कहानियाँ  

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है
भारत से संतोष गोयल की कहानी बकरीदी


आदर्श बेटे की शक्ल अख्तियार करके आएँ या फिर भाग्य से प्राप्त फल के रूप में - अन्त तो वाणिज्य-धर्म निभाने के साथ ही होता है- यह बात उस समय समझ में नहीं आई थी, जब मेरी फरोख़्त हुई थी, पर आज भी यदि न समझ पाऊँ तो सभी शिक्षा, अनुभव व उम्र बेकार हैं। वह सोच रहा था।

ज़रा जल्दी आ जाइयो। सेठ माणिक लाला जी आन वाले हैं और हाँ टाइम सिर आइयो जी हमेशा की तर्यौं मेहमाना के आन के बाद न पहुँचियो हमेशा की तरयौ हमेशा का ही किस्सा हैगा अब उसकी बात मात्र बडबडाहट रह गई थी हमेशा की तरह ही। पहले शब्द, फिर बड़बड़ाहट और अन्त में मात्र आवाज़ें ढ़ोलों पर पड़ती थाप की आवाज़ें पट् पट् की चोटें दिमाग़ की नसों में तनाव पैदा कर रहीं थीं। न तो शहनाइयों की धुन सुन पड़ रही थी, न ही विवाह के गीत, न सालियों के सीठने, कहकहे सिफ़ थीं - या तो पट्-पट् की दिमाग पर पड़ती चोट या फिर तेज़ चीखती आवाज़ें पता नहीं आवाज़ें कौन-सी थीं? सालों पहले की या बिल्कुल अभी की सेठ मणिक लाला जी आन वाले हैं। - क्यों आने वाले हैं? प्रश्न गले में मैदे-सा चिपक गया था। खोये की मिकदार कम और मैदे की ज़्यादा हो तो गले में चिपकती बरफी जैसा जब चिपक ही गया तब सवाल कैसे पूछता? सवाल पूछता भी किससे? किस अधिकार से? उत्तर कौन देता? क्यों देता? किसको देता? पहले वाला न उत्तर देने वाला था, न ही प्रश्नकर्ता? पहले वाला न प्रश्न, न उत्तर।

पृष्ठ- . . .

आगे-