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वे ऐसे तंगदस्त भी न थे कि मजबूर मुफलिस बहिन को पनाह देने में कोई तकलीफ होती। मौजमस्ती से लबरेज़ जिन्दगी थी, कोई फिक्र परेशानी न थी, दिन और रात खुदा की इनायत से बढ़िया कटते थे कि एकाएक दो अनाथ उनका दामन थाम कर बैठ गए। रोटीदाल का इन्तज़ाम और उनकी परवरिश करने में ही सिर के बाल पकने लगे। खुशियाँ खाक में मिल कर गर्द होने लगीं। यतीमों के लिए आमद सनद जुटाने में ही सुबहें शामें बीतने लगीं। वह इन्सान जो कभी नाक पर भूले से मक्खी बैठ जाए तो मसल डालता था, अब गैरशादीशुदा होने के बावजूद भी एक परिवार को पालने की खातिर तंगज़दा हुआ जाता था। महमूद मियाँ बेगैरत बन कभी भी बहिन पर पिल पड़ते और जब तब अजीबोगरीब फिकरों से बिचारी को पोशीदा करते जबकी वह खुद 'ब्लडप्रैशर' जैसी पेचीदा बिमारी से ग्रस्त थी।

'तुम ने अपनी नाइलाज बिमारी से मेरे सारे रुपए मिट्टी कर दिए शौहर का ठिकाना छोड़ कर मेरे पास चली आईं यह सोचकर कि मैं तुम्हें ज़िन्दगी भर पनाह आसरा देता रहूँगा। मेरा क्या! उड़ता परिन्दा हूँ आज यहाँ बैठा हूँ, कल का ठिकाना नहीं। तुम माँ बेटी का बोझा ढोता रहूँगा तो जल्द ही बूढ़ा भी हो जाऊँगा। बेहतरी इसी में होगी अगर तुम कासिम परवेज़ के घर वापिस चली जाओ।'

कासिम परवेज़ एक सजीला भड़कीला इंसान था। बेपनाह शौक रखनेवाले उस बांके नौजवान को जाहिरा जैसी सादी औरत में कतई दिलचस्पी न थी। यूँ तो वह खूबसूरत कहलाने वाले नाक नक्श रखती थी पर पति को खुश रखने की हिज़ाकत की कमी थी उसमें। बाज़ार में बला का दिलफरेब हुस्न कासिम मियाँ पर जान छिड़कने को हरदम तैयार रहता। दौलत सूखे पत्तों की तरह बर्बाद होती। दामी होटलों में ऐश के सभी साधन मयस्सर थे सो घर आने की ज़रूरत नहीं थी। जाहिरा की तरफ से इस बारे में कोई शिकायत नहीं थी इस बात का उन्हें मलाल रहता। उसकी नाशादगी से भी वह हर वक्त कुढ़ते थे। कीचड़ में जान कर पाँव गन्दे करते थे और चाहते थे कि बीवी इस बात पर नाराज़गी जाहिर करे। एक दिन मौका देखकर कह बैठे, 'अब तुम मेरे काबिल नहीं रहीं, अगर चन्द सी गैरत भी तुम्हारे भीतर बाकी हो तो घर छोड़कर कहीं दूर चली जाओ...।'

ऐसे बुरे वक्त में भाईजान का ही ठिकाना था किसी और की देहरी पर उसकी इज्ज़त महफूज़ न थी। एक दिन जब बहिन की पीठ को कमरपेटी से नील जर्द कर वह बैठकखाने में ऊँघ रहे थे, उसी वक्त जाहिरा ने भाईजान से बदला लेने की बात तय कर ली थी। वह खुदगर्जी पर उतर आई थी, इसका उसे मलाल था इसलिए सजा पाने की खातिर वह दिलो दिमाग से तैयार भी थी।

लोगों की पैनी निगाहें उसको कटार से काटे डाल रहीं थीं।
'कैसी बेदर्द औरत है कम्बखत औरत जात की इज्जत का बेड़ा गर्क कर दिया भाई शोहदा था सो बहिन भी बदआदमियती पर उतर गई, आह! खुदा कैसा ज़माना आ गया...।'

एक बूढ़ी सफेदपोश गला खखारते हुए उसके कन्धों को पकड़ जोरजोर से हिलाती हुई चिल्ला रही थी। वह खामोश थी, जो कुछ कहता था सुन लेती थी, जबान से कुछ बोलती न थी। जंजीरों में फँसी बाहों में महीन महीन जख्म उभर आए थे जिनसे खून रिसता था पर वह उफ् भी न करती थी। चेहरा जो सुन्दर गोलाई लिए हुए था, अब इतने दिनों में सूख कर लम्बोतरा और पीला पड़ चुका था। आँखें पानी से भरी साफ और बिल्लौरी थीं नीले काँच के समान पर वे भी अब खुश्क और धुँधली हो चलीं थीं। अदालत ने फैसला देते हुए उसको उम्र कैद की सजा सुनाई। जिबह के लिए तैयार होते बकरे की माफिक वह रिरियाती रही। यूँ तो कहने को सभी गम उसको बर्दाश्त थे पर असलियत सामने आते ही उसे लगने लगा कि इस आफत को वह आसानी से झेल न पाएगी। शाहीन का आँसुओं से तर होता चेहरा और भूख से बिलबिलाता शरीर आँखों के आगे तैर गया। गश खा कर वह वहीं ज़मीन पर बिछ गई। अदालत ने रहम खाते हुए फैसला सुनाया। बच्ची को वह जेल में रख सकती थी लेकिन सिर्फ छः बरस की उम्र तक। जाहिरा ने फैसला सुना और हँस पड़ी, 'क्या फायदा ऐसी शफीकत से' तीन साल बाद बच्ची को किस की गोद में फेंक कर आएगी' कौन फरिश्ता उसे पाक साफ मुहब्बत देगा...बेहतर होगा खुदा इस बदकिस्मत औलाद को उसकी आँखों के सामने उठा ले... ।'

कुछ देर तक वह पगली के माफिक खिखियाती रही और अगले ही पल बुर्का फाड़कर जार जार रोने लगी। जेल के जिस बैरक में उसकी भर्ती हुई थी वहाँ रहने वाली मौजूदा सभी औरतों की अमूमन एक सी कहानी थी' कोई बेवफा पति का गला दबाने के बाद खुदकुशी करना चाहती थी पर बदकिस्मती की वजह से आज जेल में गिन गिन कर लम्हे काटती थी' किसी का आदमी बदसूरत खस्ताहाल था सो किसी रईस प्रेमी की गिरफ्त में पड़ गुनाह कर बैठी थी' नतीजन अब सलाखों के पीछे सिर पटकती थी। वे औरतें ज़ाहिरा का हाल देखती थीं समझती थीं पर उन्हें दया न आती थी। वे सब संगदिल सख्त थीं अपनी सुध में डूबे रहना उनकी आदत थी। रोज़ एक नई मुलज़िमा वहाँ आती और वे सब उस पर भूखे शिकारी की माफिक टूट पड़तीं। इस की वज़ह भी थी। बैरक में जहाँ पच्चीस तीस औरतें ही बमुश्किल समा सकती थीं वहाँ तीन सौ औरतें अपनी औलादों के संग कीड़ों मकोड़ों की तरह हाथ पैर जमीन पर कायम दायर करने की खातिर दिन रात हुज्जत करती थीं। फहश गालियों से कुत्ते बिल्लियों की तरह एक दूसरे को नोचती खसोटती थीं। ज़ाहिरा के हाथ में कपड़े का थैला था जिसमें शाहीन के फ्राक और खिलौने बन्धे थे। बैरक के अन्दर पैर रखते ही गैरबर्दाश्त तेज़ बदबू का एक झोंका उसके नथुनों को फाड़ता चला गया। वह नाक को दुपट्टे में दाबे ठिठकी खड़ी रही। उस हैरतज़दा हुज़ूम में एक काली ठिगनी और बेहद खौफनाक सी दिखनेवाली औरत उसे इशारे से बुला रही थी। उसका मुँह शरीर के अनुपात में बेहद छोटा और सिकुड़ा हुआ था। मुर्गे की एक बचीखुची टाँग उसके ओंठों के बीच हिल रही थी। शायद वह वहाँ की सबसे ताकतवर और ज़ाहिरी तौर पर बेहद खतरनाक मुज़रिमा थी।

'ऐ क्या नाम है तेरा...।' उसकी जबान में दहशत देने वाला फख था। जाहिरा की टाँगें थरथर काँप रहीं थीं। सूखे हलक से मरी हुई आवाज़ निकली, 'जा...हि...रा...।'
'थैले में क्या माल छिपा कर कर लाई है ला खोल कर दिखा...।'
उसके काले ओंठ शैतानी अन्दाज़ में फड़क रहे थे। जाहिरा चाह कर भी 'ना' न कह पाई। थैले के भीतर झाँक उसने जाहिरा को एक मोटी गाली जड़ दी। उसे उम्मीद थी कि नई शिकार है, मोटी रकम हाथ लगेगी। कुछ दिन ऐश से कटेंगे पर बदकिस्मती ही थी कि जाहिरा के पास एक पाई भी न थी। जो कुछ था वह कैदखाने में डालने से पहले लालची सिपाहसलार हजम कर चुके थे।

जाहिरा पैर आहिस्ता आहिस्ता धर रही थी। कोई दो सौ मीटर के दायरे में कैदी औरतों का जमीन पर सैलाब सा बिछा हुआ था। जिधर निगाह फेंकती वहीं दुबली पतली औरतें, सूखी सफेद पिंजड़े सी जमीन पर लोटतीं आहें भरतीं, गन्दले कपड़ों में लिपटे, बीमारी से जूझते, चमगादड़ी मरियल बच्चों को पुचकारती धमकाती, एक एक कतरा जमीन की चाह में पट्टे ठोंक कर लड़तीं सिर पटकती औरतें...। उसकी देह में फुरफुरी सी दौड़ गई। सारी ज़िन्दगी बदख्वाबी के ढेर में तब्दील होती दिखने लगी। शाहीन ने अपनी सफेद अँगुलियाँ उसकी हथेली पर रख दी और वह उजड़ी निगाहों से इधर उधर ताकने लगी थी।
'क्या ढूँढती है...कुछ खो गया है तेरा...।'
सामने वही मोटी औरत सीना तान कर खड़ी थी। यहाँ महल न मिलेगा तुझे। सोचती क्या है सामने गलियारे के बाजू वाले कोने में बिस्तर डाल कर बैठ जा। अभी अभी सुलखा बेन की लाश वहाँ से उठ कर गई है।

'ऐ परे हटो खिसको नक्शेवालियों जरा जगह खाली करो...।' दुहड़ जमाते हुए उसने फर्श पर पसरी औरतों को भगाया। गलियारे को घेरती दो मज़बूत दीवारों के बीच चार हाथ के चौड़ाईवाले उस दरमियाने में तल्ख बदबू पसरी हुई थी। नीले रंग की चादर जिस पर जगह जगह गन्दगी के मोटे थक्के नज़र आते थे सुलखा बेन की थी। वह काफी अमीर थी पर उसकी मौत बदनसीबी की वजह से इस जहन्नुम में हुई।
अगल बगल बैठी औरतें उससे खिलवाड़ करने लगी थीं'
'अरी बैठ जा क्यों ज़बर करती है बहुत खुशनसीब है तू...एक अमीरन की छोड़ी गई सौगात मिल गई' देख हमारे पास तो चीथड़े तक नहीं। तेरी किस्मत है बिछावन के लिये चादर और कोने का दरमियाना जब चाहे कड़क हड्डियाँ सीधी कर लेना...।'
वे सब उसकी खुश्किस्मती देख कर जलभुन रही थीं। शाहीन की नर्म अंगुलियों को थामे ज़हिरा गुमसुम सी तुड़ी मुड़ी चादर पर बैठ गई। कुछ भी तो उसके वश में न था। थैले को सिर के पीछे टिका कर अधलेटी सी शाहीन के मासूम चेहरे को ताकने लगी, 'बिचारी बदनसीब बच्ची इन चन्द रोज़ में आफताब सा चेहरा कैसा मुरझा गया...सफेदी लिए छोटे छोटे ओंठ' गालो पर चढ़ती पसीने व गर्द की स्याह रंगत...।'
बदबख्ती ने जैसे माँ बेटी का दामन बेदर्दी से थाम लिया था। शाहीन हौले से माँ के पहलू में दुबक गई।
'अम्मा हम अब्बू के घर क्यों नहीं रहते...।'
'...'
'यहाँ बहुत गन्दा है मितली आती है' कहो न अम्मा अब्बू के घर कब चलोगी...।'
'...'
'उहूँ कहती क्यों नहीं अम्मा! हम यहाँ से कब जाएँगे... ।' शाहीन ने हाथ पाँव पटके थे।
चटाक् चटाक्...गालों पर अँगुलियों के सुर्ख लाल निशान पैदा हो गए।
वे दोनों चन्द रोज़ पहले की बदख्वाबी को भूलना चाहती थी। सुबह होने में काफी देर थी पर शायद गलियारे में रहने वाली औरतों को नींद न आती थी। वे लड़ झगड़ रही थीं गालियाँ उनकी जबान से लार की माफिक फिसलती थीं। वह गलियारा असलियत में रोज़मर्रा की फुर्सत पाने की जगह थी। वहाँ या तो नई भर्तीनवीस रहतीं या फिर वे' जो जिस्मानी तौर से कमजोर और दब्बू रूहानियत की होतीं। जाहिरा की आँखों में जलन हो रही थी। पूरी रात वह ठीक से सो न सकी थी। शरीर को तीन फुट के दायरे में सिकोड़ कर पड़ी रही थी। इसी वजह से पूरी देह ऐंठ कर बेजान गोश्त के समान हो गई थी।

'ऐ उठ जा पूरी रात खर्राटे मार कर जी नहीं भरा तेरा। बिस्तर छोड़ और काम पर लग जा...।'
बिस्तर के सामने गोरे रंग' दुबले शरीर और लम्बे कद की कोई मोहतरमा खड़ी थी। उसकी बाजू में पिछले दिन वाली वही बदसूरत मोटी औरत थी। गीध सी आँखों के नीचे काला मोटा मस्सा उसके चेहरे को और ज्यादा खौफनाक बनाए डाल रहा था। वह अपनी भारी हथेलियों के बीच खतरनाक तरीके से डण्डा घुमा रही थी।
'जी रात भर नींद नही आ सकी...।' जाहिरा घिघियाने लगी।
'सोने वालियों के लिए यहाँ जगह नहीं...देख काहिल औरतों को गुरप्रीत मैडम यूँ टाइट करती है।' मोटी आौरत ने मिसाल रखने के लिए डण्डे को घुटनों के बीच दबा कर तड़ाक से तोड़ दिया।
'अब फटाफट उठ जा। तेरी बहादुरी के किस्से सुने हैं हमने' बड़ा सख्त जिगर है तेरा। मैडम जी कहती हैं तुझे चमड़े सीने की मशीन पर काम करना होगा...। प्रेतात्मा सरीखी खुरखुराती हँसी कानों को भभोडने लगी थी।
“ज...जी...।'

ज़ाहिरा बदहवासी में हाँफती दौड़ती मशीन पर बैठ गई। उसका कलेजा टुकड़े हो कर बिखर रहा था। शाहीन की बर्बादी का मंजर उसकी नज़रों के आगे बार बार आ जाता और वह हिड़कियाँ भर कर रोने लगती। जेलखाने के भीतर बच्चों की दुर्दशा वह देख रही थी। सने कपड़ों पर भिनभिनाती मक्खियाँ' नंग–धड़ंग बच्चे' कीड़ों की माफिक रेंगते और जमीन पर इधर उधर पड़ी गर्द उठा कर खाते हुए। वे दिन रात रोते सुबुकते थे कीच भरी आँखों से टुकुर टुकुर ताकते थे। उन्हें देखने या पुचकारनेवाला कोई न था।

मोटे मोटे आँसू ज़ाहिरा की कमीज़ को तर कर रहे थे। लेकिन उसके सामने बैठी सरदारनी खुशी से नाच उठी थी और हाथ उठा कर अट्टाहस कर रही थी। उसका चेहरा रह रह कर रोशनी के कुब्बे सा चमक उठता था। उसने हाथों में फटा हुआ अमृतसरी ढोल ले रखा था जिसे वह सूखी डण्डी से पीटती थी और उससे बेसुरी आवाज़ पैदा होती धपड़ धप धपड़ धप...। ढोल की ताल पर वह धुन छेड़ रही थी'
'असी कुड़ी जांदी ए महलां विच ओ रब तेरा शुक्रिया...।'
'इस नर्क में किसी के लिए खुशी की क्या वजह हो सकती है... ।' जाहिरा सरदारनी को हैरानी से ताक रही थी।
'कोई बड़ा अमीर लेने आ रहा है इसकी बिटिया को। सुनते हैं उसके खुद की कोई औलाद नहीं और फिर बिटिया भी तो सुन्दर है। बगुले सी सफेद उस पर सुग्गे सी कंटीली नाक...' गुरप्रीत की पुतलियाँ रोशनी में चमक रही थीं।
'यह बहुत ही नेक बात है...।'

बाहर आसमान की नीली रंगत दूर क्षितिज में उगते सूरज की रश्मियों से जर्द सुनहरी होती दिख रही थी। ज़ाहिरा की दम तोड़ती रूह किसी अनजानी उम्मीद से दुबारा जी उठी। उसे लगा शाहीन के लिए भी कुछ ऐसा हो जाए तो बहुत अच्छा होगा। उसकी बेटी खूबसूरती में किसी से कुछ कम तो नहीं...यह सोचते ही उसकी पेशानी की भौंहें घमण्ड से तन गईं। जिस दिन गुरप्रीत कौर ने शाहीन को किताबें लाकर थमाईं और हलफ के हिज्जे याद कराए' ज़ाहिरा ने एकसाथ कई ख्वाब देख डाले थे। मगर शाहीन कुछ समय बाद उससे अलग हो जाएगी यह सोचकर उसकी रूह काँपती थी। गुरप्रीत कौर जेल में बच्चों को पढ़ाने का काम भी देखती थी। वह दिमागी तौर से सुलझी और समझदार औरत थी। खुदा की मेहरबानी से मीठा बोलती और सभी के दिलों को जीत लेती। उसकी नज़रों में शाहीन सबसे जहीन और होशियार दिमाग की लड़की थी।

'जाहिरा तू अपनी बिटिया की फिक्र छोड़ दे। यह कुछ पढ़ लिख जाएगी तो हरपिंदर की तरह किसी अमीर बेऔलाद के घर तेरी बिटिया की भी जुगाड़ लगा दूँगी। एक इंसान है मेरी नज़र में बख्शी सिंह। बहुत नेकदिल है शाहीन को हाथों हाथ मोती सा सम्भाल कर रखेगा।'
ज़ाहिरा को गुरप्रीत की बातें सुन कर तसल्ली मिली और दुखती रग को आराम।
'बिटिया कब तक पढ़ लिख जाएगी...।' ज़ाहिरा मासूमियत से पूछ बैठी।
'बस कल तक।' गुरप्रीत खिलखिला कर हँस पड़ी।

'देख आज बख्शी सिंह की चिट्टी आई है' कहता है उसकी तरफ से कोई परेशानी नहीं। उसकी बीवी भी बहुत नेकदिल है मैंने शाहीन की खूब तारीफें करी हैं उनसे। जब भी मिलते हैं शाहीन के बारे में पूछते हैं। दोनों ही तेरी बिटिया को जल्द से जल्द अपने साथ ले जाना चाहते हैं पर मैंने कह रखा है कि वे कुछ दिन और इन्तजार करें...।'

जाहिरा के पास बख्शी सिंह की चिठ्ठियों का ढेर जमा हो रहा था। उसका रोग भी दिन ब दिन सख्त होता जाता था। सस्ती दवाइयों का भयंकर रोग पर असर न होता था। चेहरा पीला पड़ रहा था और मशीन भी उसके कमज़ोर हाथों से न संभलती थीं। बेदम हो जब तब बिस्तर पर लुढ़क जाती। जेल की डॉक्टरनी ने ज़ाहिरा से कहा था, 'मेरा इलाज कभी चूकता नहीं... तुम ठीक हो कर कुछ ही दिनों में दौड़ पड़ोगी... देख लेना।'

फिर भी ज़ाहिरा की तबियत पर मुक्कमल असर होता कहीं नज़र नहीं आता था। बिमारियत शरीर के कोने–कोने में घुस चुकी थी। अक्सर बेख्याली में गुरप्रीत को अपने नज़दीक बुला कर बैठा लेती और उसके गदगदे हाथों को' पीली पड़ चुकी अपनी अँगुलियों से सहलाती। मुँह पर बस एक ही रट 'बच्ची को पढ़ा लिखा दे' बड़ा अहसान मानूँगी। तेरी मदद से किसी शरीफ़ इंसान की पनाह में पल जाएगी तो इस कैदखाने में भी जन्नत देख लूँगी...।'
गुरप्रीत हौले से मुस्कुरा देती जैसे कहती हो, 'तू बड़ी भोली है...।'

उसके ज़िद करने पर ज़ाहिरा सलाखों वाली खिड़की से बाहर झाँक कर उगते सूरज को देख लेती। आसमान का रंग गहरा नीला और उस पर छिटकती क्षीतिज में बिखरती उगते सूरज की सुनहरी रश्मियाँ उसका हौसला बुलन्द करतीं और वह अपने सारे गम चन्द लमहों के लिये भुला देती।

शाहीन की बाहरी दुनिया किताबों के रंगीन कागजों के भीतर तेजी से सिकुड़ रही थी। जंज़ीरी जिन्दगी का ही असर था कि अब किताबों के भीतर छपी कुत्ते और बिल्ली की तस्वीरों के बीच फर्क करना भी उसे बेहद मुश्किल जान पड़ता। गुरप्रीत की बाँहों पर पेन्सिल की नोकों से किए गए घाव अब भी दुखते थे। उस दिन शाहीन आधी रात में उठ कर गला फाड़ रोती रही थी, 'अब्बू मुझको ले चलो अम्मा संगीन दिल है मेरी बात नहीं मानती...।'

जेल में मिले धूल सने खैराती खिलौने एक आँख वाली कानी गुड़िया' टूटी बाजू वाला भालू जो मैला होने की वजह से खौफनाक नज़र आता था' उन सबसे शाहीन के नाज़ुक दिलो दिमाग पर बुरा असर होता। उसके भीतर छिपी बदआदमियती ही उभर रही थी जो वह जमीन पर रेंगती असहाय चिटियों को हथेलियों के बीच मसलती और ताली पीट पीट कर खुश होती। 'शाहीन तुम बहुत बिगड़ रही हो' सबसे लड़ती झगड़ती हो। तुम्हारी बदमिजाजी की शिकायत जब अम्मा से कहूँगी तब तुम बिल्कुल दुरूस्त हो जाओगी...।' गुरप्रीत ने शाहीन को झिड़का था। 'पहले मेरे अब्बू को ढूँढ कर ला दो' फिर कर देना शिकायत। मुझे तुम और अम्मा दोनों ही सख्त नापसन्द हैं। अब्बू से कह देना कि मुझे यहाँ से जल्द छुड़ाकर ले जाएँ...।' गुरप्रीत मन मसोस कर चुप रह गई।

उस दिन जेल के भीतर बहुत बड़ी गाड़ी आई। बैरक में भगदड़ मच गई। औरतें अपने जिगर के टुकड़ों से गले मिल कर रो रही थीं अपने सीनों से उन्हें भींच कर प्यार कर रही थीं। अपने कपड़े समेटने की उन्हें सुध न थी। वे तो बस बावलियों की तरह उनके पीछे दौड़ रही थीं जो बच्चों को बड़ी बेरहमी से गाड़ी में पटक रहे थे।

'शाहीन तो यतीमखाने नहीं जाएगी न। तुमने कहा था बख्शी सिंह उसको लेने आएगा...।' ज़ाहिरा ने शाहीन की फ्राक का बटन बन्द करते हुए सवाल किया। सितारों वाला रेशमी फ्राक शाहीन की उजली रंगत पर खूब फब रहा था। गुरप्रीत कैसे समझाती कि ख्याली इन्सानों के वजूद नहीं होते। वह यह भी नहीं कह सकती थी कि दिल रखने के लिए उसने मनगढंत कहानी कह दी थी,
'बख्शी सिंह रास्ते में मिल जाएगा तू फिजूल की चिन्ता बहुत करती है...।' गुरप्रीत ने मुस्कराने की कोशिश करी।

शाहीन बाकी बच्चों के साथ गाड़ी में चुपचाप बैठ गई। उसकी बड़ी बड़ी आँखें खुशी से छलक रही थीं। वह सोचती थी कि यहाँ से उसको अब्बू के घर ले जाया जाएगा। वहाँ पहुँच कर वह अम्मा की खूब शिकायत कहेगी। अब्बू के कन्धों पर खेलेगी और उनके संग गाड़ी में बैठ सैर को दूर जाएगी। उसने चिहुंकते हुए दोनों हाथों को हिलाया।

'बिटिया जा रही है...।' जाहिरा ने गुरप्रीत की ओर देखा। उसकी आखें आँसुओं से तर थीं पर चेहरे पर सुकून था।
गुरप्रीत को लगा कि वह फरेबी है अब तक वह कितनी ही बार ऐसे झूठ बोलती आई है और कब तक बोलती रहेगी। उसे अफसोस हो आया। खुद से नफरत हो उठी बिना कुछ कहे मुँह फेर लिया था उसने।

उधर जाहिरा ने सलाखों वाली खिड़की से झाँक कर देखा नीला आसमान' नारंगी रंग में तब्दील हो चुका था। वह हौले से उठी और कोने में पड़ा हुआ' फटा अमृतसरी ढोल जोर से पीट कर नाचने गाने लगी। ढोल की कर्कश आवाज़ सिर्फ गुरप्रीत ही सुन सकती थी।

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 ९ जुलाई २००४

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