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अक्सर वे खाने को लेकर ही अम्मा से उलझ पड़ते,
' अम्मा कुछ तो मुहल्ले वाले, नहीं तो नगर पालिका वाले जीने नहीं दे रहे, रही बची कसर तुम पूरी कर दे रही हो। तुमसे कितनी बार कहा है खाना तेल मसाले में मत पकाया करो सीधा सा उबाल दो या या भून दो। बीमार कर दोगी…बीमार।'

अम्मा का मूड जब अच्छा रहता तो अन्दर ही अन्दर उनके विदेश–प्रेम पर हँसती। नहीं तो पलट कर,
"नासपीटे…अमेरिका जा अमेरिका, तुम्हारा गुज़र बसर वहीं होगा। जब हमारा बनाया कढ़ी पनगोछवा याद आयेगा तब पछताना। देशी आबोहवा में देशी तरीका ही शरीर को मजबूत बनाता है। पनैल सब्जी और ब्रेड से कितने दिन चलेगा। तुम्हारी दीदी जब आती है तो दाल, दमालू, कढ़ी, कोफ्ता ही माँगती है।" बडबड़ाती अम्मा फिर रसोई में कुछ बनाने भूनने चल देती। उनका कहना था कि चौका में आग नहीं बुझनी चाहिये, बुझती है दरिद्रों के यहाँ पर।
"ठीक…ठीक है तुम यहीं पड़ी रहो, सडी गली में, जंक फूड खाओ और अस्वास्थ्यकर जीवन जियो। बतास वात पकडे ही है, गठिया जब पकड लेगा तब मेरी याद आयेगी। विटामिन मरा खाना ही यहाँ पर ज्यादातर लोग खाते है। इससे तो अच्छा है कि भोजन किया ही न जाए। मेरी बात आज नहीं कल समझ में आयेगी कल।" हमेशा ही वह ऐसा ही कुछ कह विषयान्तर कर देते। जब तक वह भारत में रहे भारत और भारतीयता को ही कोसते रहे।

मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कालेज से उन्होने सिविल में इंजीनियरिंग पास की थी। परन्तु विदेशी आर्कषण, वहाँ के प्रति सकारात्मक नज़रिया ही उन्हें यहाँ कोई रोज़गार नहीं अपनाने देता। अन्ततः जिद्द पूरी करने की ठान ही ली। रिश्ते बहुत आए। लड़की वही पसन्द की जो उच्च शिक्षित और शिक्षा रोज़गारोन्मुख हो ताकि युगल की मेहनत मशक्कत से गृहस्थी चले बढे। अन्यथा इकलौती कमाई से गृहस्थी घसीटी ही जा पायेगी। कुछेक प्रवासी भारतीयों के बदहाल किस्से उनके जेहन में थे। वह शादी कर अपनी दीदी के पास अमेरिका के खूबसूरत शहर लॉस एंजिल्स में जा बसे थे।
जब तक सुशील शिखा ने अपनी छत होने तक नहीं कमा लिया, वहीं दीदी के पास ही डटे रहे थे। कम संघर्ष करना पड़े हासिल ज्यादा हो ऐसी उनकी फितरत थी। कुद.रत के साथ–साथ उनकी दीदी ने भी बड़ा सहयोग किया था। जब तब प्रवासी भारतीयों से मुलाकाते, उनके संघर्ष को घटाती रही थी। अब वह दोनो केलिफोर्निया के एक छोटे से शहर में अपनी आमदनी के अनुरूप व्यस्थित हो गये थे।

विलग हुये बिना प्रेम की गहराई को नहीं आँका जा सकता। उनके भारत भ्रमण से वह भी जल्दी–जल्दी साफ दिखायी दे रहे था। यह उनका दस बर्षो में चौथा चक्कर है। पहला चक्कर ठीक आठ वर्ष बाद लगा था। उसका भी एक कारण था। पहले छत…वाहन…गृहस्थी बटोरना फिर आने जाने का भाड़ा। साथ ही भारत में बसे रिस्तेदारों मित्रो के लिये यथायोग्य उपहारों का जुगाड़ करना। उपहार की दरकार हर रिश्तेदार को होती ही होती है। भारत में रहते हुये विदेशी उपहारो का आकर्षण इतना अधिक कि उसके बिना रिश्ता बेमानी है।

इस बार वह अपनी अमेरिका केलिफोर्निया में जन्मी दोनो बेटियों तनु मनु को भी लाए है। शायद उनका जन्म दिन मनाएँगे, यहाँ, भारत में, अपने लोगो के बीच। उन्हें वहाँ अपनत्व और आर्शीवाद की कमी हमेशा सालती रही थी। हालाँकि जब तक यहाँ रहे शादी जैसी संस्था को ही नकारते रहे, खासतौर से इण्डियन कमिटमेंन्ट। लिव टुगेदर में उनका अच्छा खासा विश्वास था। शादीशुदा मर्दो को कोल्हू का बैल कहते। साथ ही अपनी खीझ कुछ ऐसे उतारते, "जीवन में जवानी का आगमन गृहस्थी के पचड़ो में पडने के लिये नहीं होता, जवानी का मतलब तीन तिराहे आराम, आनन्द, अरमानो का तिराहा है।" स्वतन्त्रता, स्वछन्दता उनके जीवन का अहम पहलू था। परन्तु वहाँ की असलियत से रूबरू हो के पहिले ही उन्होने शादी करना उचित समझा था।

जब मैं उनसे मिलने पहुँचा शाम के झह बज रहे थे। "सुशील अभी तक दैनिक कार्यो को सम्पन्न करने में लगे हैं," उनकी डाक्टरेट पत्नी ने बताया।
"इस वक्त नहा रहे हैं," आश्चर्य के साथ जिज्ञासावश पूछा।
' या…।' संक्षिप्त सा उत्तर। वह हर बार बात में हाँ को या से उत्तर दे रही थी, सुनने में अच्छा भी लग रहा परन्तु अजीब सा भी। अभी तक तो खाँटी इंगलिश स्कूलों में या फिर इंजीनियरिंग कालेजों में अमेरिकन बयार छन छन कर पहुँच रही थी, यहाँ पर तो सन्द्र बयार बह रही थी। वह अमेरिकन रंग में पगी हुयी लग रही थी। शादी के वक्त कमर तक लटकते बाल, इस वक्त विलायती अंदाज़ में कटे ग्रीवा तक ही रह गये थे। मालूम होता था कुछ हिस्सों में कंघी की गयी, कुछ हिस्सों को छोड दिया। भारतीयता की झलक दिखाने की वह पूरी कोशिश कर डाली थी लेकिन अमेरिकी लहजे. के शब्द उनकी जु.बान से फिसलते रहे थे।

अब तक वह नहाकर आ चुके थे। नहाने के बाद उनकी काया बेहद गोरी और चिकनी लग रही थी। बिना सकारात्मक टिप्पणी के रहा नहीं गया।
'वाह आप तो अमेरिकन्स में खप गये होंगे '।
'अरे नहीं काले कितने भी गोरे हो जाएँ रहेंगे काले ही।'
उनका वह जवाब असलियत से भरपूर था। परन्तु नस्ली भेद भाव की पीडा, विवशता की रेखाएँ साफ झलक रही थी। उनका गोरापन और शारीरिक संरचना वहाँ पहुँचकर सब बेमानी हो गये थे। यह उन्होने वहाँ रहते और नौकरी ढूँढते हुए जाना था। उस विवशता पर उनका वश नहीं चल पा रहा था। उपेक्षा उलाहना सहना उनकी शख्सित में शामिल ही नहीं था। इलाहाबाद में कुछ घोषित अघोषित बिजली कटौती के कारण पानी की किल्लत हुयी थी, शायद शाम का सुरक्षित समय ही नहाने–धोने के लिये चुना था। मैं बैठा बैठा यही सोच रहा था तभी सुशील मुस्कुराते हुए नमूदार हुए। अभिवादन में उन पर अंकल सैम का असर नहीं हुआ था यह देख कर अच्छा ही लगा।


"सुशील जी इस समय घोर ठंडक में, वह भी शाम के वक्त नहा रहे थे, ठंड लग जायेगी।" मैने कहा। अपनत्व जताने या सच पूछें तो बात शुरू करने की सटीक वजह नहीं मिल पा रही थी।
"अरे भइया, यह तो मेरा रूटीन ही है।" उनके आत्मीय सम्बोधन से मुझे अपनत्व जतलाना बौना लगा।
"तो क्या आप वहाँ शाम को नहाते हो?" चाहकर भी उन्हें 'तुम' न कह पाया था।
"नहीं, नहीं, भारत से केलिफोर्निया के मध्य बारह घंटे का समयान्तराल है। दस दिनों के लिए रूटीन नहीं बदलना चाहता.। यहाँ पर शाम है, तो वहाँ भोर हो रही होगी। वहाँ पर इस समय नहाया और ऑफिस चला गया।"

दिनचर्या को लिये उनके मन में न उलाहना थी न उकताहट। सिर्फ बच्चिया ही नहीं एडजस्ट हो पा रही थी। बारह घंटे का अन्तर उनकी दिनचर्या पर हावी था। आदतन दिन में सोना चाहतीं, रात में जागने का कोई औचित्य नहीं था, ना ही उचित था। सारी दिनचर्या अमेरिका की। भारत में कहाँ समंजस्य बिठा पातीं? उनींदेपन से बच्चियाँ सहज नहीं दिख रही थी। उनसे बार बार कहा जाता आगन्तुक को अभिवादन हाथ जोड कर करो, पर वह कुछ समझ नहीं पा रही थी। अमेरिकी ढँग सुशील को यहाँ पर पसन्द नहीं, भारतीय ढँग की उन्हें समझ नहीं। शिखा को इन व्यर्थ की बहसों में कोई रूचि नहीं थी। इससे वह काफी नाखुश और चिड़चिड़ी सी लग रही थी।

"तनु–मनु को लाने में यही समस्या है। मैं और शिखा तो टाइम मैनेज कर लेते हैं। जब तक ये रूटीन बदलेंगी तब तक हमारी वापसी हो जायेगी।"
इस वक्त एक पिता की जिम्मेदारी उनमें साफ दिखायी दे रही थी। जिसको कि न चाहते हुए भी उन्होने बखूबी. से ओढा था।
"शादी…बच्चे…ओफ्फ…नो…नेवर, इण्डिया में ही सारे बन्धन हैं। सभी एक दूसरे के चक्कर में परेशान रहते हैं। अपना निजी ढँग कुछ भी नहीं होता। आप पर हमेशा दूसरों की सोंच लादी जाती है, सूट करे या न करे।" ऐसी बयान बाजी वह अपनी अम्मा के आगे करते रहे थे। ऐसा तब होता जब कोई उन्हें व्यवस्थित होने के लिए टोकता।

मैं उनकी फिर वापसी की उस इच्छा को ईमानदारी से जानना चाह रहा था, जिसे उन्होने पिछले वर्ष जाने से पहले कहा था,
"जा तो रहा हूँ कैसा भी हो इण्डिया, है अपना ही देश कमा के वापस यहीं आ जाऊँगा और आकर अपना स्कूल खोलूँगा।"

उनके इस भारत प्रेम पर मैने सोचा, शायद समय के साथ साथ उद्देश्य–ऊष्मा परिवर्तित हो जाती है। उन्होने अमेरिकी जीवन को भी बड़ी ही तटस्थता से देखा था। इन दस वर्षो में उन्हें यकीन हो चला था, सभ्यता–संस्कृति एवं समय की भिन्नता कोई अर्थ नहीं रखती। यहाँ भी वे ही इन्सान हैं उनकी आदतें वही हैं, वही कुंठा, वही त्रास, वही अशिक्षा–गरीबी। अशिक्षा और गरीबी से उत्पन्न असमर्थता और उसके साथ अव्यवस्था की जलालत और जहालत।

एक वाक्या जिसे वह पिछली बार आये थे तो सुना गये थे। उनकी दीदी के सास–ससुर आए थे, ऐसा मानकर कि अमेरिका की आब–ओ–हवा में दुरूस्त हो जाऊँगा साथ में अच्छे काबिल डाक्टरों से इलाज भी हो जायेगा। उन्होने अपनी व्यस्ततम जीवन शैली में अपने बच्चों से सहयोग माँगा था। बच्चों का टका सा जवाब, 'मॉम इटस योर प्राब्लम, आए हैव नो टाइम फॉर ओल्ड एन्ड बोगस पर्सन। इटस योर प्राब्लम एन्ड यू गुड मैनेज इट।' सुशील का मन भविष्य की आशंका से काँप गया था, उस अमेरिकी दर्शन से जिसमें भोग और भोग के अलावा न कुछ वह जानता है न जानना चाहता है।अमेरिकी जीवन शैली के पंजो के नाखून भारतीयों को भी लहूलुहान कर रहे हैं। मैं कितने दिन इससे बचा रह पाऊँगा। उनकी पत्नी शिखा ऑरगेनिक कैमिेस्ट्री से डाक्टरेट थी, जाहिर है अच्छी नौकरी होगी पैसा भी अच्छा ही मिलता होगा।

"शिखा आप वहाँ पर लैब में हो या टीचिंग जॉब में?" मैंने चुप्पी तोडने के लिए बात निकाल ली थी।
"यहाँ से सोचकर तो यही गयी थी लेकिन कैमिस्ट्री के लिए वहाँ जॉब काफी कम है। जो है भी उसमें वहीं के लोगो को प्राथमिकता दी जाती है। यहाँ से गयी थी, कमाना तो था ही, कम्प्यूटर वर्क कर रही हूँ।" वहाँ पर रहने की बेबसी, नस्लवाद की पीड़ा ये सब उनका चेहरा बयान कर रहा था।

वह दोनो पति–पत्नी दो अलग अलग शिफ्टों में काम करते। तब कहीं जाकर स्टेटस हासिल कर पाए थे। सप्ताहांत में ही वे दोनो एक दूसरे को देख–बोल पाते। बच्चियाँ आया के भरोसे पल–बढ रही थी। लेकिन सुशील पक्का इरादा कर बैठे थे, बेटियाँ अब यहीं इण्डिया में ही पढें–बढें।

"सुशील जी, कल आपकी रवानगी है यहाँ पर सेटेलमेंन्ट का इरादा क्या छोडा दिया है?" मौका देख मैने सुशील से पूछ लिया।
" हाँ…हाँ यही समय की माँग है। तनु–मनु को अलबत्ता यहीं पर रखूँगा, अम्मा के पास। यहाँ के अगले शैक्षणिक सत्र से, तब तक बेटियों को अच्छी तरीके से कन्वेन्स कर लूँगा।"
"परन्तु बच्चियों को ही क्यों यहाँ पर रखना चाहते हैं। छोटी है, इतनी दूर रखने का इरादा . . ." मुझे कुछ अजीब सा लगा था।
"बचपन से ही भारतीय वातावरण में रहना सीखें तो अच्छा रहेगा अन्यथा विदेशी जीवनशैली की आदी हो जाने पर यहाँ पर रहने के लिए तैयार नहीं होंगी। दीदी के बच्चों ने तो इण्डिया प्रस्ताव पर आत्महत्या तक की धमकी दे डाली थी।" कहते हुये सुशील काफी परेशान से लग रहे थे।
"परन्तु क्या यह उचित और सही होगा?" मैने पूछा
"वहाँ की सतही संकल्पहीन संस्कृति में बच्चियाँ न तो इण्डियन ही रह पायेंगी ना ही अमेरिकन बन पायेंगी। हमारी छतरी इतनी मोटी नहीं कि इन्हे सांस्कृतिक प्रदूषण से रोक सके। इस उम्र में अब हम दोनो पति–पत्नी यहाँ पर आर्थिक रूप से तो खड़े हो नहीं सकते, सड़क पर आ जायेंगे। जब तक शारीरिक क्षमताएँ हैं वहीं रहूँगा। तनु–मनु को ही मानसिक रूप से तैयार कर रहा हूँ। जो अनजाने में भूलवश कुछ जिद्दवश मैने गँवाया, मेरी ये नन्ही बेहद बौद्धिक बेटियाँ न गँवाए।" कह एक लम्बी साँस ली थी।

सजी सँवरी गुडिया जैसी बच्चियाँ अपने डैडी का मुँह ताक रही थीं, शायद हिन्दी बिल्कुल भी नहीं समझ पा रही थीं। वे समझतीं भी कैसे। माता पिता में अमेरिकियों के समानान्तर रहने की ललक जो ठहरी। बच्चों को हिन्दी सिखाने का समय उनके पास कहाँ था? पर इस बार वह अपने निर्णय और समस्या निराकरण पर काफ़ी गम्भीर लग रहे थे। अपनी मिट्टी से दूर रहने पर उनमें काफी. परिपक्वता आगयी थी। हम लोग उनकी सद इच्छा और संकल्प को शुभकामनाएँ देकर लौट आए।

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२४ फरवरी २००४

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