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पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


बड़ी–बड़ी ऑयल कम्पनियाँ हैं लेकिन वे रिक्रियूटमेंट कम्पनियों के माध्यम से ही नियुक्ति करती है...बाकी दलालों के माध्यम से जाने वाले लोगों का हाल तो तुम अखबारों में पढ़ते ही होंगे...? अभी तो न्यूज पर दिखाया गया था कि कैसे बाहर सौ आदमी जहाज से साउदी अरब पहुँचे और वहाँ से उन्हें बैरंग भूखे–प्यासे वापस लोटना पड़ा था। बात वही कि चौबे जी गए छब्बे बनने और दूबे बनकर लौट आए..."

"अच्छा तो किसी स्कूल में ही कोशिश कीजिए...यहाँ बड़ा संकट है...अब आपको क्या बताएँ...? चार–चार लड़कियाँ हैं...नौकरी में क्या बचता है आप देख ही रहे हैं...? महँगाई का यह आलम कि इज्ज़त के साथ बच्चे पल जाएँ वही बहुत है...फिर कहाँ से इतना दहेज जुटेगा...?" अखिलेश ने अपनी मज़बूरी बताते हुए कहा।

"लेकिन बीवी–बच्चे, यहाँ छोड़कर कैसे जाओगे तुम...? फेमिली स्टेटस तो अभी मिलने से रहा। अपनी बीबी से भी बात की कि अकेले ही निर्णय लिया है...? ज़रा पूछो तो, संजना तुम्हें छोड़ने को तैयार है...? और फिर यहाँ तुम्हारी नौकरी का क्या होगा...? कुछ सोचा है...?"
"वह सब व्यवस्था हो जाएगी...आप यहाँ की चिन्ता न करें...परमानेन्ट नौकरी है मेरी, पाँच साल तक तो छुट्टी ही मिल जाएगी।"

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उस दिन सुबह–सुबह मिस्टर डिसूजा का फोन आ गया। मिस्टर डिसूजा पहले हमारे विद्यालय में वाइस प्रिन्सिपल थे। रिटायरमेन्ट के बाद उन्होंने एक दूसरे विद्यालय में ज्वाइन कर लिया था। यहाँ अगर स्कूल का मैनेजमेन्ट आपके पक्ष में हो तो उम्र आड़े नहीं आती, और आपको वीसा मिल जाता है...उस उभरते विद्यालय को लाइम लाइट में आने के लिए मिस्टर डिसूजा के नाम और अनुभव के बैसाखी की ज़रूरत थी और मिस्टर डिसूजा को यहाँ रहने के लिए वीसा की जरूरत, क्योंकि बिना नौकरी के वे यहाँ रुक नहीं सकते थे...उनके सभी बच्चे अब यही सैटल हो चुके हैं, इंडिया जाकर भी वे क्या करते .. . .? दोनों को एक दूसरे की जरूरत थी, अतः माँग और पूर्ति का नियम लागू हो गया...।

दुसरे दिन मैं डिसूजा के ऑफिस पहुँचा तो वहाँ मिस्टर चतुर्वेदी बैठे हुए थे। मिस्टर चतुर्वेदी हमारे यहाँ हिन्दी पढ़ाते हैं। उन्हें शायद हिन्दी की किसी प्रतियोगिता के लिए बुलाया गया था। कुछ देर यों ही इधर–उधर की वार्ता होती रही। वार्ता के बीच ही व्यवस्थापक महोदय ने बताया कि उन्हें अपने विश्वविद्यालय के लिए एक अच्छे हिन्दी अध्यापक की आवश्यकता है और साथ ही यह इच्छा व्यक्त की कि वे हिन्दी अध्यापक उत्तर भारत से ही चाहते हैं। अतः यदि आप लोगों की नज़र में कोई कैन्डीडेट हो तो रिकमेंड करें...' अपने विद्यालय में उन्होंने अबतक अधिकतर दक्षिण भारतीय महिला अध्यापिकाओं की ही नियुक्ति की थी, यह पहला मौका था कि उन्होंने उत्तर भारत से किसी अध्यापक की नियुक्ति के विषय में सोचा था। क्या पता मन में रहा हो कि हिन्दी के लिए हिन्दी हार्ट लैण्ड का अध्यापक ही ज्यादा अच्छा रहेगा। मैंने चतुर्वेदी से पहले ही अखिलेश के विषय में बता रखा था कि कहीं हिन्दी अध्यापक की जगह हो तो हमें बताना। मुझे लगा बिल्ली के भाग्य से ही छींका फूटा है...चतुर्वेदी को मेरी बात याद थी। उसने कहा, "देखिए उत्तर भारत से कोई महिला अकेले यहाँ आने को तैयार नहीं होगी, हाँ अगर पुरुष चाहिए तो एक व्यक्ति मेरी नज़र में हैं।"

"कोई बात नहीं हम पुरुष अध्यापक भी नियुक्त कर सकते हैं।" आप उसका आवेदन–पत्र और साथ ही उसके पासपोर्ट की फोटो कॉपी और दो फोटोग्राफ हमारे पास भेजवा दें, जिससे आगे की फार्मेलिटी पूरी की जा सके।" व्यवस्थापक महोदय बोले। मैंने एक आवेदन–पत्र तैयार किया और आगे की कार्यवाही हेतु उसे डिसूजा के पास भिजवा दिया। अखिलेश को सारी बातों की सूचना मैंने फोन पर दे दी और यह भी बता दिया कि संभव है तुम्हें साक्षात्कार के लिए बुलाया जाए अतः थोड़ी बहुत तैयारी कर लो...

आवेदन–पत्र देने के बाद हम प्रतीक्षा करते रहे कि डिसूजा की तरफ से कोई सूचना मिलेगी। लेकिन जब एक महीना निकल गया और विद्यालय ग्रीष्मावकाश के लिए बन्द होने वाला था तो एक दिन मैंने स्वयं ही डिसूज़ा को फोन किया। डिसूज़ा से पता चला कि अखिलेश के वीसा के लिए पेपर जमा किया गया है...थोड़ी औपचारिकताएँ हैं जिन्हें पूरा होना है...उसके बाद ही सूचना दी जाएगी...

उस वर्ष ग्रीष्मावकाश में हम इण्डिया जा रहे थे। अतः मैंने उन्हें अपने घर का टेलीफोन नम्बर दे दिया कि अखिलेश के लिए सूचना मुझे इस नम्बर पर दे दी जाए...उसके बाद हम ग्रीष्मावकाश पर चले गए।

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अखिलेश के साक्षात्कार की सूचना मुझे लखनऊ में डिसूजा के द्वारा फोन पर मिली। वे बम्बई आ रहे थे और वहीं अखिलेश को बुलाया था। अखिलेश को भी इन्टरव्यू लेटर भेजा गया था। अखिलेश को जब पता चला तो वह बहुत ही इक्साइटेड हो रहा था। उसे क्या मुझे भी उम्मीद नहीं थी कि उसको इतनी जल्दी मौका मिल जाएगा। निश्चित दिन बम्बई के लिए रवाना होने से पूर्व अखिलेश मुझसे मिलने लखनऊ आया। उसकी इच्छा थी कि मैं भी उसके साथ बम्बई चलूँ। लेकिन वह संभव न हो पाया। स्टेशन पर विदा देते समय मैंने अखिलेश को 'बेस्ट ऑफ लक' कहते हुए कहा कि नर्वस होने की जरूरत नहीं हैं। मिस्टर डिसूजा बहुत अच्छे आदमी हैं और वे हिन्दी भी अच्छी तरह समझते हैं। वैसे अखिलेश ने इन्टरव्यू की तैयारी पूरी कर रखी थी फिर भी इन्टरव्यू के नाम पर थोड़ी दहशत तो होती ही है...वह हाथ आए मौके को किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहता था...

बम्बई से लौटकर अखिलेश सीधा मुझसे मिलने आया। अखिलेश ने बताया कि उसका कोई इन्टरव्यू नहीं लिया गया। बस कुछ औपचारिक बातें हुई। हाँ दो तीन पेपरों पर उससे हस्ताक्षर कराए गए थे। "कैसा पेपर था वह...? उसमें क्या लिखा था...? तुमने पढ़ा या बिना पढ़े ही हस्ताक्षर कर दिए...?" मैंने उससे पूछा। वह शायद मुझसे इस प्रश्न की अपेक्षा नहीं कर रहा था। एकदम से बौखला गया, बोला, "पेपर मैंने पढ़े तो थे, लेकिन विशेष कुछ समझ में नहीं आया। मैंने डिसूजा साहब से पूछा था कि यह क्या है...? तो यही बताया कि बस फॉर्मेलिटी है और कोई विशेष बात नहीं हैं...मैंने उनसे एक फोटो कॉपी भी माँगी थी तो यह कह कर टाल गए कि अबूधाबी पहुँचकर मैनेजर के हस्ताक्षर होने के बाद मुझे दे दिया जाएगा। मैंने उनसे यह भी पूछा कि नियुक्ति पत्र कब तक भेजा जाएगा? तो यही बताया कि कुछ औपचारिकताएँ हैं जिनके पूरा होते ही टिकट और वीसा की फोटो कॉपी भेज दी जाएगी। चलते समय इतना जरूर पूछा कि ज्वाइन करने के लिए आपको कितना समय चाहिए...? मैं तो खुशी से पागल ही हो रहा था...सोचा जितनी जल्दी विदेश पहुँच जाएँ अच्छा है। अतः उनसे कह दिया कि चार दिन की नोटिस पर मैं ज्वाइन कर सकता हूँ...।

मेरी छुट्टियाँ समाप्त होने को थी अतः मैं दिल्ली आ गया। दो–चार दिन वहाँ रुककर मैं वापस अबूधाबी आ गया। इस बीच अखिलेश से न तो मेरी मुलाकात हुई और न ही फोन पर कुछ बात हो पाई। यहाँ आकर डिसूजा से पता चला कि अखिलेश के लिए पी.टी.ए. भेजा जा चुका है जिसकी सूचना अखिलेश को तार द्वारा दे दी गई है। डिसूजा ने मुझसे कहा कि अगर अखिलेश फोन पर बात हो सके तो उससे जल्दी आने के लिए कहें क्योंकि नया सत्र शुरू हो गया है।

मैंने उसी रात अखिलेश को फोन मिलाया। उसे उसी दिन तार मिला था। दूसरे ही दिन वह दिल्ली पहुँच गया। संयोग से उसे दूसरे ही दिन का आरक्षण भी प्राप्त हो गया जिसकी सूचना गल्फ एअर के ऑफिस से मिल गई। अखिलेश को रिसीव करने के लिए डिसूज़ा के साथ मैं भी एअर पोर्ट गया। फ्लाइट समय पर थी। अखिलेश को मैंने इमीग्रेशनकी लाइन में खड़ा देखा। वह इधर–उधर बेचैनी से देख रहा था मुझे देखते ही उसके चेहरे पर चमक आ गई। प्रसन्नता के अतिरेक में उसका चेहरा खिल उठा था। एअरपोर्ट से बाहर आते ही मैंने उसे बधाई देते हुए कहा, "वेलकम टू अबूधाबी, एट लास्ट तुम्हारा विदेश निकलने का सपना तो पूरा हुआ..."

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अखिलेश को यहाँ आए तीन दिन हो गए। उस दिन के बाद उससे मेरी मुलाकात नहीं हो पाई और न ही इस बीच अखिलेश का कोई फोन आया। मैंने सोचा शायद नई जगह की चमक–दमक में भूल गया होगा। एक दिन मैंने ही अखिलेश की खोज खबर लेने के लिए डिसूज़ा को फोन किया तो पता चला अखिलेश क्लास में हैं। मेरे यह पूछने पर कि अखिलेश के बारे में आपकी क्या राय है...?
उन्होंने कहा, "अभी से कुछ कहना जल्दबाजी होगी लेकिन वह मेहनती है... और नई चीजों को सीखने का शौक है उसे।..."
मैंने अखिलेश के लिए मेसेज छोड़ दिया कि जब फुरसत मिले मुझे फोन कर ले...दो दिन और इंतज़ार में निकल गए...वीकेण्ड आ गया...पर अखिलेश का फोन न आया तो मुझे कुछ चिंता हुई .. ...अखिलेश का स्कूल मेरे स्कूल के पास ही था। मेरा विद्यालय शिफ्टों में चलता है। सुबह लड़कियों के लिए...और दोपहर बाद लड़कों के लिए। मैं लड़कों के शिफ्ट में काम करता हूँ। उस दिन अखिलेश से मुलाकात का इरादा बनाकर मैं घर से जल्दी निकल पड़ा। सोचा पहले अखिलेश के स्कूल चला जाऊँगा फिर उससे मुलाकात करके अपने विद्यालय समय से पहुँच जाऊँगा। जब मैं वहाँ पहुँचा तो मि. डिसूजा अपने चेम्बर में नहीं थे। मैं वेटिंग लाउंज में उनका इंतज़ार करने लगा। थोड़ी देर में डिसूज़ा साहब आते दिखाई दिए।

"हलो सर, हाउ आर यू...?" मैंने आगे बढ़कर हाथ मिलाते हुए पूछा।
"ओह...फाइन...थैंक्यू।"
"क्या मैं अखिलेश से मिल सकता हूँ सर..." कुछ औपचारिक बातों के बाद मैं सीधा मतलब पर आ गया।
"देखियो मिस्टर..., दरअसल हम स्कूल के समय में अपने अध्यापकों को किसी से मिलने की अनुमति नहीं देते।..."
मेरी समझ में न आ रहा था कि अब मैं क्या करूँ...?
"आप चिंता न करें हम उसकी देखभाल कर रहे हैं।..." डिसूज़ा पुनः बोले।
"ठीक है सर...कृपया उसे मुझे स्कूल के बाद मिलने को कहें। मैं बैडमिंटन खेलने के लिये रुकूँगा।, ..." कहकर मैं वापस अपने विद्यालय आ गया। दिनभर मिस्टर डिसूज़ा की बात मेरे मस्तिष्क में कौंधती रही।

पाँचवें घण्टे के बाद हमारे यहाँ भोजन का अंतराल होता है । मैंने अपने कुछ साथियों से इस नए विद्यालय की चर्चा की अजीब नियम है स्कूल का..., स्कूल आवर में कोई टीचर्स से मिल ही नहीं सकता। हरिपाल बोला, "डिसूज़ा के स्कूल के बारे में आपको पता नहीं हैं क्या...? भूलकर भी किसी को उस स्कूल के लिए रिकमेंड मत करिएगा। हाँ अगर किसी से दुश्मनी निकालनी हो तो बात अलग है...अब मैं उसे क्या बताता कि भूल तो हो चुकी है। फिर भी मैंने उत्सुकतावश पूछा, "क्यों...? ऐसा क्या विशेष है उस स्कूल में...?"

"लगता है आपको कुछ पता ही नहीं...वह स्कूल नहीं तिहाड़ जेल है...सुबह साढ़े छः से रात आठ बजे तक वहाँ टीचरों की घिसाई होती है। विशेष रूप से उन टीचरों की जो स्कूल वीसा पर इण्डिया से लाए जाते हैं। स्कूल की ओनर केरल के किसी स्थान की कोई महिला है, और वही से अपने गरीब संबंधी या रिश्तदारों की कुंआरी लड़कियों को ले आती है। एक तीन बेड रूम का फ्लेट ले रखा है उसी में सबको रखती है। एक कमरे में पाँच–छः लड़कियाँ रहती हैं। सुबह स्कूल आने के बाद उनका स्कूल गेट से बाहर निकलना बंद हो जाता है। यहाँ तक कि उनके पत्र और टेलीफोन भी सेंसर होते हैं।"
"लेकिन तुमको कैसे पता चला...?"
"मेरे गाँव की एक लड़की को ये लोग ले आए थे, वहाँ उसके माँ–बाप को इन लोगों ने बड़े सब्ज बाग दिखाए...माँ–बाप ने पैसे के मोह में लड़की को इनके साथ भेज दिया। यहाँ आने के दो महीने तक जब कोई सूचना उस लड़की के माँ बाप तक न पहुँची तो वे लोग परेशान हो गए। किसी तरह मेरा पता लगाकर उन लोगों ने मेरे पास टेलीफोन किया और अपनी समस्या बताई। मैंने डिसूज़ा को फोन करके उस लड़की के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि लड़की ठीक–ठाक है, परेशानी की कोई बात नहीं हैं...जब मैंने बताया कि घर वालों के पास अभी तक उसका कोई पत्र नहीं पहुँचा है और वे लोग उसका समाचार जानने के लिए बहुत चिन्तित हैं। उन्होंने मेरे पास फोन किया था...मैं चाहता हूँ कि यदि उस लड़की से मुलाकात हो जाए तो फोन द्वारा उसके माँ–बाप को उसकी कुशलता का समाचार दे दूँ।"
इस पर डिसूज़ा ने असमर्थतता व्यक्त करते हुए कहा, "नो...हरिपाल देखों हम जवान लड़कियों को किसी से मिलने जुलने की इजाजत नहीं देते हैं।..."

बाद में मैं एक दिन डिसूज़ा के घर भी गया तो वे समझाने लगे कि इस देश में लड़कियों के मामले में बड़ी सावधानी बरतनी पड़ती हैं। इसीलिए हम उन्हें अकेले कहीं जाने नहीं देते और टेलीफोन आदि करने की भी इज़ाज़त नहीं देते...केवल 'वीक डेज' में स्कूल की बस उन्हें बाज़ार ले जाती है। जहाँ वे अपनी जरूरत का सामान आदि खरीद लेती हैं। मैंने कितनी ही कोशिश की पर उस लड़की से मुलाकात न हो पाई। तब मैंने उस लड़की के माँ–बाप को सारी स्थिति स्पष्ट कर दी...बेचारे रोने लगे बोले किसी भी तरह उसे वापस भिजवा दो नहीं तो मेरी बेटी रो–रो कर मर जाएगी वहाँ...बड़ी मुश्किल से उन लोगों ने लड़की की शादी तय होने का बहाना बनाकर उस लड़की को वापस बुलवाया।

"लेकिन दिनभर करवाते क्या है टीचर्स से...?" मैंने पूछा।
"बेबी सिटिंग, और क्या...?" आप तो जानते ही हैं कि यहाँ अधिकतर दोनों पेरेन्ट्स काम करते हैं। किसी के पास समय रहता नहीं कि देख सकें कि बच्चा क्या कर रहा है...? बच्चे वही स्कूल में बैठकर पहले होमवर्क करते हैं...फिर वीक ब्वाएज की कोचिंग चलती है।. इन सबके नाम पर पेरेन्ट्स से अच्छी–खासी रकम ऐंठी जाती है...दिनभर बच्चा स्कूल में रहता है तो पेरेन्ट्स के आराम में खलल नहीं पड़ता और न ही होमवर्क आदि कराने का झंझट ही रहता है। पेरेन्ट्स तो बड़े खुश हैं उस स्कूल से..., किसी भी पेरेन्ट्स से बात करके देख लीजिए, वह इस स्कूल का गुणगान ही करेगा..."

घण्टी बज गई और सभी अपनी–अपनी कक्षा में चले गए। मेरा अगला पीरिएड खाली था, काफी देर तक स्टाफ रूम में बैठा मैं उस विद्यालय के अध्यापकों, अभिभावकों और छात्रों के विषय में सोचता रहा। इस देश में जहाँ इतने सख्त नियम कानून हैं वहाँ इस तरह के स्कूल कैसे चल रहे हैं...?

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शाम सात बजे अखिलेश मेरे पास ऑडिटोरियम में आया। एअरपोर्ट पर जो चमक मैंने उसके चेहरे पर देखी थी उसके स्थान पर उसका चेहरा काफी बुझा–बुझा सा और थका–थका सा लगा। औपचारिकतावश ही मैंने पूछा, "कैसा चल रहा है...?"
"ठीक है..." उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
यहाँ आकर तो तुम हम सबको भूल ही गए...?
"अरे नाहीं...अइसन बात नाहीं है..." वह अपनी भाषा पर उतर आया था।
तुम्हारी दीदी को बड़ी चिन्ता हो रही थी तुम्हारी। आज साथ ही घर चलो...कल छुट्टी है...शाम तक वापस आ जाना।"

वापस फिर उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही मैंने फोन करके पत्नी को अखिलेश के आने की सूचना दे दी। उसके बाद मैंने उसको अपना स्कूल कैम्पस दिखाया। ऑडिटोरियम में तो हम खेल ही रहे थे, स्वीमिंग पूल, टेनिस कोर्ट, ब्वाएज ब्लॉक, आदि देखकर अखिलेश दंग रह गया, ऐसा विद्यालय तो अपने यहाँ भी जल्दी देखने को नहीं मिलता शायद वह अपने स्कूल से तुलना कर रहा था..."
घर पहुँचकर स्नान आदि के बाद हम सबने साथ ही खाना खाया। बच्चे भी अखिलेश से मिलकर बहुत खुश थे। "आज हफ्ते भर बाद घर का भोजन मिला है।" अखिलेश बोला।

"वीकेण्ड में हमेशा आ जाया करो...अब तो घर भी देख लिया है। यहाँ कोई दिक्कत नहीं हैं।" पत्नी बोली। खाने के बाद मैं ड्राइंग रूम में बैठा टी.वी. देखने लगा। बच्चे भी साथ ही बैठे थे...अखिलेश डाइनिंग टेबल पर पत्नी के पास ही बैठा बातें कर रहा था। बाद में पत्नी से ही सारी स्थिति का पता मुझे चला...

स्कूल के पास ही किसी विला के आउट हाउस में अखिलेश के रहने की व्यवस्था की गई थी। कमरे में दो और लोग रहते थे, जिनमें एक अंग्रेजी का अध्यापक था और दूसरा स्कूल का पी.टी.आई.। सुबह साढ़े छः बजे से रात के साढ़े आठ बजे तक स्कूल का कार्यक्रम चलता है।. बीच में एक घंटे का लंच ब्रेक होता है। खाना सबका होटल से आता है जिसका पैसा देना पड़ेगा। कमरे में चाय बनाने की व्यवस्था है। सुबह चाय पीकर ही वे सब स्कूल में जाते हैं। इण्डिया में तो मस्ती थी क्लास में गए या न गए कोई पूछने वाला न था। पर यहाँ हर समय चौकसी रखनी होती है। प्रिंसिपल तथा हेड मिस्ट्रेस राउण्ड लेते रहते हैं। यहीं नहीं सुपरवाइज़र तो सिर पर ही सवार रहता है...

सुबह चाय के समय अखिलेश से मेरी बात हुई...
"काम कैसा चल रहा है स्कूल में...?" मैंने उससे पूछा।
"बड़ी मेहनत है यहाँ...पढ़ाने से ज्यादा काम तो लिखने का रहता है। कलम घिसते–घिसते हाथ की नसें खिंच जाती हैं। पहले रफ टीचिंग प्लान तैयार करके सुपरवाइज़र को दिखाना पड़ता है। सुपरवाइज़र उसे देखकर अप्रूव करता है। फिर फेयर कॉपी में लिखना पड़ता है। क्लास में रोज स्लिप टेस्ट लो...फिर कक्षा कार्य...गृह कार्य...आदि न जाने क्या–क्या, वैसे सप्ताह में तीस पीरिएड ही लेने होते हैं। लेकिन रोज ही डेढ़ सौ छात्रों का गृहकार्य, स्लिप टेस्ट, क्लास वर्क आदि की कॉपी देखनी पड़ती है स्कूल छोड़ने से पहले सारी कापियाँ सुपरवाइज़र की मेज़ पर होनी चाहिए...

लंच ब्रेक के बाद दो से चार बजे तक लड़कों के गृहकार्य का टाइम–टेबुल चलता है।. लड़के क्लास में बैठकर अपना गृहकार्य करते हैं और टीचर्स सुपरवाइज़ करते हैं। फिर, चार से साढ़े पाँच बजे तक कोचिंग चलती है। उसके बाद कापी चेक करने का कार्यक्रम चलता है। काम समाप्त करते करते साढ़े सात–आठ बज जाते हैं। कभी कभी आठ बजे के बाद स्टाफ मीटिंग हो गई तो समझो डेढ़ घण्टे और गए...रात का खाना कमरे पर खुद ही बनाते हैं...बनाते–खाते रात के ग्यारह बज जाते हैं। बिस्तर पर पहुँचते–पहुँचते थक कर चूर हो जाते हैं। तुरन्त नींद आ गई तो ठीक नहीं तो अगर घर के बारे में सोचने लगे तो नींद भी हराम हो जाती है।"

"अभी काम करने की आदत नहीं है न...वहाँ तो मस्ती करते थे। कुछ दिन काम करोगे तो धीरे–धीरे सब ठीक हो जाएगा..., पैसों की भी कुछ बात डिसूज़ा से हुई है या नहीं... पेमेन्ट कितना करेंगे?"
"अभी कोई बात नहीं हुई है। पर यहीं से जिन महिलाओं की नियुक्ति की जाती है उनको सत्रह सौ देते हैं...इतना तो देंगे ही..."
"मतलब सत्रह हज़ार भारतीय रुपए...जिसमें चार सौ भी खर्च हुए तो...महीने में तेरह हजार की बचत...पाँच हज़ार इण्डिया घर खर्च के लिए भेज दें, फिर भी आठ हजार महीने की बचत हो सकती है। अब बिना मेहनत के तो कुछ नहीं मिलता।" मैंने उसे रुपये का गणित समझाकर कुछ दिलासा देने की कोशिश की। इसी गणित में ही तो हम सब फँसे हुए हैं अन्यथा और क्या रखा है यहाँ...?
दिनभर बच्चों के साथ ही अखिलेश लगा रहा।

हम सभी शाम को शहर में घूमने निकले। यहाँ का बाज़ार देखकर अखिलेश की आँखें चौंधिया गई। सोने की दुकानों पर शो केस में लगे भारी–भरकम आभूषणों को देखकर उसने पूछा, "असली ही है न...?"
"और नहीं तो क्या नकली समझ रखा है...?" मैंने उसके प्रश्न का उत्तर प्रश्न में ही देते हुए कहा।

इलेक्ट्रानिक दुकानों में भी आधुनिकतम वस्तुएँ देखकर वह मुग्ध होता रहा। बाद में हम लोगों ने एक होटल में भोजन किया। होटल का बिल पैसठ दिरहम का आया था। बिल देखते ही वह बोला, "साढ़े छः सौ भारतीय रुपए...?" अब कैसे कन्वर्ट करके हमेशा देखोगे तो न तो कुछ खा सकोगे और न ही सो सकोगे...यहाँ दिरहम में कमाते हो तो उसी में हिसाब रखो...इंडिया के किसी अच्छे होटल में पाँच लोग क्या पैसठ रुपए में खा सकते हैं...? इण्डिया वाला गणित यहाँ मत लगाओ...? भोजन के बाद हम लोग टहलते–टहलते सिटी बस स्टैण्ड तक आ गए। अखिलेश को वापस अपने कमरे पर जाना था। उसने चलने की इज़ाजत माँगी तो पत्नी ने याद दिलाया, "दीवाली अगले वीकेण्ड पर पड़ रही है, कोशिश करके थोड़ा जल्दी आ जाना...लक्ष्मी पूजा साथ ही करेंगे..."
"
ठीक है तो फिर मैं चलता हूँ..." उसकी बस तैयार थी वह उसमें जा बैठा। थोड़ी देर बाद हम लोग भी अपने घर आ गए।
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यहाँ हिन्दू त्यौहारों पर वह चहल–पहल नहीं होती जो अपने देश में होती है। फिर भी अपने–अपने घरों में लोग अपने ढंग से त्यौहार मना लेते हैं। हमारे विद्यालय में दीपावली के दिन नव वर्ष के नाम पर छुट्टी दे दी जाती है। बच्चों में त्यौहारों के प्रति बड़ा उत्साह रहता है। इस दिन वे इण्डिया बहुत मिस करते हैं। वे चाहते हैं कि इस दिन घर में कुछ हंगामा हो। भीड़–भड़क्का, धमा–चौकड़ी रहे। मैंने उस दिन अपने कुछ मित्रों को आमंत्रित कर रखा था। इसी बहाने कुछ गपशप रहती है। चतुर्वेदी भी उस दिन आमंत्रित था। अखिलेश के बारे में उसे पता चला तो बोला, "यार थोड़ी जल्दबाजी हो गई...पता नहीं था, अन्यथा ऐसे स्कूल के लिए अपना आदमी कभी भी रिकमेंड न करते..."

"
हम लोगों ने तो कुछ भला सोचकर ही काम किया था...अब उसके लिए क्या पछताना...?"

"फिर भी मुझे लगता है कि कहीं न कहीं हम उसकी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं .. . ." चतुर्वेदी बोला।

पूजा का समय हो रहा था और...अखिलेश का कुछ पता न था...मैंने पत्नी से कहा, "तुम पूजा की तैयारी शुरू करो...पूजा कर लेते हैं....अखिलेश आएगा तो पूजा कर लेगा..."
पूजा के उपरान्त लोगों ने मिठाई खाई...बच्चों ने खिलौने वाली पिस्टल से फायर करके पटाखों का आनन्द उठाया...धीरे–धीरे समय बीत रहा था...मुझे बार–बार अखिलेश का ख्याल आ रहा था...पहली बार दीवाली पर वह घर–परिवार से दूर था। चतुर्वेदी भी उत्सुक था कि कम से कम अखिलेश से एक मुलाकात ही हो जाती। देर होती देख उसका पारा चढ़ता जा रहा था। जब सब्र का बाँध ढह गया तो वह बोला, "जब पता है कि आज त्यौहार का दिन है तो थोड़ा जल्दी छोड़ देते...लाओ डिसूजा को फोन करते हैं...टीचर्स से काम लेने का ये कोई तरीका है क्या...? साला...बारह–चौदह घंटे काम तो मज़दूर भी नहीं करता...जानवर समझ रखा है क्या...? सुबह से रात तक जोत रखा है काम में...अरे भाई, जीता जागता इंसान दिया है तो उससे इंसानों की तरह व्यवहार करो...ये भी कोई तरीका है कि त्यौहार के दिन भी उसकी ऐसी–तैसी
करके रख दो...,अभी इनका त्यौहार हो तो देखो...?

डिसूजा को फोन मिलाया गया...देर तक घंटी बजती रही...फोन न उठा तो मन–मार कर रह गए...खाने का समय हो रहा था अतः टेबल पर खाना लगाया जाने लगा...

खाना शुरू होने से पूर्व ही अखिलेश अपने साथी पी.टी.आई. आनन्दन के साथ आ गया। आनन्दन का हम सबसे परिचय कराने के बाद अखिलेश पूजा करने चला गया। आनन्दन ने बताया हम लोग स्कूल से निकलने ही वाले थे कि हेडमिस्ट्रेस आ गई, फिर लगभग दो घंटे तक स्टाफ मीटिंग चली। मीटिंग के बाद ही हम निकल पाए इसीलिए थोड़ी देर हो गई। पूजा समाप्ति के बाद आनन्दन और अखिलेश ने पहले दीवाली की मिठाई खाई फिर सबने साथ ही भोजन किया। अखिलेश पर चतुर्वेदी को बड़ी दया आ रही थी, बोला, "आप साफ–साफ बताइए...अगर मन न लग रहा हो...या फिर कोई परेशानी लग रही हो, तो कल ही बात करता हूँ डिसूजा से...अपना पासपोर्ट लीजिए और वापस हो लीजिए, किसी का कर्जा नहीं ले रखा है...समझ लीजिएगा इतने दिन विदेश भ्रमण किया। आपकी वहाँ की नौकरी तो है न, फिर काहे की चिन्ता...?"

"अब इतनी दूर आए हैं तो कुछ दिन देख लेते हैं...बाद में अगर नहीं सपरा तो देखा जाएगा .. . ." अखिलेश ने जवाब दिया। मैं समझ रहा था पैसों का गणित काम कर रहा था...साल भर भी अगर काम कर लिया तो अस्सी नब्बे हज़ार जोड़ सकेगा...जिसमें बहुत सारे काम निबटाए जा सकते हैं। बहन की शादी में रेहन रखे खेत छुड़ाए जा सकते हैं..., गाँव का मकान ठीक कराया जा सकता है..., बूढ़े बाप का ऑपरेशन हो सकता है..., भतीजे के नौकरी की व्यवस्था हो सकती है..., लड़के को अच्छी शिक्षा..., बेटियों की शादी...आदि न जाने कितने ही काम उसे याद आए होंगे जो पैसों के अभाव में रुके पड़े हैं।
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अखिलेश वीकेण्ड में आ नहीं पाता था। अक्सर वह दिन भर कमरे की सफाई, कपड़े धोने आदि के काम में ही निकल जाता। उसी दिन वह मटन बनाकर फ्रीजर में रख लेता तो दो–तीन दिन खाने की व्यवस्था हो जाती थी। यहाँ तो लोग महीने भर का भोजन बनाकर रख लेते हैं। बाद में आवश्यकतानुसार थोड़ा–थोड़ा निकालकर माइक्रोवेव में गर्म करके खाते हैं। लेकिन हम लोगों को उसकी आदत नहीं हैं। तीन दिन बासी भोजन का नाम सुनकर ही उबकाई आने लगती है। अतः
अखिलेश कभी तीन दिन से अधिक का भोजन न रख पाता, वैसे साथ के टीचर्स पूरे सप्ताह का काम चला लेते थे। कपड़े वाशिंग मशीन में ही धुलते थे पर प्रेस कराने के लिए वह उन्हें सफीक भाई की लान्ड्री पर ले जाता। लान्ड्री पास ही थी। सफीक भाई आजमगढ़ के रहने वाले थे अतः उसकी शाम अच्छी बीत जाती थी।

जिस दिन पहली तनख्वाह मिली, अखिलेश रात के नौ बजे के लगभग घर आया। बच्चों के लिए चॉकलेट का डिब्बा लिए जब वह आया तो बड़ा खुश दिख रहा था। मैंने अनुमान लगा लिया कि तनख्वाह मिली होगी।
"आज तनख्वाह मिली है क्या...?" मैंने उससे पूछा।
"हाँ आज ही दी है..."
"कितना दिया...?"
"पैसा तो अच्छा दिया है...सत्रह सौ तनख्वाह और पाँच सौ ईनाम...तनख्वाह तो सबको एक–सी देते हैं...पर ईनाम वाली रकम अलग–अलग और अतिगोपनीय होती है....किसी को पता नहीं होता कि दूसरे को कितना दिया गया है।"
अपने खर्च के लिए तीन सौ निकालकर बाकी पैसे उसने मेरे हाथ पर रख दिए।
"
अरे भाई, मुझे क्यों दे रहे हो...? अपने पास ही रखो..."
"नाहीं, आपके पास ज्यादा सुरक्षित रहेंगे...मेरे कमरे में तो न जाने कौन–कौन आता जाता रहता है। वहाँ रखना ठीक नहीं रहेगा...आप इसमें से पाँच हजार का ड्राफ्ट बनवाकर घर भेजवा दें और बाकी अपने पास ही रख लें..."
"अब तो काम में मन लग गया है न...?"

सकारात्मक उत्तर पा मुझे थोड़ी संतुष्टि हुई। उस रात वह हमारे यहाँ ही रुक गया था। सुबह उसके स्कूल की बस बच्चों को लेने के लिए आती थी, वह उसी से वापस अपने विद्यालय चला गया। समय अपनी गति से चलता रहा। अखिलेश के पत्र मेरे ही पते पर आते थे। जब भी उसके पत्र आते, मैं फोन द्वारा उसे सूचना दे देता तो वह मेरे स्कूल आकर अपने पत्र ले जाता था।

सर्दी की छुट्टियाँ हुईं तो अखिलेश तीन–चार दिन हम लोगों के साथ रहा। उन दिनों में भी उसे स्कूल लगभग रोज ही जाना पड़ता था। इन्हीं छुट्टियों में उसका सारा स्टाफ एक दिन पिकनिक पर फनसिटी गया। रास्ते भर गीत, गज़ल और चुटकुलों का दौर चला। अखिलेश को इन सबका बड़ा शौक था। अतः उसने इन सबमें बढ़–चढ़कर भाग लिया। अन्ताक्षरी की शुरुआत में दोनों ही टीमें उसे अपने पक्ष में रखना चाहती थी। बाद में, टॉस करके इसका निर्णय किया गया कि अखिलेश किस टीम में रहेगा। उस दिन के बाद से वह सबका हीरो बन गया। जब भी कोई अवसर आता उसके गज़ल की फरमाइश हो जाती...अब उसे अपने काम में मज़ा आने लगा था। पर बीच–बीच में कभी–कभी घर से आए पत्र उसे थोड़ी देर विचलित करते रहते थे।

अखिलेश अपने घर में सबसे छोटा था। भाग–दौड़ की सारी जिम्मेदारी चाहे–अनचाहे उसके ही कंधों पर आती थी। लेकिन जबसे वह यहाँ आ गया था अब लोगों को उसका अभाव खलता था। भतीजी की शादी तय होने पर भाई ने कुछ आर्थिक सहयोग की कामना की थी जिसे उसने सहर्ष अपना कर्तव्य समझकर पूरा किया...शादी वाले दिन वह हर पल घर वालों को याद करता रहा। घर की यह पहली शादी थी जिसमें वह शामिल न था। उसका बड़ा मन करता कि उड़कर सबके पास पहुँच जाए, पर मज़बूरी जो न कराए। बड़ा मन मारकर उसने अपने आपको रोका।

म सबके लिए यहाँ से स्वदेश–यात्रा आर्थिक दृष्टि से काफी महँगी पड़ती है अतः यदि आकस्मिक स्थितियों को छोड़ दें तो हम लोगों का भारत–भ्रमण का कार्यक्रम प्रत्येक दूसरे वर्ष ही बन पाता है। पिछली बार हम लोग भारत गए थे, अतः इस बार छुट्टियाँ यहीं बिताने का कार्यक्रम था। अखिलेश भी यहीं था। इण्डिया जाने का मतलब वर्षभर की बचत से हाथ धोना ही होता।
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अखिलेश से बम्बई में जिन कागज़ात पर हस्ताक्षर कराए गए थे उनके बारे में शुरू में उसने मिस्टर डिसूज़ा से पूछताछ की पर वे टाल मटोल करते रहे...बार–बार एक ही बात को याद दिलाना उसे कुछ अच्छा न लगता था...अतः कुछ दिन बाद उसने पूछना छोड़ दिया।

छुट्टियाँ होने पर ही उसे पता चला कि भारत जाने से पूर्व तीन माह का वेतन जमा करने पर ही अध्यापकों को उनका पासपोर्ट मिल पाता है। छुट्टियों का वेतन भी वापस आने पर ही दिया जाता है। यह सब स्कूल का अलिखित नियम था
जो शायद बम्बई में हस्ताक्षर कराए गए अनुबन्ध का एक हिस्सा था। वैसे भारत में किए गए किसी अनुबन्ध का महत्व यहाँ श्रम मंत्रालय की दृष्टि में कुछ भी नहीं होता। किसी विवाद की स्थिति में मंत्रालय अपने नियमानुसार ही कार्यवाही करती है। वैसे ऐसी स्थिति कम ही आती है जब कि कोई अध्यापक अपना विवाद मिनिस्ट्री तक ले जाए क्योंकि उस स्थिति में विवाद हल होने के बाद नियमतः वह अध्यापक उस जगह काम नहीं कर सकता। अतः जब तक पानी नाक के ऊपर न आ जाए मंत्रालय तक जाने का रिस्क कोई उठाने को तैयार नहीं होता।

गर्मी की छुट्टियाँ बहुत से लोग यहाँ ही बिताते हैं। घर पर बच्चे ऊधम न करें इसलिए वे उन्हें किसी न किसी काम में व्यस्त रखना चाहते हैं। इस स्थिति को मद्देनज़र रखते हुए अखिलेश का स्कूल ग्रीष्मावकाश में भी चलता रहता है। अधिकतर अध्यापक दूसरे या तीसरे वर्ष ही अपने घर जाते हैं। अतः छुट्टियों में वे स्कूल में दो–चार घण्टे काम कर लेते हैं। इस प्रकार उन्हें और स्कूल दोनों को कुछ आर्थिक लाभ हो जाता है। अखिलेश ने भी काम किया। दो–एक टयूशनें भी उसे मिल गई थीं। इस तरह छुट्टियाँ आराम से कुछ अतिरिक्त लाभ के साथ ही गुज़री। वैसे अगर परिवार यहाँ न हो तो समय काटना सबसे बड़ी समस्या होती है। जीवन में आदमी अकेलेपन से ही सबसे ज्यादा घबड़ाता है।

नया सत्र शुरू हो गया। सब कुछ अनुकूल चल रहा था। घर से भी पत्र बराबर आते रहते थे। पर इस बीच किसी ने अखिलेश के विरुद्ध उसके अपने विद्यालय में भारत में शिकायत कर दी कि अखिलेश विदेश में काम कर रहा है और उसकी छुट्टी गलत ढंग से स्वीकृत की गई है। शिक्षा विभाग से भी अखिलेश के विषय में जांच के आदेश दिए गए हैं। यह सूचना अखिलेश को अपनी पत्नी के पत्र से मिली। उसके स्कूल के कुछ अध्यापक उसके घर पता करने के लिए गए थे। शायद बच्चों से कुछ भनक मिल गई होगी या फिर जो भी रहा हो, फिलहाल पत्नी ने लिखा था कि यहाँ की नौकरी
तो गई ही समझिए। वहाँ की नौकरी संभालकर रखें।

इस पत्र ने अखिलेश के सारे मनसूबों पर पानी फेर दिया। अपने सारे सपने उसे चिन्दी–चिन्दी हो हवा में बिखरते दिखाए दिए। यहाँ सत्र लगभग पूरा हो गया था। लेकिन नौकरी छोड़कर जाने की स्थिति में उसे एक वर्ष का वेतन वापस करना होता। बिना नौकरी छोड़े जाने की स्थिति में भी उसे तीन माह का वेतन जमा करना पड़ता और छुट्टियों का वेतन भी स्कूल के पास रहता जो वापस आने पर ही मिलता।

अखिलेश बड़ी दुविधा में था, क्या करे...? यहाँ नौकरी छोड़कर जाने पर काफी आर्थिक नुकसान था। और अगर कहीं वहाँ की नौकरी भी चली गई तो...वहाँ जाकर भी क्या करेगा...? यहाँ कम से कम एक वर्ष और काम करके वह आर्थिक रूप से अपनी स्थिति को कुछ मजबूत कर सकता था। उसके बाद भी अगर वह चाहेगा तो यहाँ वह अपना कान्ट्रेक्ट बढ़वा सकता था। लेकिन परिवार और बच्चे, वह भी लड़कियाँ...कब तक किसी और के सहारे छोड़ सकेगा...? उन लोगों को
यहाँ लाने की भी कोई स्थिति नहीं बनती थी। बड़े सोच–विचार के बाद निर्णय लिया कि छुट्टियों में वह इण्डिया जाएगा और वहाँ की स्थिति देखकर आगे की रणनीति तैयार की जाएगी। अगर हिसाब–किताब सेट हो जाता है तो दो–एक माह के लिए वापस आ जाएगा फिर यहाँ त्याग–पत्र देकर मिनिस्ट्री के द्वारा अपने केस का निबटारा करवा लेगा। उस स्थिति में, शायद वर्ष भर का वेतन जमा न करना पड़े। इस तरह वहाँ की नौकरी बची रहेगी और यहाँ से भी निबटारा बिना किसी विशेष आर्थिक नुकसान के हो जाएगा। स्कूल में उसने प्रचारित किया कि इस वर्ष छुट्टियों में उसकी भतीजी की शादी है अतः उसे इण्डिया जाना होगा। अपना पासपोर्ट उसे रिटर्न टिकट दिखाने और तीन माह का वेतन जमा करने पर ही मिला।

भारत पहुँचते ही उसने अपने विद्यालय में ज्वाइन कर लिया। पहले लोगों ने थोड़ी अड़चन डालने की कोशिश की लेकिन क्योंकि उसकी छुट्टी स्वीकृत थी अतः विशेष रुकावट पैदा न हुई। बाद में पता चला कि अखिलेश के स्थान पर जिस व्यक्ति की तदर्थ नियुक्ति हुई थी वह शिक्षा विभाग के किसी कर्मचारी का आदमी था। सारा खेल उसी का रचाया हुआ था। उसने अपनी नौकरी पक्की करवाने के इरादे से ही शिकायत की थी। लेकिन अब उसे अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा था।

ग्रीष्मावकाश समाप्त होने को था। अखिलेश को यहाँ वापस आने के लिए पुनः छुट्टियाँ लेनी थी। प्रिंसिपल से उसकी अच्छी पटती थी। अतः उसने सारी बातें उन्हें स्पष्ट बता दी। यह भी बताया कि वापस न जाने की स्थिति में उसे लगभग सत्तर–पचहत्तर हज़ार भारतीय रुपयों से हाथ धोना पड़ेगा, जो उसके गाढ़े परिश्रम की कमाई हैं। पर प्रिंसिपल ने किसी तरह भी छुट्टी देने से मना कर दिया। साथ ही समझाया कि देखो, तुम्हारा केस अभी बन्द नहीं हुआ है, जाँच–पड़ताल हो रही है, ऐसे में तुम अगर यहाँ नहीं रहोगे तो तुम्हारे विरोधियों को और भी मौका मिल जाएगा। उस स्थिति में तुम्हारी यहाँ की नौकरी बच नहीं सकेगी।

अखिलेश मेरे पास परामर्श के लिए आया। मेरी समझ में भी कुछ न आ रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाए। फिलहाल यहाँ की नौकरी का रिस्क लेकर जाना मुझे उचित नहीं लग रहा था इसीलिए मैंने यही समझाया कि उचित कारण बनाते हुए एक माह के अवकाश के लिए प्रार्थना–पत्र अबूधाबी भेज दो ओर मिस्टर डिसूजा से फोन पर बात भी कर लो। मेरी बात उसे जँच गई। बोला यही ठीक रहेगा।

मेरे यहाँ वापस आने पर एक दिन मिस्टर डिसूजा का फोन आया। वे अखिलेश के विषय में कुछ पूछताछ कर रहे थे। मुझे अखिलेश के विषय में पूरी सूचना न थी, अतः मैंने अस्पष्ट–सा उत्तर देते हुए उनसे कहा कि वापस आते समय
अखिलेश से मेरी मुलाकात नहीं हो पाई अतः मैं कुछ भी निश्चित बता पाने में असमर्थ हूँ।

सी दिन मैंने अखिलेश से बात की तो पता चला कि उसके छोटे भाई का चुनाव किसी बैंक की नौकरी के लिए हो गया है और वह इलाहाबाद से लखनऊ चला गया है। अब अखिलेश का परिवार एकदम अकेला पड़ गया है, ऐसी हालात में उसका आना असंभव ही हो गया है। अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए उसने मिस्टर डिसूज़ा के पास अपना त्याग–पत्र भेज दिया है। साथ ही प्रार्थना की है कि मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए उसके पैसे भेज दिए जाएँ।

"तुम फोन पर ही बात क्यों नहीं कर लेते।" मेरे पूछने पर उसने कहा, "सच कहूँ तो डिसूजा साहब से फोन पर बात करने की मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही है। अब सब कुछ ऊपर वाले के सहारे छोड़ दिया है...वह जो चाहेगा वही होगा। आपसे कभी मुलाकात हो तो थोड़ी मेरी सिफारिश कर दीजिएगा...कम से कम जो पैसा मुझसे जमा करवाया है वह तो भेज ही दें।"

"चलो ठीक है देखो वे लोग क्या निर्णय लेते हैं।"
उस दिन के बाद से मैं प्रतीक्षा ही करता रहा कि क्या पता डिसूजा का कोई फोन आए...पर समय बीतता रहा और बीतता रहा...बस।
आज अखिलेश का पत्र मेरे पास आया है। पूछा है क्या वहाँ फँसे मेरे पैसों के वापस मिलने की कोई गुंजाइश नहीं हैं...? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है कि मैं उसे क्या जवाब दूँ...और डिसूजा से क्या बात करूँ...?

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२४ अगस्त २००३

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