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गौरव गाथा

हिन्दी साहित्य को अपने अस्तित्व से गौरवान्वित करने वाली विशेष कहानियों के इस संग्रह में प्रस्तुत है— रवीन्द्र कालिया की कहानी 'चाल'

उस दिन शनिवार था और शनिवार को उस चाल के पिछवाडे मैदान में सूखी मछली का बाजार लगता था। इस मैदान की एक अपनी दुनिया थी। सोम से शुक्र तक इसका माहौल अत्यन्त डरावना रहता। रात को कहीं किसी पेड के नीचे मोमबत्ती या दिया टिमटिमाता और उस अंधेरी रोशनी में देर तक ताश और मटका चलता। भिखारियों, जुआरियों, लूलों-लंगडों का यह प्रिय विश्रामस्थल था। ड्रेंगो इस मैदान के 'दादा' का नाम था। वह गले में रूमाल बाँधे अक्सर इस मैदान के आस-पास नजर आता। बिना ड्रेगों को दक्षिणा दिए इस मैदान में प्रवेश पाना असम्भव था, मगर शुक्र की रात से ड्रेंगो की सल्तनत टूट जाती। ड्रेंगों की एक प्रेमिका थी-मारिया। वह पास के ही एक सिनेमाहाल में ब्लैक में टिकटें बेचने का धंधा करती थी। शुक्र की रात ड्रेंगो उसके यहाँ चला जाता और उसके काम मे हाथ बँटाता। मैदान में उसकी दिलचस्पी खत्म हो जाती।

शाम को जब जमादार झाडू लगाता, तो बहुत विचित्र किस्म की चीजें कूडे में मिलतीं। नौटांक की खाली बोतलें। चिपचिपे निरोध। ताश के पत्ते। मटके की पत्रिकाएँ। सूखी हुई रोटियाँ। हडि्डयाँ। सिनेमा की टिकटें। और कभी-कभी कोई लाश। दिन भर कौवों की कांव-कांव सुनाई देती और रात देर तक कुत्तों के रोने की आवाज़।

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