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					 'फिर वही शर्बत! तुम्हें अच्छी तरह मालूम है– – मेरा गला 
					खराब है। पकड़ा दिया हाथ में ठंडा शर्बत। कभी तो अक्ल का काम 
					किया करो। जाओ, चाय लेकर आओ... और सुनो, आगे से आते ही ठंडा 
					शर्बत मत ले आया करो सामने... बीमार पड़ना अफोर्ड नहीं कर 
					सकता मैं। ऑफिस में दम लेने की फुर्सत नहीं रहती मुझे...
					पर 
					तुम्हें कुछ समझ में नहीं आएगा...तुम्हें तो अपनी तरह सारी 
					दुनिया स्लो मोशन में चलती दिखाई देती है... .......
 
 'सारा दिन घर–घुसरी बनी क्यों बैठी रहती हो, खुली हवा में थोड़ा 
					बाहर निकला करो। ढँग के कपड़े पहनो। बाल संवारने का भी वक्त 
					नहीं मिलता तुम्हें तो बाल छोटे करवा लो, सूरत भी कुछ सुधर 
					जाएगी। पास–पड़ोस की अच्छी समझदार औरतों में उठा–बैठा करो।
 .......
 
 'बाऊजी को खाना दिया? कितनी बार कहा है, उन्हें देर से खाना 
					हजम नहीं होता, उन्हें वक्त पर खाना दे दिया करो... . .दे 
					दिया है? तो मुँह से बोलो तो सही, जब तक बोलोगी नहीं, मुझे 
					कैसे समझ में आएगा?
 
 'अच्छा सुनो, वह किताब 
					कहाँ रखी है तुमने? टेबल के ऊपर–नीचे सारा ढूँढ़ लिया, शेल्फ भी 
					छान मारा। तुमसे कोई चीज ठिकाने पर रखी नहीं जाती? गलती की जो 
					तुमसे पढ़ने को कह दिया। अब वह किताब इस जिन्दगी में तो मिलने 
					से रही। तुम औरतों के साथ यही तो दिक्कत है – – शादी हुई नहीं, 
					बाल–बच्चे हुए नहीं कि किताबों की दुनिया को अलविदा कह दिया और 
					लग गए नून–तेल–लकड़ी के खटराग में, पढ़ना–लिखना गया भाड़ में...
 .......
 'यह कोई खाना है! रोज वही दाल–रोटी–बैंगन–भिंडी और आ– –लू। आलू 
					के बिना भी कोई सब्जी होती है इस हिन्दुस्तान में या नहीं? मटर 
					में आलू, गोभी में आलू, मेथी में आलू, हर चीज में आ– –लू। 
					तुमसे ढंग का खाना भी नहीं बनाया जाता। अब और कुछ नहीं करती हो 
					तो कम से कम खाना तो सलीके से बनाया करो।...जाओ, एक महीना 
					अपनी माँ के पास लगा आओ, उनसे कुछ रेसिपीज नोट करके ले आना...अम्मा तो तुम्हारी इतनी बढ़िया खाना बनाती है, तुम्हें कुछ 
					नहीं सिखाया? कभी चायनीज बनाओ, कॉन्टीनेन्टल बनाओ...खाने में 
					वैरायटी तो हो...'वह किताब जरूर ढूँढ़ कर रखना, मुझे वापस देनी है। यह मत कहना – 
					– भूल गयी – – तुम्हें आजकल कुछ याद नहीं रहता...
 ..........
 
 'अब तो दोनों सो गए हैं, अब तो यहाँ आ जाओ, बस, मेरे ही लिए 
					तुम्हारे पास वक्त नहीं हैं। और सुनो...बाऊजी को 
					दवाई देते हुए आना, नहीं तो अभी 
					तो अभी टेर लगाएँगे...
 ..........
 
 'आओ, बैठो मेरे पास! अच्छा, यह बताओ, मैंने इतने ढेर सारे 
					प्रपोजल में से तुम्हें ही शादी के लिए क्यों चुना? इसलिए कि 
					तुम पढ़ी–लिखी थीं, संगीत–विशारद थीं, गज़लों में तुम्हारी 
					दिलचस्पी थी, इतने खूबसूरत लैंडस्केप तुम्हारे घर की दीवारों 
					पर लगे थे। ...तुमने अपना य–ह हाल कैसे बना लिया? चार 
					किताबें लाकर दी तुम्हें, एक भी तुमने खोलकर नहीं देखी।...... ऐसी ही बीवियों के शौहर फिर दूसरी खुले दिमाग वाली औरतों 
					के चक्कर में पड़ जाते हैं और तुम्हारे जैसी बीवियाँ घर बैठकर 
					टसुए बहाती हैं...पर अपने को सुधारने की कोशिश बिल्कुल नहीं 
					करेंगी।
 ....... . .
 
 'तुम्हारे तो कपड़ों में से भी बेबी फूड और तेल–मसालों की गंध आ 
					रही है...सोने से पहले एक बार नहा लिया करो, तुम्हें भी 
					साफ–सुथरा लगे और...
 ....... . .
 
 'यह लो, मैं बोल रहा हूँ और तुम सो भी गई। अभी तो सिर्फ साढ़े 
					दस ही बजे हैं, यह कोई सोने का वक्त हैं? सिर्फ घर के कामकाज 
					में ही इतना थक जाती हो कि किसी और काम के लायक ही नहीं रहतीं..."
 ...
 
 पहला चेहरा– (शादी के पंद्रह साल बाद) –रहोगी तुम वही
 
 'तुम्हारी आदतें कभी सुधरेगी नहीं। पंद्रह साल हो गए हमारी 
					शादी को, पर तुमने एक छोटी सी बात नहीं सीखी कि आदमी थका–माँदा 
					ऑफिस से आए तो एक बार की घंटी में दरवाजा खोल दिया जाए। तुम उस 
					कोने वाले कमरे में बैठी ही क्यों रहती हो कि यहाँ तक आने में 
					इतना वक्त लगे? मेरे ऑफिस से लौटने के वक्त तुम यहाँ...इ–स 
					सोफे पर क्यों नहीं बैठतीं?
 .......... .
 
 'अब यह घर है? न मेज़ पर ऐश ट्रे, न बाथरूम में तौलिया...बस, 
					जहाँ देखो, किताबें, किताबें, किताबें – – मेज पर, शेल्फ पर, 
					बिस्तर पर, कार्पेट पर, रसोई में, बाथरूम में...क्या अब 
					किताबें ही ओढ़ें–बिछाएँ, किताबें ही पहनें, किताबें ही 
					खाएँ?...
 . . ........ . ......
 
 'यह कोई वक्त है चाय पीने का? खाना लगाओ। गर्मी से वैसे ही 
					बेहाल हैं, आते ही चाय थमा दी। कभी ठंडा नींबू–पानी ही ले आया 
					करो।...
 ....... . ..... . .
 
 'अच्छा, इतने अखबार क्यों दिखाई देते हैं यहाँ? शहर में जितने 
					अखबार निकलते हैं, सब तुम्हें ही पढ़ने होते हैं? खबरे तो एक ही 
					होती हैं सबमें। पढ़ने का भूत सवार हो गया है तुम्हें। कुछ होश 
					ही नहीं कि घर कहाँ जा रहा है, बच्चे कहाँ जा रहे हैं...
 ............. . .
 
 'यह क्या खाना है? बोर हो गए हैं रोज–रोज सूप पी पी कर और यह 
					फलाना–ढिमकाना बेक्ड और बॉयल्ड वेजीटेबल खा–खाकर। घर में रोज 
					होटलों जैसा खाना नहीं खाया जाता। इतना न्यूट्रीशन कॉन्शस होने 
					की जरूरत नहीं हैं। कभी सीधी सादी दाल–रोटी भी बना दिया करो, 
					लगे तो कि घर में खाना खा रहे हैं। आजकल की औरतें विदेशी नकल 
					में हिंदुस्तानी मसालों का इस्तेमाल भी भूलती जा रही हैं।
 .......... .
 
 'यह क्या है, मेरे जूते रिपेअर नहीं करवाए तुमने? और बिजली का 
					बिल भी नहीं भरा? तुमसे घर में टिककर बैठा जाए, तब न! स्कूल 
					में पढ़ाती हो, वह क्या काफी नहीं हैं? ऊपर से यह समाज सेवा का 
					रोग भी पाल लिया अपने सिर पर! क्यों जाती हो उस फटीचर समाजसेवा 
					के दफ्तर में? सब हिपोक्रेट औरतें हैं वहाँ। मिलता क्या है 
					तुम्हें? न पैसा, न धेला, उल्टा अपनी जेब से आने–जाने का भाड़ा 
					भी फूँकती हो।
 
 'यह है तुम्हारे लाडले का रिपोर्ट कार्ड! भूगोल में तेईस, 
					इतिहास में पच्चीस और मैथ्स में बारह! फेल नहीं होंगे तो और 
					क्या! माँ को तो फुर्सत ही नहीं है बेटे के लिए। अब मुझसे 
					उम्मीद मत करो कि मैं थका–माँदा लौट कर दोनों को गणित पढ़ाने 
					बैठूंगा। एम.ए. की गोल्ड मेडलिस्ट हो, तुमसे अपने ही बच्चों को 
					पढ़ाया नहीं जाता? तुम्हें नया गणित नहीं आता तो एक टयूटर रख 
					लो। अब तो तुम भी कमाती हो, अपना पैसा समाज सेवा में उड़ाने से 
					तो बेहतर ही है कि बच्चों को किसी लायक बनाओ। सारा दिन 
					एम.टी.वी. देखते रहते हैं।
 ..........
 
 'यह तुमने बाल इतने छोटे क्यों करवा लिए हैं? मुझसे पूछा तक 
					नहीं! तुम्हें क्या लगता है, छोटे बालों में बहुत खूबसूरत लगती 
					हो? यू लुक हॉरिबल! तुम्हारी उम्र में ज्यादा नहीं तो दस साल 
					और जुड़ जाते हैं। चेहरे पर सूट करें या न करें, फैशन जरूर करो।
 ....... . .
 
 'सोना नहीं हैं क्या? बारह बज रहे हैं। बहुत पढ़ाकू बन रही हो 
					आजकल! तुम्हें नहीं सोना है तो दूसरे कमरे में जाकर पढ़ो। 
					मेहरबानी करके इस कमरे की बत्ती बुझा दो और मुझे सोने दो।
 ....... . .
 
 'अब हाथ से किताब छोड़ो तो 
					सही। सच कह रहा हूँ, मुझे गुस्सा आ गया तो इस कमरे की एक–एक 
					किताब इस खिड़की से नीचे फेक दूँगा। फिर देखता हूँ, कैसे...
 ....... . .
 
 'अरे, कमाल है, मैं बोले जा रहा हूँ, तुम सुन ही नहीं रही हो। 
					ऐसा भी क्या पढ़ रही हो जिसे पढ़े बिना तुम्हारा जनम अधूरा रह 
					जाएगा। कितनी भी किताबें पढ़ लो, तुम्हारी बुद्धि में कोई 
					बढ़ोतरी होनेवाली नहीं है। रहोगी तो तुम वही...।'
 .........
 
 दूसरा चेहरा — सत्ता–संवाद
 
 'आ गये? यह लो, खाली हाथ झुलाते चले आये। मैंने कुछ लाने को 
					कहा था? याद नहीं रहा। कोई नयी बात है? याद रहता कब है? अब मैं 
					बाहर भी करूं और घर का सारा जंजाल भी संभालूँ। मरने दो, मुझे 
					क्या पड़ी है। मैं भी नहीं जाती। चलने दो घर जैसे चलता है।'
 ....... . .
 
 'चप्पलें कहाँ लिए जा रहे हो? सारी दुनिया की धूल–मिट्टी कमरे 
					में फैला दी। चप्पलें दरवाजे पर उतारी नहीं जातीं? पैरों में 
					मिट्टी लिथड़ती रहे, तुम्हें क्या...आज कामवाली भी नहीं आई 
					हैं पर तुम्हें क्या फर्क पड़ता है। घर गंदा रहे, साफ रहे – – 
					तुम्हारी बला से। हर काम के लिए मैं ही मरती–खपती रहूँ।'
 
 'इन उखड़ी हुई चप्पलों को पहनना बहुत अच्छा लगता है क्या? दस 
					दिन से देख रहा हूँ, पैर घसीट–घसीट कर चल रहे हो। दो मिनट मोची 
					के पास खड़े होकर गँठवा भी नहीं सकते? सारा दिन कॉफी हाउस में 
					पड़े सिगरेटें फूँक–फूँक कर दर्शन बघारते रहते हो। कॉफी हाउस के 
					बाहर ही तो मोची बैठा रहता है, पर नहीं, क्यों गँठवाओ चप्पल। 
					फटी–टूटी चप्पल पहनने में जो शान है, वह दुरूस्त चप्पल पहनने 
					में कहाँ।'
 ....... . .
 
 'बेटा भी वही रंग–ढँग सीख रहा है। कपड़े धुलाई में डालता ही 
					नहीं। महीने भर से एक ही जीन्स और हवाई चप्पल चटखाता घूम रहा 
					हैं। शेव भी नहीं करता। मैले कपड़े लादे रहने में ही शान समझता 
					है। पिता पर पूत...आखिर बेटा किसका है।...एक मैं ही हूँ 
					जिसे लोक–लाज निभानी पड़ती है। वही दो–चार सूती साडियाँ 
					धो–सुखाकर कलफ लगाकर पहनती हूँ, उस पर भी दोनों बाप–बेटे आँखें 
					फाड़ते रहते हो...जैसे बड़ा सज–संवर कर निकल रही हूँ।...मैं भी तुम दोनों की तरह हाथ पर हाथ धरे फटेहाल पड़ी रहूँ तो 
					जो चार पैसे घर में आते हैं, उसके भी लाले पड़ जाएँ।...पर 
					तुम्हें क्या...तुम्हें तो बैठे–ठाले रोटियाँ...'
 ....... . .
 
 'वाह। थाली सरका कर उठ गए? इस उम्र में भी नखरे दिखाने बाकी रह 
					गए हैं। पकाऊं भी मैं और उगाऊं भी मैं। तुमसे तो रास्ते से एक 
					सब्जी उठाकर नहीं लाई जाती। थैला हाथ में लेते हुए शर्म आती 
					है। जब खाना खाने में किसी को शर्म नहीं आती तो लाने में कैसी 
					शर्म। दो–एक बार खुद खरीदकर लाओ तो पता भी चले कि सब्जी–भाजी 
					के भाव कहाँ जा रहे हैं।...अब खाली मेरी कमाई से तो घर में 
					छत्तीस पकवान बनने से रहे। भगवान का शुक्र है कि दो वक्त की 
					रोटी जुट जाती है, किसी 
					के आगे हाथ पसारने नहीं पड़ते वर्ना तुमने तो उसके लिए भी कोई 
					कसर बाकी नहीं छोड़ी थी...'
 ....... . .
 
 'अच्छा, यह बताओ, मेरी साड़ी कामवाली को किसने दी? मैं हफ्ता भर 
					बाहर क्या गई, तुमने बड़ी दरियादिली से घर का सामान जिसे–तिसे 
					लुटा डाला? पानी भरने वाला घाटी तुम्हारी टी शर्ट पहन रहा है, 
					बाहर डोलता पगला बाबा तुम्हारा कुरता–पायजामा लटकाए घूम रहा 
					है। अपने तो अपने, मेरे कपड़े भी बाँट दिए? खुद फटे चिथड़े पहनों 
					और कपड़े दीन–दुखियारों में बाँटते फिरो। पूरे मुहल्ले में एक 
					तुम ही दाता–दानी रह गए हो।...
 ....... . .
 
 'बस, घुस गए अपने दड़बे में। एक तुम और एक तुम्हारी बाबा आदम के 
					जमाने की यह मेज, जिस पर कहने को दो दर्जन पेन रखे हैं पर कभी 
					हिसाब करने को हाथ में लो तो एक भी चलता नहीं। सब की स्याही 
					सूखी पड़ी है। इस घर का सूखा हर जगह व्याप गया है।...
 ....... . .
 
 'लो, पड़ गए किताबों में सिर डाल के। सच को बर्दाश्त करना बहुत 
					मुश्किल होता है पर जिस पर बीतती है, सच उसी के मुँह से निकलता 
					है। तुममें तो सच सुनने का माद्दा ही नहीं रहा कभी। वैसे बड़ा 
					सच लिखने का दंभ भरते हो। बड़ी तीखी सच्चाइयाँ उड़ेलते हो अपनी 
					कलम से। हिपोक्रेट हो तुम सब। जितने झूठे तुम सब लिखनेवाले हो, 
					शायद ही दुनिया का कोई 
					आदमी इतना झूठ बोलता हो। और तुर्रा यह कि सच्चाई का सेहरा भी 
					अपने ही सिर सजाए फिरते हो।
 .......
 
 'दरवाजा बन्द कर लेने से मेरी आवाज़ बंद नहीं हो जाएगी, यह याद 
					रखना। कमरा बंद करके लिखो फूल और पत्तियों की कविताएँ। करो 
					आसमान, सूरज, चांद, सितारे और समन्दर की बातें। लताड़ो 
					राजनेताओं और भ्रष्टाचारियों को। और लूटो वाहवाही। घर तो अपना 
					संभाला नहीं जाता, दुनिया–जहान की हाँकते हो। अरे बेटे को ही 
					बैठकर कुछ पढ़ाया होता तो आज वह भी तुम्हारी तरह नकारा न डोलता। 
					अपनी ही दुनिया में कैद रहे जिन्दगी भर। और दो–दो जिन्दगियाँ 
					बरबाद कीं। मैंने तो तुम्हारे साथ जैसे–तैसे निबाह लिया पर 
					इसकी बीवी दो दिन में इसे छोड़ न गई तो कहना।...पर तुम्हें 
					क्या। अपने दड़बे में बंद होकर कागज काले करते रहना।
 .......
 
 'कभी–कभी अफसोस होता है – – घर में हम तीन प्राणी और चार कोने 
					– – सब एक–दूसरे से कटे हुए और अलग–थलग। बाप बेटे के स्वभाव 
					में राई–रत्ती फर्क नहीं पर रिश्ते में छत्तीस का नाता है। 
					मुझे तो याद नहीं आता कि कभी तुम दोनों ने बैठकर आपस में कोई 
					सलाह–मशविरा किया हो। कोई बात करने बैठे नहीं कि बहस शुरू हो 
					जाती है।...बेटा बड़ा हो जाए तो दोस्त से बढ़कर होता है। 
					कितनी चाहती थी मैं कि तुम दोनों दोस्तों की तरह रहो। यह बात 
					कहो तो आग लग जाती है तुम्हें। कहते हो, मैंने ही उसे तुम्हारे 
					खिलाफ भड़काया है। और सुनो, मैं क्यों भड़काऊंगी भला। मुझे क्या 
					पड़ी है। उसके क्या आंख–कान नहीं है? देखता–समझता नहीं कि घर 
					में कैसे मेहमानों की तरह रहते हो? घर न हुआ, होटल हो गया 
					तुम्हारे लिए। बल्कि मैं तो कहूँ, जैसे वह मेरे साथ पेश आता 
					है, सब तुमसे ही सीखा है उसने, और क्या। न तुमने मुझसे कभी 
					प्यार के दो बोल बोले न उससे। वह जमाना गया, जब हथेलियों में 
					उसका सिर लेकर उसे लोरियाँ सुनाया करते थे। हा–य...उस बच्चे 
					को वही दो–चार महीने गोद में उठाया तुमने। होश सँभालने के बाद 
					तो तुम्हारी नफरत ही झेली उसने। 
					बीस साल का होने वाला है पर कभी जो उसके हाथ में बीस रूपए भी 
					थमाए हों तुमने कि ले बेटा, पाव–भाजी खा लेना।'
 ....... . .
 
 'पता नहीं जो भी थोड़ा बहुत कमाते हो, जाता कहाँ है। मुझे 
					तो पता भी नहीं कितना पैसा मिलता है तुम्हें। जेब तो हमेशा 
					खाली ही रहती है।...
 ....... . .
 
 'यह लो, एक और प्रेमपत्र। इस उम्र में भी तुम्हारी जेब से 
					प्रेमपत्र ही निकलते हैं। भूखे भजन हो न हो, इश्कबाजी तो हो ही 
					सकती है। बेटा शादी की उम्र पर आ रहा है और इश्क बाप को चढ़ा 
					है। पता नहीं, ये तुमसे आधी उम्र की लड़कियाँ क्या देखती हैं 
					तुममें। सब अव्वल दर्जे की बेवकूफ होती हैं। मरती हैं तुम्हारी 
					हवाई कविताओं पर। उन्हें क्या मालूम कि इन कविताओं को गूँधकर 
					दो वक्त की रोटी नहीं पकाई जा सकती। तुम्हारे झोले और दाढ़ी पर 
					मरती हैं। तुम्हारे साथ 
					रहकर देखें। दो दिन में आटे–दाल का भाव न पता चल गया तो कहना। 
					बड़ी हवा में उड़ती फिरती हैं...
 ....... . .
 
 'मैं भी कितनी पागल हूँ। यह सब मैं कह रही हूँ। मैं – – जो खुद 
					इतनी पागल थी। आज से पच्चीस साल पहले...याद करूं तो दिल दहल 
					जाता है। तुम्हारे प्यार में मरने–मिटने पर उतारू थी। लगता था, 
					दुनिया का हर रास्ता सिर्फ तुम तक जाता है। तुम्हारे खतों की 
					एक–एक लाइन मुझे जबानी याद थी। तुम्हारे एक खत को पच्चीस बार 
					पढ़ती थी मैं। तुम्हारी खूबसूरत हैंडराइटिंग की घंटों नकल किया 
					करती थी। तुम्हारी दाढ़ी में मुझे ईसा मसीह नज़र आता था। कंधे पर 
					झोला टांगे हुए तुम मुझे दुनिया के सबसे सुंदर इन्सान दिखाई 
					देते थे।... कितनी पागल थी मैं। सोचती थी, तुम मिल जाओ मुझे तो 
					बस फिर और कुछ नहीं चाहिए। शादी हुई नहीं कि सारे टेक्नीकलर 
					सपने काले–सफेद हो गए। साल भर की नून–तेल–लकड़ी में सब हवा हो 
					गया। घर के खटराग में मेरे तो बाल सफेद हो गए पर तुम नहीं 
					बदले। रहे मजनूँ के मजनूँ ही।...
 ....... . .
 
 कमाल है, एक हफ्ते से 
					ट्यूबलाइट खराब पड़ी हैं, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। अढ़ाई तो 
					कमरे हैं, उसमें से एक में रोशनी नहीं। वैसे ट्यूबलाइट ठीक हो 
					भी जाए तो कौन सा अंधेरा दूर होने वाला है। भला है, बैठे रहो 
					अँधेरे में ही।...
 ....... . .
 
 'उफ, बिजली का बिल भी नहीं भरा तुमने। टेलीफोन तो कट ही गया 
					है, बिजली भी कट जाएगी। पर तुम्हें क्या। कहोगे, इस औरत का 
					दिमाग चल गया है, सारा दिन बड़बड़ाती रहती है। तुम्हारे साथ बाईस 
					साल जैसे मैंने काटे हैं, कोई भी औरत पागल हो जाएगी। तुम तो घर 
					में बैरागी से रहते हो। अब में स्कूल से आधी छुट्टी लेकर जाऊं 
					बिजली का बिल भरने। हमेशा यही होता है। मैं भी कितनी बेवकूफ 
					हूँ कि अब भी तुमसे कुछ उम्मीद रखती हूँ। मुझे अब तक समझ लेना 
					चाहिए था कि तुम...। छोड़ो, तुम्हें कोस–कोस कर अपनी जबान क्यों 
					खराब करूं...
 ....... . .
 
 'अब फिर झोला उठाकर कहाँ चल दिए? यह खाना जो थाली में छोड़कर उठ 
					गए हो, कौन खाएगा? मत समझना कि मैं इतनी पतिव्रता हूँ कि 
					तुम्हारी जूठी थाली में खाकर अपना जनम सकारथ समझूंगी। तुम्हें 
					खाने की क्या कद्र होगी। खुद कमाते–धमाते तो पता चलता कि झोला 
					लेकर बड़ी–बड़ी फिलॉसाफी हाँकने से घर का चूल्हा नहीं जलता। उसके 
					लिए सुबह से शाम तक हड्डियाँ गलानी पड़ती हैं, तब जाके...लेकिन तुम पर किसी बात का कोई असर नहीं होता...पता 
					नहीं कौन सी मिट्टी के 
					बने हो...
 ....... . .
 
 'अब जा ही रहे हो तो अपना यह प्रेमपत्र लेते जाओ। याद रखना, 
					मुझसे कुछ छिपा नहीं हैं। इसे कह दो, आने को तैयार हैं तो मेरी 
					ओर से कोई रूकावट नहीं। आए! संभाले तुम दोनों को! मेरी जान 
					छूटे! बाईस सालों में यूँ भी कितनी जान बाकी रह गई है...
 ....... . .
 
 इसलिए नहीं खाने बैठी तुम्हारी थाली में कि पति–परमेश्वर की 
					जूठन का भोग लगाऊं। अपनी कमाई का दर्द मुझे नहीं होगा तो क्या 
					तुम्हें होगा – – भरी थाली छोड़ी, झोला उठाया और चल दिए।...
 
 लेकिन जाओगे कहाँ? देर–सवेर यहीं आओगे...खाली हाथ झुलाते...' ।
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