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और उसके घर आने के बाद भी अगर वे रसोई में घुसी, खीर-पूरी, सूखी-गीली सब्जियाँ और किशमिश-छुहारे की चटनी बनाती रहीं तो उसके पास कैसे बैठ पाएँगी?

पूरे सात सालों से तिलतिल कर काटते पल और तलफलाती उतावली का एक अनवरत सिलसिला

पिता हो गए पति ने मौन तोड़ा --
"मेरा खयाल है कि अब हमें एकदम निकल लेना चाहिए। अरे थोड़ा-बहुत उसके आने पर भी कर लोगी तो क्या कोई मेहमान है अ़पना बेटा ही तो है"
"हाँ, उनका बहुत अच्छा बेटा"

सोचकर ही भीगी किशमिशें जैसे और मीठी हो आई। निकालकर छुहारे की चटनी में मिलाई और उठ लीं।

हाँ, यह एयरपोर्ट गवाह है। इसमें समाये समय के प्रवाह को उलीचकर देखें तो सब कुछ बह जाने के बाद भी उन जैसी माँओं की आँखों की कुछ डबडबी बूँदें थमी रह जायेंगी, अपने-अपने समंदरों के सच की बानगी के रूप में।

हाँ, यह एयरपोर्ट गवाह हैं। सब कुछ जुटापुटाकर उसे लैस कर दिया था, सूटकेस से लेकर अचार बड़ियाँ तक।

आखिरी बार, आँखों से ओझल होने के पहले कुछ पल खड़ा रहा था। थम कर भरी आँखों से देखा था फिर पलटकर चला गया था। सिक्योरिटी में। कितनी देर लुटेपिटे-से खड़े रहे थे दोनों फिर अचानक जमीन थर्राई और एयरपोर्ट के काँच के दरवाजे कँपकँपाये अंदर की प्राणवायु को ही जैसे चीरते हुए उड़ गया हवाई जहाज चलो लौटो कंधे पर पति हो आये पिता का हाथ पड़ा था।
वे ही इस बार नन्हें बच्चे-से किलके"आ गया प्लेन"
भीड़ पर भीड़, चेहरे पर चेहरे, लेकिन बीचो-बीच से टकटोर लायी दृष्टि।
उचक-उचककर बच्चों की तरह देखते-देखते अचानक --"वह, वह रहा।"
वैसा ही संजीदा-शांत थोड़ा और निखर आया सा।
उसने जरा बाद में देखा। हाथ हिलाकर मुस्कुराया लेकिन परेशान भी हुआ --
"अरे, मना तो किया था। खुद टैक्सी लेके आ जाता न" और एक विनम्र लाचारी"थोड़ा टाइम लगेगा"

तो क्या हुलसे दोनों। निहाल, बेहाल उसे देखते रहे इस खिड़की से उस खिड़की जाते, कागज बढ़ाते, क्लियर कराते। अंत में आ गया। एक अपनत्व-भरी मुस्कान से दोनों को तृप्त करता। बेहद धीमे से साथ आये लड़कों को, आँखों में समझाया गया (माता-पिता की तरफ इशारा करके) सॉरी, (अंग्रेजी में) मैं साथ नहीं आ पा रहा। ओ.के.!

लड़के जिन्दादिली से हाथ हिलाते पलट लिये वह इन लोगों के साथ टैक्सी में आ बैठा। माँ की बगल में।
" कैसी हो मम्मी!"
मगन, गदगद, रोमांच, विकल खुशी का अतिरेक जैसे सीना फाड़कर निकल जाने को आतुर।
"और आप पापा!"
"मैं?" अचकचा कर आधे शर्माये, आधे पुलकित"मैं तो बेटा एकदम फिट्ट हूँ। ये तुम्हारी मम्मी ही दिन-रात, कैसे होगा, कहाँ होगा, कैसे खुद बनाके खाता-पीता होगा कह-कहकर बिसूरती रहती थी सोते, जागते बस एक ही रट"

वह हँस दिया उसी संजीदगी से। लेकिन तत्क्षण एक सतर्क, एलर्टनेस उ़धेड़-बुन-सी, इस, इतने प्यार के अतिरेक को कैसे सँभाला जाये क्या कुछ और कैसे कहा जाये!
तब तक माँ ही पूछ रही थी --
"तू बता, कैसा है"
"मैं?" अटपटा-सा हो आया वह, फिर हँसकर,"अच्छा हूँ एकदम तुम्हारे सामने"
इतना छोटा-सा उत्तर! जैसे बहुत बड़ी थाली में एक नन्हा-सा कौर! लेकिन इससे बड़ा जवाब आखिर हो भी क्या सकता था!

अच्छा हुआ जो पिता ने तब तक इनफ्लेशन के बारे में पूछ लिया। वह इनफ्लेशन के साथ टेररिज्म, सेफ्टी, सिक्योरिटी, कस्टम सिस्टम आदि के बारे में बताता रहा।

समझती हैं वे भी तो यह सब। फिर भी थोड़ी ईर्ष्या हुई पितृत्व से। दुर व़े और पति क्या कोई दो हैं!

आ गया, आ गया घर। भर भी गया, बैगों, सूटकेसों और पैकेटों से। सब कुछ के बीचों-बीच वे अचानक किंतर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रह गयी हैं। क्या दें सबसे पहले खाने को? खीर? दही? या फिर दूध में भींगे पुए। अमावट -- अमावट उसे बहुत पसंद हैं गजक भी तो उसकी सारी पसंद की चीजें घर में ला-लाकर जमायी हुई हैं। लेकिन वह खायेगा क्या? कैसे मालूम हो?

बावली-सी उसके सामने ढेर सारी खाने की चीजों की सूची दुहरा गयीं। थोड़ी खिसियाहट भी लगी। वह उसी तरह बेहद नरमी से मुस्कुराया,"कुछ भी दे दो पर जरा-सा ही प्लेन में खाया है"

कुछ भी कुछ भी आखिर क्या! इतनी सारी चीजों में, जो उसने सात सालों में एक बार भी नहीं चखीं और उसे बहुत पसंद हैं, लेकिन अब दुबारा नहीं पूछेंगी।

दौड़ी-दौड़ी जाकर, थोड़ी-थोड़ी सारी चीजें ही एक प्लेट में सजा लायीं। खुद पर खीझीं भी इतना कुछ एक साथ देखकर तो वह अभी ही ऊब जायेगा श़ायद कुछ भी न खा पाये। वही हूआ।
"अरे इतनी सारी चीजें!" हँस गया वह जैसे किसी बच्चे ने प्लेट थमाई हो। थोड़ा-सा कुछ लेकर प्लेट वापस कर दी। वे लजायीं, खिसियायी-सी प्लेट वापस लेकर चली गयीं।

मन न माना।
"चाय बना दूँ?"
"रहने दो अभी कुछ खास मन नहीं"

पति ने भी आँखों में बरजा -- तुम तो एकदम पीछे ही पड़ गयीं। सो चुप हो लीं।

सब तरफ एक शांत, संजीदी चुप्पी पसरी हुई-सी। अचानक घर और बड़ा, और खाली लगने लगा। कुछ इस तरह जैसे वे सब उस बहुत फैले खालीपन को भरने के लिए एक-दूसरे से बचा-बचाकर जी-जान से कोशिश किये जा रहे हैं। साथ-साथ ही डर भी कि कहीं उनमें से कोई यह सूनापन, भाँप न ले। लगातार यह सोचते हुए कि अब क्या पूछा जाए, क्या कहा जाए क्या किया जाए!

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