मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


हास्य व्यंग्य

अमेरिका में कुत्ते
- उमेश अग्निहोत्री


जब कभी श्रीमती जी के साथ वॉक पर निकलता हूँ तो रास्ते में एक दो बंगलों के आगे एक-दो कुत्ते बैठे ज़रूर मिल जाते हैं। उनके झबरेदार रोबीले मुँह देख कर अगर मैं जॉग कर रहा होता हूँ तो चलने लगता हूँ इस डर में कि उनमें से कोई कुत्ता मुझे दौड़ता देख कर मेरे पीछे भौंकते हुए भागने न लगे।

मैं जानता हूँ उन बंगलों के चारों ओर अदृश्य - इलैक्ट्रॉनिक फ़ैंस लगा होता है जिसे फलाँग कर वह बाहर नहीं आ सकते, मगर फिर भी...।

इन कुत्तों से मेरा आई-कॉन्टैक्ट होता है, हालाँकि भुक्तभोगियों का कहना है कि अजनबी कुत्तों से कभी आई-कॉन्टैक्ट न करो, नज़रें मिलते ही झपट पड़ेंगे। यह कुत्ते मुझे तब तक देखते रहते हैं जब तक अगले मोड़ पर मैं उनकी आँखों से ओझल नहीं हो जाता।

जिस सड़क पर हम वॉक कर रहे होते हैं, उसमें एक तरफ़ साथ-साथ जुड़े मकानों की एक कतार भी आती है। एक मकान के पीछे की फ़ैंस के अंदर एक पिद्दी – सा कुत्ता बस हमारी गंध सूँघ भर ले कि ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगता है। श्रीमती जी कहती हैं – मोया।
मैं कहता हूँ – अरे भूँक लेने दो। इसमें अभी आज़ाद होने का जज़्बा बाकी है।
वह कहती हैं – बेशर्म। अमेरिका में बैठा खा रहा है और सिस्टम के खिलाफ़ शोर भी मचा रहा है।
मैंने कहा – यह कह रहा है वफ़ादारी एक तरफ़। यह मत सोचना बढ़िया से बढ़िया पैट् – फ़ूड खिला कर तुम मेरा ज़मीर खरीद लोगे !

मुझे भारत के कुत्तों का ख्याल आता है। मुझे लगता है कि वहाँ कुत्ते भूँकना भूल गये हैं। आबादी इतनी बढ़ गयी है कि कुत्ता भीड़ में खोया नज़र आता है। उसे लगने लगा है कि उस मुल्क का कुछ नहीं हो सकता। चोरों से भरा हुआ है। भौंके तो किस पर। उसे सड़क के बीचों-बीच हताश सोया देखा जा सकता है।

मैं कहता हूँ -- कुत्ते के नाम से जुड़े कई मुहावरे आज कल लागू नहीं होते। कुत्ते की तरह बक-बक करना, कुत्ते की दुम टेढ़ी की टेढ़ी, इन मुहावरों का कोई मतलब नहीं रह गया है। यहाँ अमेरिका में भी खिला – पिला कर हर कुत्ते की दुम सीधी कर दी गयी है।
वह कहती हैं – सबकी नहीं। कुछ कुत्ते ऐसे हैं जो अपने मुल्क में तो चुप थे, अमेरिका में आ कर उन्हें भौकना याद आ जाता है। आज़ादी है न यहाँ।
मैं भारत के कुत्तों की तरफ से कहता हूँ -- वह भौंकते है तो सिर्फ उस वक्त जब कमेटीवाले उन्हें पकड़ने आते हैं। अपनी आज़ादी वह भी छोड़ना नहीं चाहते।

एक बार एक ऐसा कुत्ता भी देखा जिसका मालिक उसे भौंकने के लिये उकसाता रहा, लेकिन उसका कुत्ता मुँह तो खोलता रहा, पर क्या मजाल कि एक बार भी भौंक कर दिखाये। यह यकीन दिलाने के लिये कि यह सचमुच कुत्ता है, मालिक बार बार कहता रहा – यह भौंकता भी है। और तो और उसने कुत्ते को यह याद दिलाने के लिये कि वह किस तरह भौंका करता था, उसे भौंक कर भी दिखाया।

मैं कहता हूँ – भैरव वाहन। इतना शांत ! ऐसा निष्काम ! स्थितप्रज्ञ ! कभी सोचा न था। श्रीमती जी कहती हैं - यह कुत्ता सुसभ्य है। यह भी जानता है कि बेकार नहीं भौंकना चाहिये।
विद्वान बताते हैं कि पालतू बनने का जानवरों पर ऐसा असर हुआ है कि यह जानवर वह नहीं रहे जो हुआ करते थे। जब तक आज़ाद थे, तब तक सिर ऊँचा था, जिस्म में फ़ुर्ती थी। जब शुरू में आदमी ने इन्हें पालतू बनाया तो इस उद्देश्य से कि उनकी प्रकृति का अपने लिये उपयोग कर सके। पर अब उनके मुँह लटक गये हैं, कंधे झुक गये हैं, चाहे वह बिल्लियाँ हों, मुर्गे-मुर्गियाँ हों या मछलियाँ ही। कुत्ता भी अपवाद नहीं रहा है।

रास्ते में एक मकान के बाहर एक कुत्ता और भी आता है। मैं चाहे जिस रफ़्तार से चल रहा होऊँ, चाहे दौड़ता हुआ उसके सामने से ही गुज़र जाऊँ, वह अपना लंबूतरा मुँह अपने पैरों पर टिकाये आँखें मूँदे पड़ा रहता है। कभी – कभी यह तक मुग़ालता होता है कि ज़रूर कोई डैकोरेशन – पीस है जिसे मकान – मालिक ने अपने घर के आगे सजा रखा है।

मैं कहता हूँ -- यह बहुत मायूस हो गया है। सोच रहा है अमरीकियों ने खा-खा कर अपनी नस्ल तो बिगाड़ी सो बिगाड़ी, खिला-खिला कर हमारी सारी नस्ल ही बिगाड़ कर रख दी।
कई अमरीकी अपने और अपने कुत्ते के जिस्मों पर चढ़ी चर्बी कम करने के लिये खुद भी हेल्थ-स्पा के चक्कर लगाते हैं, और अपने कुत्ते को डॉग-स्पा ले जाते हैं।

मेरे घर के पीछे एक खुला मैदान है। एक तलाब भी है। मकान लेने से पहले इन दोनों बातों ने मुझे विशेषरूप से आकर आकर्षित किया था, और इसे खरीदने का एक बड़ा कारण भी था। मैं देखता हूँ रोज़ सुबह मेरे कुछ पड़ोसी अपने – अपने कुत्तों को सुबह-सुबह घुमाने या नित्य कर्म कराने भी लाते हैं। नित्यकर्म कराने के बाद उन से यह अपेक्षित है कि कर्मफल को अपने प्लास्टिक के बैग में लपेटें और पास ही ‘लिटर कैन’ में डाल दें। ऐसा न करने पर उसे जुर्माना देना पड़ सकता है। एक दिन मैंने देखा कि एक कुत्ते ने मेरे घर के पीछे नित्यकर्म कर रहा है। उसके मालिक से अपेक्षित था कि ‘कर्मफल’ को प्लास्टिक के बैग में लपेटे और निर्धारित ‘कैन’ में फेंक दे। जब मैंने देखा कि उसने यह नहीं किया, तो मैं अपने घर से बाहर निकला, और मैंने उससे शिकायत की। उसने कुत्ते का पू-प उठा तो लिया, लेकिन उसके कुत्ते का रोष तो देखिये। अब जब कभी वह मेरे घर के पास से गुज़रता है, तो दो-तीन बार भउँ – भउँ करके आगे बढ़ता है।

यह सब देख कर मुझे लगता है चौरासी लाख जन्मों का अंत मनुष्य जाति में नहीं होता। उसके ऊपर भी एक जाति है। अमेरिका में कुत्ते के रूप में जन्म पाना।

श्रीमती जी कहती हैं -- भारत में लावारिस कुत्तों से भी ज़्यादा उनके गंद की समस्या है। मेनका गाँधी को इसके बारे में भी एक विधेयक पारित कराना चाहिये।

जब किसी कुत्ते का पू-पू उठाते उसके मालिक को देखता हूँ तो मुझे महाभारत का वह भाग याद आ जाता है जिसमें यमराज कुत्ते के रूप में युधिष्ठर की परीक्षा लेने आये थे। मैं सोचता कि कुत्ते हमारी कोई परीक्षा तो नहीं ले रहे। इन्होंने इस पूंजीवादी समाज में सब कुछ छोड़ दिया, कड़ाके की सर्दी हो या गर्मी इन्होंने मलमूत्र विसर्जन के लिये दिशा जाना नहीं छोड़ा। यह मनुष्य जाति को आखिर किस गुनाह की सज़ा दे रहा है।

लगता है यह हम से कहा करते हैं कि जब तक तू सुबह-सुबह लोटा उठा कर जंगल - दिशा जाता था तेरी मैंडेटरी - वॉक हो जाती थी, अब तेरा यह ही इलाज है कि प्लास्टिक के दस्ताने पहन कर मेरे पीछे-पीछे चलता रह।

१ अप्रैल २०१८

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।