मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


2
ममा यानी नेहा, मेरी बहू। मैं सकते में आ गई। वह जिसके नाम से हम सब अपना पल्ला बचाकर चलते थे, जैसे वह अछूत हो, इसी तरह जब–तब हमारे ठहरे हुए संसार को तहस नहस करने चली आती थी।

नेहा को इस घर से गए एक साल होने को आया था पर चिल्की उसे भूलती नहीं थी। कभी लाल हेअर क्लिप, कभी जयपुरी जूतियां, कभी टपरवेअर का टिफिन बॉक्स, कभी डोनल्ड डक की मूठ वाली छतरी, कभी बालों पर टंगा सनग्लास – चिल्की के सामने किसी न किसी बहाने से उसकी प्यारी 'ममा' आकर ठहर जातीं और हमारे 'हुश हुश' करने के बावजूद ओझल होने का नाम नहीं लेती।

अब चिल्की पर नाराज़ होना संभव नहीं था। उसका ध्यान गिलास से हटाना अब दूसरे नम्बर पर चला गया था। सुबकती हुई चिल्की को मैंने अपनी बाहों की ओट में ले लिया। चिल्की मेरे करीब सिमट आई और बड़ों की तरह रूलाई रोकने की कोशिश में उसकी हिचकियां तेज़ हो गई।

"सुन बेटा! एक कहानी सुनाऊं तुझे? सुनेगी?" चिल्की को बहलाने का अमोघ अस्त्र था यह।
"पहले मेरा वो . . .सुंदर वाला ब्ल्यू गिलास . . ." चिल्की गिलास से हटने को तैयार नहीं थी।

एकाएक वह गिलास दुबारा टूटा और उसकी जगह एक चमकते हुए कांसे के गिलास ने ले ली – संकरी पेंदी और चौड़े मुंह वाला एक लंबा सा कांसे का गिलास . . .गिलास न हो . . .फूलदान हो जैसे।.
"अरे बेटा, गिलास की ही कहानी तो सुना रही हूं तुझे। सुनेगी नहीं, रानी बेटी?"
"बोलो," उसने जैसे मुझ पर एहसान किया, सिर हिलाकर हामी भर दी।.
"तब मैं तेरी ही तरह छह साल की थी। इत्ती छोटी, चिल्की जैसी।
"हुंह, झूठ!" वह सिसकी तोड़ती बोली, आप इत्ते छोटे कैसे हो सकते हो?"
"तो क्या मैं पचास साल की ही पैदा हुई थी – इत्ती बड़ी? अच्छा चल, मैं छह की नहीं, सोलह साल की थी, ठीक?" मैं ठहाका मारकर हंस दी।

मैं अपने बचपन में पहुंच गयी जहां निवाड़ वाली मंजियों (खटिया) के बीच खड़िया से आंगन में इक्का–दुक्का आंक कर मैं शटापू (टप्पे वाला खेल) खेलती थी। मुझे हंसी आ गई।

वह मेरी पीठ पर धपाधप धौल जमाने लगी, "हंसो मत! कहानी सुनाओ।"

वह होठों को एक कोने पर जरा सा खींचकर मुस्कुरायी। बिल्कुल अपनी मां की तरह। उसके चेहरे पर नेहा दिखाई देने लगी।

•••

"हां तो मैं छोटी थी, चिल्की जितनी छोटी नहीं, उससे थोड़ी सी बड़ी। घर में मैं थी, मेरे ढेर सारे बड़े भाई बहन थे, मां और बाऊजी थे। बाऊजी की मां भी थी, यानी मेरी दादी। बहुत बहुत बूढ़ी थीं वो, पता है कितने साल की?"
"कितने . . .?"
"नब्बे से ऊपर . . .।"
"नब्बे से ऊपर मतलब?"
"मतलब अबव नाइन्टी। बहुत ही गोरी चिट्टी, छोटी सी, नाटी सी, पर बड़ी सेहतमंद। . . . गोरी इतनी कि उंगली गाल पे रखो तो लाली दब के फैल जाए . . . पर थीं बिल्कुल सींक सलाई। चलती थीं तो ऐसे जैसे हवा में सूखा पत्ता उड़ता है। चलती क्या थीं, दौड़ती थीं जैसे पैरों में किसी ने स्प्रिंग फिट कर दिए हों . . ."
"ये तो आप मेरी बात कर रहे हो! . . .नहीं सुननी मुझे कहानी . . .।" चिल्की बिसूरने लगी।.
लो, मेरी तो याददाश्त ही कमजोर होती जा रही है। हां, साल भर की चिल्की ने भी जब चलना सीखा तो चलती नहीं, दौड़ती थी . . . हम उसे बताते थे कि चिल्की, तेरे पैरों में किसी ने स्प्रिंग फिट कर दिए हैं।

"हां, तो बुढ़ापे में आदमी बच्चों जैसी हरकतें करने लगता है। हम उन्हें कहते, दादी, सोटी . . .(लाठी) लेकर चलो नहीं तो गिर जाओगी पर वो कहां सुननेवाली। कुढ़कर कहतीं – सोटी लेकर चले तेरी सास, सोटी लेकर चले मेरे दुश्मन, मुझे सोटी की लोड़(ज़रूरत) नई . . . उन्हें सोटी लेकर चलने में शरम आती थी। छोटा सा कद था और पीठ झुकी हुई नहीं थी। सीधी चलती थीं। चलती क्या थीं, उड़ती थीं। किसी की बात नहीं सुनती थीं। फिर क्या होना था . . .
"हां . . .गिर गईं?" चिल्की की आंखों में कौतूहल था।
"हां, गिरना ही था न! बच्चे भी बात नहीं मानते तो चोट लगती है ना?
चिल्की ने सिर हिेलाया – "मैंने भी ममा की बात नहीं मानी थी तो ये देखो . . ."

चिल्की के जेहन में अब भी जख्म ताज़ा थे। उसने अपनी बायीं आंख बंद कर पलक पर उंगली गड़ा दी। आंख के ऊपर भौंह से लगे हुए छह टांकों के निशान उभर आए थे। उस दिन निखिल के ऑफिस से घर में नया फर्नीचर आया था। फर्नीचर, जो उसके ऑफिस के लिए पुराना हो चुका था और वहां के
कर्मचारियों को औने पौने भाव में बेचा जा रहा था। निखिल ने सोफा, दीवान और बीच की मेज़ खरीद ली थी। बर्मा टीक की बड़ी खूबसूरत मेज थी। चिल्की ने ज्यों ही नया सोफा देखा, लगी उस पर कूदने। नेहा चिल्लाती रही कि मेज के कोने नुकीले हैं, उन्हें गोल करवाना है, कूद मत नहीं तो लगेगा आंख पे। उसने तीन बार टोका और तीनों बार चिल्की और जोर से सोफे के डनलप पर कूदी। बस, पैर जरा सा मुड़ा और सीधे जा गिरी मेज़ के कोने पर। चिल्की की बायीं आंख लहूलुहान। कमरे में खून ही खून। नेहा ने देखा और लगी चीखने . . . कहा था न, सुनती तो है ही नहीं। उसको उठाकर दौड़े अस्पताल। सबकी जान सांसत में। चोट गहरी थी पर आंख बच गई थी। छह टांकें लगे। वह मेज़ उठाकर परछत्ती पर रखवा दिया। जब तक यह बड़ी नहीं हो जाती, यह मेज़ अब वहीं रहेगा, निखिल बड़बड़ाता रहा और नेहा उसे कोसती रही – अपने दफ्तर का यह कूड़ा कचरा उठाकर घर लाने की जरूरत क्या थी! जमीन पर गद्दा और गावतकिए थे तो सोफे के बगैर भी घर कितना खुला खुला लगता था। अब कमरे में चलना मुहाल हो गया है। कहीं कुछ सस्ता देखा नहीं कि उठाकर घर में डाल दों। घर न हुआ, स्टोररूम हो गया।

चिल्की तो उस दिन के बाद से कुछ संभलकर चलने लगी। फिर कभी उसे टांके नहीं लगे। पर दादी तो एकबार गिरीं तो फिर नहीं उठीं। कूल्हे की हड्डी चटक गई थी। डेढ़ महीने टांग पर वज़न बंधा रहा। हड्डी की तरेड़ तो ठीक हो गई पर जब तक हड्डी जुड़ती, टांगे बिस्तर पर पड़े पड़े सूख गई। अब टांगों ने उनका वज़न उठाने से इन्कार कर दिया था।
"फिर?"
"फिर क्या! बड़ी मुसीबत! हमेशा उड़ती फिरती दादी बिस्तर से जा लगीं। ऊपर से उनकी जिद कि अब तो वजन उतर गया है, अब बिस्तर पर उनको पॉट नहीं चाहिए। उनके लिए शहर से दो कुर्सियां मंगवाई गईं। एक पॉट वाली, एक पहिए वाली जिसपर बिठा कर उन्हें दिन में एक बार अमरूद और सीताफल के पेड़ के पास ले जाना पड़ता – किस अमरूद को थैली लगानी है, कौन सा सीताफल पक गया है, कौन सा अमरूद बंदर आधा खा गया है, सब की खोजखबर रखती थीं वो . . .कौन सी चाची कितने दिनों से हालचाल पूछने नहीं आयी . . . कौन आके बार बार उनसे उनकी उमर पूछता है . . .
"कितने साल की थीं वो?"
"उन्हें अपनी ठीक ठीक उम्र कहां मालूम थी . . . वो तो ऐसे बताती थीं, जनरल डायर ने गोलियां चलवाई थीं तो उन्होंने नाड़े वाली सलवार पहनना शुरू कर दिया था . . . गांधी जी का भाषण सुनके घर पहुंची तो तेरे दादाजी की नयी नौकरी लगने की चिठ्ठी आई थी . . . उनकी हर याद किसी न किसी बड़ी घटना से जुड़ी थी . . .कोई उनसे कहता कि झाई जी, आप तो नब्बे टाप गए हो तो उन्हें बड़ा बुरा लगता, कहतीं – "नहीं, अभी तीन महीने बाकी है। मैं नब्बे की हुई नहीं और मुझे सब नब्बे की बताते हैं। और हो भी गयी तो क्या, नब्बे से ऊपर आदमी जीना बंद कर देता है क्या? कोई उम्र पूछ लेता तो चिढ़ जातीं। एक बार तो एक रिश्तेदार से भिड़ गयीं। उन्होंने उम्र पूछी तो बहुत धीरे से उनसे बोलीं, "पहले तू बता, तू कितने साल का है।" उसे सुनाई नहीं दिया। उसने कहा, "क्या पूछा आपने?" तो कहती हैं, "अब तू मुझसे इतनी आहिस्ते पूछ। मैं तुझसे ज्यादा अच्छा सुन लेती हूं, मैं बिना चश्मा लगाए जपुजी साहिब का पाठ कर लेती हूं फिर तू सत्तर का हुआ तो क्या और मैं नब्बे की दहलीज़ पे पहुंची तो क्या। लोग जब खुद ऊंचा सुनने लगते हैं तो सारी दुनिया उन्हें बहरी दिखायी देती हैं।"

चिल्की ने खिलखिल हंसना शुरू किया, "आपकी दादी बहुत जोक मारती थीं, हैं न?"
"हां, बड़ी ज़न्दिादिल थीं वो। अपनी सेहत का बड़ा ख्याल रखती थीं! शाम की चाय के साथ कुछ नमकीन खातीं जैसे चिवड़ा या निमकी या आगरे का दालमोठ . . . दालमोठ उनको बहुत पसंद था तो क्या करतीं – हथेलियों पे जो चिकनाई लगी रह जाती, उसको सबकी नजरें बचाकर हाथों और पैरों में रगड़ लेतीं। एकबार हम बच्चों ने उन्हें ऐसा करते देख लिया। छिः छिः छिः छिः , हमने कहा, "दादी ये मिर्च मसाले वाला तेल रगड़ते हो, गंदा नहीं लगता? जलन नहीं होती? उन्होंने हम बच्चों को पास बिठाया, बोलीं, "अब कौन उठ के हाथ धोए। इस तरह एक पंथ दो काज होते हैं। "वो कैसे, झाई जी? हम पूछते तो कहतीं, "देखो, ये . . .ये जो हमारे हाथों पैरोंमें रोंएं हैं न, ये छोटे छोटे रोएं, ये हमारे शरीर के दीए हैं, दीपक हैं। जैसे दीओं को जलने के लिए तेल की जरूरत होती है न, वैसे ही इन्हें जलाए रखना है तो इनमें तेल डालना पड़ेगा। तभी तो ये गरम रहते हैं, खुश हो जाते हैं। देखो, ये चहक गए ना! जब ये दीए बुझ जाते हैं तो शरीर ठंडा हो जाता है और बंदा सफर पे निकल जाता है। सफर पे . . .यानी उनका मतलब था मर जाता है . . .हमने कहा, पर ये नमकीन तेल क्यों लगाते हो, नहाते समय तेल की मालिश किया करो तो कहती थीं, वो तो मैं तेरी मां से छुपाके करती हूं, कड़वे तेल की शीशी रख छोड़ी है गुसलखाने में। मां मना करती हैं क्या? हम पूछते, तो कहतीं – नहीं, मजाल उसकी कि मुझे मना करे पर तेरी मां ने देख लिया तो सोचेगी नहीं, बुढ्ढ़ी के पैर कबर में लटके हैं और शरीर के मल्हार हो रहे हैं . . . कहकर अपनी ही बात पर खिलखिलाकर हंसतीं।"

"ममा भी मुझे हर संडे को तेल की मालिश करके नहलाती थीं। ममा को तो मसाज वाली आंटी आके मसाज करती थीं। ममा तो पूरी नंगू हो जाती थी . . ." चिल्की फिर हंसने लगी।

मैंने लंबी सांस भरी। इस लड़की ने कैसी याददाश्त पाई है, नहीं तो बच्चे कहां इतना याद रखते हैं चार–पांच साल की उम्र होती ही क्या है। मां की कितनी कितनी तस्वीरें इसके जेहन में दर्ज़ हैं।

एकाएक चिल्की का चेहरा बुझ गया, "ममा अब कभी मिलने नहीं आएगी, दादी?" चिल्की का स्वर रूंआंसा हो गया। चिल्की को इतनी देर तक कहानी सुना सुनाकर फुसलाना बेकार गया था।
"आएगी क्यों नहीं! आएगी न!"
"कब? चिल्की की आंखों की नमी पर आंखें टिका पाना मुश्किल था – अब तो फोन भी नहीं करती, पहले कर लिया करती थी – दस पंद्रह दिन में एक बार। उस दिन निखिल ने ही डांट दिया – "क्यों फोन करती हो बार बार। उसे इस तरह परेशान करने से क्या फायदा! अगर बेटी के लिए तुम्हारे मन में जरा भी माया ममता बची रह गई हैं तो वह तुम्हें भूल सकें, इसमें हमारी मदद करो। सात समंदर पार से अपनी आवाज सुना सुनाकर उसे हलकान मत करो।" निखिल की आवाज़ में कड़वाहट थी और नेहा को कड़वाहट पसंद नहीं थी। उसने फोन पटक दिया और उसके बाद फिर कभी ब्लैंक कॉल तक नहीं आया। समय के साथ साथ रिश्ते धुंधलाने की कोशिश में थे।

"अच्छा, वो गिलास की बात तो रह ही गई, चिल्कू?"
"अरे हां," चिल्की मेरे झांसे में आकर वापस चहक उठी, "वो गिलास की कहानी तो आपने सुनाई ही नहीं . . ."
"वो गिलास तो दादी का था न बेटा, इसलिए तुझे पहले दादी की बात तो सुनानी थी न!"
"नहीं नहीं, अब आप गिलास की कहानी सुनाओ।"
"हां, तो दादी के पास एक गिलास था। कांसे का गिलास।"
"कांसा क्या होता है, दादी?"

मैंने आसपास नज़र दौड़ायी। कोने में एक फूलदान था – कांसे का। "देख, ऐसा होता है कांसा। इसके गिलास भी बनते हैं।"
"वो गिर जाए तो टूटता नहीं?" चिल्की की आंखों में लुभा लेने वाली मासूमियत थी।
"कांसा बहुत नाजुक होता है। उसे फूल भी कहते हैं। ज़ोर से गिरे तो टूट भी जाता है पर दादी का गिलास बड़ा मज़बूत था। खास तरह की बनावट थी उसकी गिरे तो भी टूटता नहीं था।

"रिश्तों को इस तरह मत तोड़ो नेहा! केरियर बनाने के बहुत सारे मौके आएंगे। निखिल नहीं चाहता तो मत जाओ।" साम–दाम–दंड–भेद हर तरह से उसे समझाने की कोशिश की थी मैंने। "कम से कम चिल्की के बारे में सोचो, वह मां के बगैर रह पाएगी?"
"क्यों, बाप के बगैर नहीं रहती क्या जब निखिल शिप पर चले जाते हैं – छः छः महीने नहीं लौटते," नेहा भड़क गई थी, "इस तरह के मौके बार बार नहीं आते लेकिन आप लोग हैं कि मेरा साथ देना ही नहीं चाहते! बीसेक दिन बेहद तनाव में गुज़रे . . . बाद में निखिल ने हमें बीच में बोलने से टोक दिया। पता चला, कैरियर और जॉब का तो बहाना था, इसकी तह में नेहा और निखिल की आपसी अनबन थी। जिस दिन नेहा को जाना था, वह चिल्की से मिलने आई थी। एक बार उसे भीगी आंखों से प्यार किया, फिर चिल्की को गोद से उतारकर ऐसे एहतियात से रखा जैसे कोई 'हैन्डल विद केअर' सामान ज़मीन पर रखता है। बच्चों की छठी इंद्रिय बहुत तेज़ होती है। गोद से उतरते ही चिल्की ने सिसकियां ले लेकर रोना शुरू कर दिया था और नेहा ने उसे दुबारा भींच लिया था। मां के आलिंगन की गर्माहट से चिल्की पिघल गई थी। कभी गलती से भी नेहा के नाम के साथ निखिल कोई विशेषण जड़ देता तो चिल्की फौरन टोक देती, "मेरी मम्मा को ऐसे मत बोलो। मम्मा अच्छी है।" 'अच्छी' को वह जोर देकर बोलती।

पृष्ठ : 1 . 2 . 3

आगे—

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।