन जाए। फिर मोबाइल ही हमें कहेगा, “अरे मूर्ख! मुझे तो देखा हुआ ही है। बाहर देख। कितना सुहाना मौसम है।" लेकिन हम तो इतने समझदार हो चुके हैं कि बादल भी गूगल पर ही देख लेते हैं। बारिश यूट्यूब पर देख लेते हैं। शेर चीता भालू मगर बाज चील डिस्कवरी पर देख लेते हैं। हरियाली नेशनल जियोग्राफी दिखा देती है। हम इतने समझदार हैं कि गर्दन उठाने तक की जहमत नहीं उठा सकते। गर्दन झुकाने की आदत इतनी भी अच्छी नहीं न। काश हम भी थोड़े नासमझ ही रह जाते, समझदार होने के नुकसान तो बहुत हैं। 

१ अप्रैल २०१७

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