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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से जयनंदन की कहानी— पेटू


दरबारी प्रसाद अपने बचपन की भूख को आज तक नहीं भूले, वे शायद इसे भूलना भी नहीं चाहते। भूख की याद आती है तो अन्न के एक-एक दाने का मोल वे महसूस करने लगते हैं और जब अन्न के दाने उन्हें बर्बाद या फेंके हुए दिखाई पड़ जाते हैं तो बरबस उन्हें भूख याद आ जाती है।

कल रात में उनके बेटों ने दोस्तों को पार्टी दी। सुबह में दाई ने ढेर सारा खाना, पुलाव, चिकेन, सलाद, नान आदि घूरे पर फेंक दिये। उनकी नजर पड़ गयी और आत्मा रिस उठी किसी पके घाव की तरह। उन्होंने अनुमान लगाया कि ये सामग्री कम से कम बीस आदमी के भरपेट खाने लायक हैं। इस तरह की बर्बादी उन्हें घर-बाहर अक्सर दिखाई पड़ जाती और वे बुरी तरह आहत हो जाते। क्लबों, होटलों, शादी की पार्टियों आदि में होनेवाली बाहर की बर्बादियों पर तो खैर उनका कोई अख्तियार नहीं हो सकता था, लेकिन वे बहुत निरीह और हताश थे कि घर की बर्बादी पर भी उनका कोई वश नहीं था।

उन्होंने कहीं पढ़ा था कि इस देश में एक दिन में अनाज की जितनी बर्बादी हो जाती है, उतने में इथोपिया, नामीबिया या सोमालिया जैसे भूखे देश के साल भर के भोजन की जरूरत पूरी हो सकती है।

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