मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


"कैसी हो रीनी"
"अच्छी। और तुम ?"
कितने वर्षो बाद मिले थे। रीनी ने अपनी सकपकाहट ढँकने के लिए एकदम व्यस्त होने का नाटक किया।

"तुम बैठो। मैं तुम्हारे लिए पानी लाती हूँ "।
रीनी लगभग भागी थी। ये सही नहीं था। अब वो पहले वाली, किशोरी, रीनी तो थी नहीं कि नील उसकी ओर देखे नहीं, कि दिल की धड़कन बेकाबू। "अब मैं नौकरी पेशा, शादी शुदा एक बच्चे की माँ हूँ"। रीनी ने अपने को समझाया। ट्रे में पानी का ग्लास और तश्तरी में कुछ कुकीज़ ले कर ठहरे कदमों से लिविंग रूम में आ गई।

नील कुशन्स पर सर टिकाए बैठा था। उसे देखते ही सतर बैठ गया। निगाहें तौलती सी।

"बहुत अच्छी लग रही हो।"

री
नी फिर संकुचित हो उठी। हाथ अनायास बालों पर चले गये। तब उन दिनों उसके बेहद लंबे बाल हुआ करते थे। अब एकदम छोटे, तब और अब में बहुत फर्क था। लेकिन सचमुच में था क्या?

नील फ्रेश होने गेस्टरूम में चला गया था। रीनी किचेन में व्यस्त।

मक्ख
न में प्याज, मशरूम और शिमला मिर्च की भूने जाने की खुशबू। उबले अंडे, फ्रेंच टोस्ट, जूस।

नील भी पीछे पीछे किचेन में आ गया था।

उसे चम्मचें और चाकू पकड़ता हुआ। उसके हाथों से तश्तरियाँ टेबल पर रखता बिलकुल ऐसा जैसे हमेशा से वो इस घर में, इस किचेन में मौजूद था। उसकी हर चीज से परिचित। रीनी के मन में एक ज्वार उठा। इतने दिनों तक गायब और
अब अचानक ऐसे व्यवहार करना जैसे वो कहीं गया ही न हो।

टेबल लग चुका था। फूलो वाली टेबलक्लौथ, नीले और पीले धारियों वाली प्लेंटें और बोल्स। सामने खिड़कियों से धूप टेबल पर छन कर आ रही थी।

"फ्लाइट का खाना मुझे रास नहीं आता। सब एक जैसा स्वाद, ब्लैंड।"

नील स्वाद लेकर खा रहा था।

"दोपहर का खाना, विशुद्ध भारतीय। तुम्हारे पसंद का, कढ़ी, चावल और सरसों वाली मछली"।

नाश्ता हो चुका था। बैलकनी में धूप में दोनों आ गये थे। रीनी काफी ले आई थी। नील का कोई फोन आ गया था।

रीनी
उसे देख रही थी, टहलते हुये बात करते हुये।

वो दिन अच्छे थे, ये रीनी अब तय नहीं कर पाती है। नील चारूदी का दोस्त था। नील, शिप्रा, विवेक, मैना, कुंजु। चारू दी थी रीनी की बड़ी बहन। चारू दी बेहद गोरी, खूबसूरत, हर चीज में अव्वल, पढाई में आगे, डिबेटिंग क्लब की प्रेसीडेंट। उनके आर्टिकल्स छपते, टेनिस में कालेज़ का प्रतिनिधित्व करती। और बेचारी रीनी, उसका तो नाम ही बेचारी रीनी हो गया था। दुबली पतली, साँवली रीनी। पढाई में अच्छी पर अव्वल तो कभी नहीं आई। डिबेट वगैरह तो दूर की बात। बेहद अन्तर्मुखी। किताबें पढ़ती, गाने सुनती, रंगो से खेलती अपनी दुनिया में सिमटती सी।

चारू दी के दोस्त घर आते थे। तो उसे जरूर पुकारते, "रिनी बाहर आ जा, चारू योर किड सिस्टर इस रियली स्वीट"। उनकी मंडली जमती थी टेरेस पर, रीनी के कमरे के ठीक बगल में। बाहर नहीं भी जाने पर रीनी को पता चल जाता वो क
ब आये सीढ़ियों पर उनकी आवाजें आतीं, मस्ती भरी फिर... टेरेस पर।

नील उन सबमें अलग था। बेहद आकर्षक आवाज। किसी भी विषय पर बोलता तब सब चुप हो जाते, सुनते। गाता भी बहुत अच्छा था।

गाती तो शिप्रा भी थी, रवीन्द्र संगीत और नजरुल गीती। मैना पुराने अंग्रजी गाने गाती जोन बयेज और ब्लांडी और कुंजु तमिल गाने गाता। जब गाने की गोष्ठी होती तो रीनी भी चुपके से आ कर बैठ जाती।

नाश्ते का दौर चलता। पके हुये भुट्टों, भुने हुये चने से लेकर, समोसे, कबाब और पैटीज़ तक। ये इस बात पर निर्भर करता कि नाश्ता कौन बना रहा है, दीना या ममा।

पापा और माँ दोनों डाक्टर थे और अपने अपने क्लीनिक में व्यस्त। माँ जब घर पर होतीं तो नाश्ता ढंग का बनता। तब बैठकी भी देर तक जमती।

रीनी को याद है उस दिन नील अकेला आया था। चारू दी घर पर नहीं थीं। पापा, माँ भी नहीं।

बस चुपचाप टेरेस पर बैठा रहा। चाय की फरमाइश की थी। रीनी खुद बना कर ले कर आई थी। नील ने चाय पी थी। कमरे से मलिका पुखराज़ की पुरसोज़ आवाज आ रही थी
'मुझे याद करने वालों
जरा मेरे पास आओ'
आँ
खे बंद कर, कुर्सी के पुश्ते पर सर टिकाकर बैठा रहा था। रीनी सकुचाई, क्या बात करे। बस चुपचाप बैठी रही थी। आधे, पौने घंटे बाद, हँस कर, उसे शुक्रिया कह कर चला गया था।

फिर उसके बाद कभी कभी नील ऐसे आता रहा। बातें बहुत नहीं होती। रीनी सोचती "मैं इतनी नीरस। मेरे पास बात करने का सलीका नहीं, कोई मजेदार बात करने का टॉपिक नहीं। नील की क्या गलती। वो क्या बात करे मुझसे"।
पता नहीं कैसे नील को उसके किताबों, संगीत और रंगों के शौक के बारे में पता चल गया था।

कभी उसके लिए गानों के सी डी लाता, मलिका पुखराज, बेगम अख्तर, मलिकार्जुन मंसूर, कुमार गंधर्व के निर्गुण भजन, बीटल्स के पुराने गाने, साईमन गारफंकल, कोई लोक संगीत— कुछ भी।

कभी किताबें भी लाता। वान गॉग की जीवनी, स्टाइनबेक की सारी किताबें, नाटक खामोश अदालत जारी है, तुगलक एवं इ
न्द्रजीत। सब रीनी ने नील के सौजन्य से पढ़ी।

दोस्तों की मंडली जमती। रीनी की गुहार होती। रीनी चुप आकर बैठ जाती। वो लोग अपनी बातें करते, बहस होती। रीनी चुप सुनती रहती। नील अचानक पूछ बैठता, फलां किताब कैसी लगी रीनी ?
और रीनी एकदम लाल पड़ जाती।
छोटे छोटे शब्दों में हड़बड़ा कर कुछ बोलती और फिर चुप हो जाती। बाद में अकेले में बैठ कर घंटों सोचती, अगली बार नील पूछेगा तो मैं ऐसे बोलूँगी कि कोई भी प्रभावित हो जाये, पर अगली बार नील पूछता और रीनी फिर लाल पड़ जाती।

कभी नील उसके पास रेलिंग पकड़ कर पीछे से अचानक आ जाता। गाने की कोई पंक्ति उसके कानो में पड़ती "सब कुछ कहा मगर न हुये राज़दां से हम" रीनी को भ्रम होता उसने सुना भी या नहीं।

भी उसे लगता उसकी कल्पना शक्ति जोरों से काम कर रही है। नील को उसमें क्या दिखाई देगा। फिर हमेशा से चारू दी और नील में कोई अंडरस्टैडिंग है ऐसा सब मानते आये थे। पापा माँ भी।

उसका दिन आशा और निराशा के झूले पर झूलते बीतता। कभी बहुत खुश हो जाती, कभी उदासी का दौर तारीं हो जाता।

उस दिन बुआ आई थीं। "किशोरावस्था है, ऐसा होता है, भाभी।" बुआ माँ को समझा रहीं थी। उसे पास बुलाया था और थोड़ी हैरानी थी इस बार उनकी आवाज में "भाभी रीनी तो अचानक सुंदर हो गई है, एकदम साँवली सलोनी।"

रीनी ऊपर कमरे में भाग आयी थी।

शा
यद ये सचमुच किशोरावस्था का प्रेम था अडोलेसेंट इनफैचुयेशन। समय बीतते शायद रीनी पर से इस बुखार का असर दूर हो जाता। या शायद और गहरा जाता। पता नहीं क्या होता।

पर ये तय था कि चारू दी को भी कोई शक तो हो रहा होगा।

उस दिन नील बार बार रीनी की ओर देख अपनी बात की सहमती ले रहा था "क्यों रीनी, है न"।

बाकी सब मुस्करा रहे थे चारू दी को छोड़। आज बैठकी जल्दी छूट गई थी शायद चारू दी के मूड को सबने पहचान लिया था।

बके जाते ही चारू दी एकदम से फट पडी. थीं।

"क्यों अपने को लाफिंग स्टाक बना रही हो रीनी। सब तुम पर हँस रहे हैं और तुम ?

यू आर थ्रोअिंग योरसेल्फ औन नील। वो तुम्हें मेरी छोटी बहन समझ कर पैम्पर कर रहा है लेकिन तुम बेवकूफी की पराकाष्ठा पर पहुँच गई हो। बेचारा क्या करे। मुझसे तो नहीं पर नैना से। कुछ शर्म तो करो। अपने को देखा नहीं। तुम में है क्या कि कोई तुम्हारी तरफ देखे। और वो भी नील"।

चारू दी गुस्से से हाँफ रही थी।

"मेरे
और नील के बारे में भी तुम्हें पता है, उसके बावजूद..."

रीनी एकदम सन्न। चारू दी चीख रही थी। उनका गुस्सा उफन उफन कर बाहर आ रहा था, रीनी बुत बन गई थी। तो नील भी उस पर हँसता है। चारू दी बोल रही थीं, इतनी तकलीफ देने वाली बातें पर रीनी का दिमाग उसी एक बात पर टिक गया था। अचानक चारू दी चुप हो गई थीं। दरवाजे पर नील खड़ा था। पता नहीं कब से।

रीनी भाग आई थी। उसने इतनी जिद हौस्टल के लिए मचाई थी। एक सप्ताह के अंदर सब कुछ छोड़कर दिल्ली आ गई। उसके और चारू दी के बीच कुछ हुआ है पर क्या ? उसका अंदाजा नहीं हो पाया था। इस एक सप्ताह में नील से मुलाकात नहीं हुई थी।

रीनी
ने अपने दिमाग से सबकुछ निकाल फेंकना चाहा था। नील उससे नहीं मिला था तो ये शायद साफ था कि चारू दी ने जो कहा था वो सच था। दिल टूटा था। पर चोट किस बात से ज्यादा थी— दिल टूटने की या नील के उस पर दया करने या उपहास करने की, ये रीनी तय आजतक नहीं कर पाई।

सके शहर छोड़ने के लगभग छह – आछ महीने के अंदर नील यू एस चला गया था। उसके एकाध महीने बाद चारू दी भी। शायद वहीं वो दोनो शादी करें। रीनी को ठीक–ठीक कुछ पता नहीं।

वो कई बार विश्लेषण करती। क्या सचमुच नील ने उसके लिये कुछ भी महसूस किया था ?

दिन बीतते गये थे। दोनो बहनों के बीच जो सन्नाटा खिंच गया था वो पापा माँ के मौत पर नहीं टूट पाया था।

तब तक रीनी भी नौकरी पा गई थी। ट्रेनिंग चल रही थी। अचानक ये दुखद खबर आई थी। एक्सीडेंट में दोनों गुजर गये थे। पापा तो वहीं पर, माँ दो दिन अस्पताल में आइ सी यू में रहने के बाद।

रिश्तेदारों की भीड़। चारू दी आई थीं। रीनी ने जब कोशिश की बातों का सिलसिला जोड़ने की, चारूदी ने ठंडी निगाहों से उसे खत्म कर दिया था। रीनी, आहत, अनाथ समझ नहीं पाई पाई थी। नील अब भी उनके बीच मौजूद था। ये और बात
थी कि अब ये तय था कि चारू दी और नील साथ नहीं थे। फिर भी चारू दी का ऐसा निस्पृह व्यवहार।

दस दिन रहकर चारू दी लौट गई थीं। पहले से भी ज्यादा सुंदर। अब एक आत्मविश्वास की चमकीली परत उनके उपर फैली हुई थी पर रीनी को पहली बार चारू दी बेचारी लगी थीं।

बुआ ही उसका संबल और सहारा थीं। ट्रेनिंग खत्म हो गई थी। वहीं पर पहली पोस्टिंग। परेश उसका बैचमेट था। शांत, समझदार, सुलझा हुआ व्यकित्व। उसने शादी का प्रस्ताव रखा था। बुआ को भी परेश पसंद था।

"एक नौकरी में हो। सुविधा रहेगी। फिर परेश बहुत समझदार भी है। रीनी तुम सुखी रहोगी"।

रीनी को भी यही लगा था। और सही भी निकला। रीनी सुखी है।

परेश
टूर पर गया है। कल लौटेगा। पर आज रीनी है और नील है। और आज भी रीनी नील के सामने वैसे ही लाल पड़ रही है, शब्द खोज रही ही। इतने साल जैसे बीच के, गायब हो गये हैं।

नील अपने बारे में बता रहा है। अपने जॉब के बारे में, विदेश के अपने जीवन के बारे में। मजेदार कहानियाँ, रोजमर्रा की बातों को भी ऐसे कहना कि रीनी के चेहरे पर हँसी फूट पड़े।

रीनी पूछना चाहती है उसने शादी की ? उसके बच्चे हैं ? नील की बातों से इन सब चीजों का अन्दाजा रीनी को नहीं हो पा रहा है। रीनी पुरानी बातें भी जानना चाहती है पर पूछ नहीं सकती।

नील पूछता है "तुम अब भी गाने सुनती हो"? रीनी सिर डुलाती है।

उसकी और परेश की बडी. सी फोटो एनलार्ज की हुई दीवार पर एक तरफ टंगी हुई। दोनों हँसते हुये। नील उसे देख रहा है।
उसकी आँखे पूछती हैं, "तुम सुखी हो रीनी"।

रीनी सिर डुलाती है। आँखों के कोरों पर आँसू की बूँदे हैं शायद।
रीनी की आँखे भी फोटो पर परेश के ऊपर टिक गई हैं।

परेश जो बहुत कुछ नहीं बोलता है पर हमेशा करता है। रीनी का चेहरा कोमल हो जाता है।

परेश संगीत नहीं सुनता, परेश किताबें नहीं पढ़ता पर कई बार ऐसा होता है कि परेश उसके लिए किताबें लाता है।

"
आज ममा चैन से किताबें पढ़ेगी। नुनु बेटा और पापा आज खाना बनाएँगे, गाड़ी साफ करेंगे, पौधो की निराई करेंगे, ममा आराम करेगी"।

रीनी को कमरे में छोड़ दिया जाता है सख्त हिदायत के साथ कि बाहर नहीं आना है।
बाहर से हँसी की आवाज, बरतनों के खटपट की आवाज आती रहती है। नुनु की बचकानी हँसी, कलकल बहते झरने की तरह, परेश की आवाज के बीच बीच में सुनाई देती है।

रीनी नये नकोर किताब की गंध अपने अंदर भर लेती है। एक पन्ना भी पलटा नहीं जाता पर सुख की लहर उसे गुनगुने पानी की तरह सुकन दे जाती है। ये सुख नहीं तो क्या है।

परेश का साथ, जाड़ों की सर्द रात में अलाव के सामने आग तापने जैसा है। सुख और सुकन से आँखे बंद हो जाती हो जै
से। कोई हलचल कोई जोश नहीं। बस सब कुछ कोमल और शांत।

रीनी अपनेआप को नहीं समझ पाती। इस खुशी के बावजूद भी कभी कभी शामें बेवजह उदास क्यों हो जाती हैं। किसी भूली बिसरी गजल की धुन, रातरानी के फूलों की महक, तीखे पुदीने की चटनी के साथ गर्म समोसों की चटकार होठों पर पुरानी स्वाद की याद क्यों दिला जाती हैं।

ऐसा नहीं है कि नील की याद आती हो। दिन महीने बीत जाते हैं बिना एक बार भी उसे याद किये हुये।

जीवन एक ऐसी स्थिर गति पकड़ चुका है जिसमें सब कुछ परेश और नुनु के इर्दगिर्द घूमता है।

लेकिन फिर कोई शाम आती है, सूरज डूबता है, झुटपुटा छा जाता है। कहीं से मलिका पुखराज की आवाज गूज जाती है
और रीनी बेचैन हो जाती है, इस बेचैनी का सबब रीनी के पास नहीं है।

पर एक बात की तसल्ली रीनी को है कि जैसे उसे इस बात का पक्का पता नही कि नील ने उसके लिये कुछ महसूस किया या नहीं वैसे ही शायद नील भी उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ था। आज भी उसे नील को ये जानने नहीं देना है कि एक गुलाबी याद अब भी उसकी शामों को महका देती हैं।

रीनी के चेहरे पर फिर से मुस्कुराहट फैल जाती है।

बाहर घंटी बजती है, जोर जोर से, बिना रूके। रीनी हँसती है "नुनु होगा"। दरवाजा खुलते ही नुनु तुफान की तरह अंदर। शर्ट पैंट से बाहर निकली, जूते खुले हुये, मोजे गिरे हुये। बैग फेंककर हँगामा मचाता, रीनी का बेटा नुनु नील को देखकर अचानक शांत हो जाता है।

रीनी उसके कपड़े बदलकर बाहर भेजती है। दूध का कप लेकर आते, रीनी के पैर दरवाजे पर जम जाते हैं।

नुनु नील के गोद में बैठा उसका नाम पूछ रहा है। नील भी गंभीरता से कहता है, "इंद्रनील सरकार"। नुनु ताली बजा रहा है।

"फिर तो हम स्पेशल दोस्त। मेरा नाम भी इंद्रनील है, इंद्रनील पात्रा"।

नील चौंक कर दरवाजे पर खड़ी रीनी को देखता है। रीनी की चोरी पकड़ी गई है।

पृष्ठ . .

२४ मई २००४

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।