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शिवली को अपनी उम्र के बारे में सोचते हुए विद्रूप सी हँसी आ गई। क्या फर्क पड़ता है पाँच साल घटा देने से? तैयार होते–होते साड़ी बाँधते–बाँधते पूरे पाँच बज गए, फटाफट पैरों में सैंडिल बाँध एक कप चाय खत्म की और चल दी स्टेशन की ओर जाने वाले आटो को पकड़ने...।

रेलवे स्टेशन जाने वाले रास्ते का जर्रा–जर्रा उसे याद हो गया है, स्टेशन ही क्यों बल्कि कई साथ जाते लोगों के चेहरे भी नहीं भूल सकती वह तो। रोज अप–डाउन करने वाले इन यात्रियों को एम.एस.टी. पैसेन्जर्स कहा जाता है। तभी तो यदि थोड़ी बहुत किसी को देर हो जाए तो गाड़ी की चेन खींच दी जाती है। शिवली के पास रहता है एक लेडीज बड़ा सा पर्स, थोड़े से सामान, टिफिन बाक्स और बस रुपये...यही कोई चार सौ–पाँच सौ। सचमुच! सभी को समय पर पहुँचने की हड़बड़ी मची रहती है। दौड़ते–भागते आते कुछ लोगों के पास सामान के नाम पर कुछ भी नहीं रहता बस रेलवे का दिया हुआ पास और मतलब भर के रूपये जो अक्सर उनके पैण्ट में ही रहते हैं। ज्यादातर लोग खाली हाथ दौड़ते चले आते हैं। उनके चेहरों पर ताजगी गायब रहती है। इनमें से कुछेक बैंक अधिकारी्रकर्मचारी हैं तो कुछ नगरमहापालिका में नौकरी करने वाले, और वह थोड़ी थुलथुल सी सांवले रंग की वयस्क महिला आकाशवाणी में हैं। हाँ, कुछ बड़े अधिकारी वर्ग के लोग अपने साथ अटैची लिए हुए चलते हैं...इन्हें देख कर हँसी आ जाती है शिवली को...ज्यादातर गंजे, थुलथुल शरीर पर कसे हुए हैं पैण्ट शर्ट और आँखों पर मोटा–सा चश्मा ले
किन महिलाओं से जरूर इज्जत से पेश आते हैं। कुछ मेंडिकल रिप्रैजेन्टेटिव लोग हैं – ये भी स्मार्ट बने–ठने और अंग्रेजी बोलने वालों की श्रेणी में आते हैं।

– "मैडम, स्टेशन आ गया...।"
"आँ...हाँ..." कहते हुए शिवली ने पाँच रूपये का नोट आटो वाले को थमाया और तेज–तेज कदम बढ़ाते हुए स्टेशन की ओर मुखातिब होने लगी। प्लेटफार्म की ओर तेजी से कदम बढ़ाती हुई शिवली के पास से गुजरते किसी बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा – "बिटिया, दिल्ली जाने वाली ट्रेन कहाँ से मिलेगी?" "पता नहीं..." कहकर वह आगे बढ़ गई। फिर सोचा क्या पता कौन था...मुझे उन्हें दिल्ली वाली ट्रेन के बारे में बता देना चाहिए था...। "चलो होगा कोई" कहकर उसने सिर झटक दिया।

आज ट्रेन में भीड़ बहुत है...हजारों की संख्या में तो एम.एस.टी. वाले ही हैं, ऊपर से थ्री टियर में बैठने वाले – लगता है इसके बाद जाने वाली ट्रेन लेट है।

"मैडम आइए न"...किसी परिचित चेहरे ने शिवली से कहा और वहीं जाकर बैठ गई वह।
"आज इतनी भीड़ क्यों है?"...फिर तरह–तरह के लोग भीड़ और ट्रेन पर तरह–तरह की बातें करने लगे। गार्ड ने हरी झंडी दिखा दी और १० मिनट के अन्दर ही ट्रेन चल दी। अब शिवली अपने बारे में ही सोचने लगी...सामने वाले सुन्दर–स्मार्ट से लड़के को देखकर वह दिल्ली में मिले नवनीत के बारे में सोचने लगी...देखने में कितना सोबर, शान्त, गम्भीर व्यक्तित्व वाला था वह। ऑफिस में अचानक टकरा गया था उससे। 'मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव' के रूप में परिचय दिया था उसने। शिवली और उसकी दोस्ती बस कुछ ही महीने चल पाई कि एक सड़क दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई...शिवली ने दीर्घ साँस छोड़ी और इस अप्रिय प्रसंग को दिमाग से दूर करने के लिए सामने की बर्थ पर बैठे लोगों की तरफ देखने लगी।

कुछ तो जोर–शोर से राजनीति पर बहस करने में जुटे हैं...चुनाव, महँगाई, बच्चों की पढ़ाई पर होने वाले खर्चों...वगैरह पर चर्चा कर रहे हैं, तो कुछ लोग पेपर पर कुछ न कुछ लिख रहे हैं। हर समूह में पाँच-सात लोग हैं। उस समूह में शायद कोई खेल चल रहा है। बगल वाली सीट पर बैठे हुए दो सज्जन शायद उपन्यास वगैरह पढ़ रहे हैं, इन्हें दुनिया–जहान की समस्याओं से ज्यादा लेना–देना है नहीं। इनके भावशून्य चेहरों को देखकर यही लगता है। गेट के पास कुछ मनचले टाइप के लड़कों का समूह जोर–जोर से गाना गाते हुए किसी बक्सेनुमा चीज को बजाने में मग्न है...उनकी अन्त्याक्षरी जो चल रही है।

ऊपर वाली बर्थ पर वरिष्ठ अधिकारीनुमा दिखने वाले दो सज्जन आपस में ताश खेलने में निमग्न हैं। टायलेट की तरफ जाते हुए शिवली को भीड़ की वजह से काफी मशक्कत करनी पड़ी,...यहाँ रास्ते में कुछ चपरासी टाइप के लोग लाटरी खेलने में रस ले रहे हैं। वही बगल में एक बुजुर्ग सफेद बालों वाली महिला बगल वाली महिला से कुछ बातें कर रही हैं और उसकी सह–यात्री महिला जल्दी–जल्दी स्वेटर की बुनाई करने में निमग्न है, सभी ने अपने–अपने को व्यस्त कर रखा है यह डेढ़–दो घण्टे पास करने के लिए।

अचानक ट्रेन धीमी होते–होते रूक गई, शायद कोई स्टेशन था...यहाँ भी दूर खेतों से लोग दौड़े चले आ रहे हैं ट्रेन पकड़ने के लिए...। सभी को हड़बड़ी है समय पर पहुँचने की। समय–चक्र तो अपनी गति से चलता ही रहता है...। बस लोग हैं कि उसे नियत क्रम में बाँधकर अपने–अनुसार सेट कर लेते हैं। इनकी चुस्ती–फुर्ती देखकर शिवली सोचने लगती है..."सचमुच। इस महादेश में सभी रोजी–रोटी के लिए ही तो जी–तोड़ श्रम करते हैं..., सभी को मनोनुकूल जीविकोपार्जन के साधन नहीं मिलते–फिर भी इस रेस में सभी दौड़ रहे हैं...आखिर पैसों की खातिर ही न?"

धीमे–धीमे ट्रेन सरकने लगी और अभी गति पकड़ी ही थी कि अचानक ट्रेन रूक गई...।
"लगता है चेन पुलिंग है...कोई साथी छूट गया होगा..."
"हाँ, हाँ, कुछ ऐसे स्टेशन हैं कि जब तक सारे लोग न आ जाएँ, ट्रेन जा ही नहीं सकती..."
इसी में कुछ लोग नीचे उतरकर देखने लगे कि क्या माजरा है। कुछ लोगों को सिगरेट और तम्बाकू का चस्का लेने का मन करने लगता है...। सर्दी का मौसम होने से ठण्डी हवा बदन में चुभ रही थी, इसलिए लेडीज अपने–अपने शॉलोंको कसकर लपेटती जाती हैं और पुरूष मफलर कान से बाँध रहे हैं। कुछ मनचले लड़के ही–ही, ठी–ठी कर रहे हैं...। अब लोग ट्रेन में चढ़ने लगे हैं, क्रमशः ट्रेन ने गति पकड़ ली है।

ट्रेन के गति पकड़ते ही शिवली का मन भी किसी अनजान सी दिशा में उड़ता जा रहा है। बचपन में पापा के साथ के मनोरम पल कितने अल्पजीवी रहे। पापा उसे डाक्टर बनाना चाह रहे थे, किन्तु बेटे की असामायिक मौत ने उन्हें तोड़कर रख दिया था। दिनों–दिन कमजोर होते पापा एक दिन हमेशा के लिए चले गए और फिर यहीं से सिलसिला शुरू होता है – माँ का नौकरी करना और शिवली का छोटी दो बहनों को संभालना, पढ़ाना और एक तरह से पूरी देख–रेख। असमय ही समझदार होती चली गई वह। पढ़ने में तेज तो वह पहले से ही थी, इसलिए ग्रेजुएशन के बाद कम्पटीशन में लगातार
बैठती गई। शायद अच्छी किस्मत का कमाल था कि उसे वक्त पर पी.आर.ओ. की ठीक–ठाक नौकरी मिल गई। माँ बेचारी शादी के लिए खूब–खूब परेशान रहती। अखबारों में विज्ञापनों वाली जगहों पर निशान लगाती और चिठ्ठी पत्री भेजती रहती। शादी करने की प्रबल इच्छा थी मेरी माँ के अन्दर...।

तभी टिकट चेकर आता है और सभी लोग अपने अपने पास, रिजर्वेशन टिकट वगैरह दिखाने लगते हैं...उसी समय बिना टिकट वाले लोग इधर–उधर खिसकने लगते हैं...जिन्हें शीघ्र ही पकड़ लिया जाता है। एम.एस.टी. वाले इस मामले में बिल्कुल एक हो जाते हैं और सब लोग आपस में चन्दा करके पेनाल्टी देकर मामला सुलझा लेते हैं। थोड़ी देर बाद ट्रेन में फिर से वैसा ही माहौल छा जाता है – कोई मूँगफल्ली खा रहा है तो कोई खिड़की से बाहर झाँकता हुआ अपनी सोच में व्यवधान नहीं डालना चाहता...। एक शिवली है जो चाहे–अनचाहे अपने अतीत के पन्नों को ही उधेड़ती रहती है, अनजाने में ही सुदर्शन का चेहरा शिवली की आँखों में तैर जाता है...।

सुदर्शन यानि शिवाली का पति...अखबार में प्रकाशित विज्ञापन के द्वारा उससे सम्पर्क जुड़ा। सुदर्शन स्वयं घर आया था...उससे मिला और ढेर सारी बातें की। लम्बा इकहरा बदन, जीवंतता से लबालब भरी उसकी बातें और फिर क्या था...। देखते ही देखते परिचय दोस्ती में बदल गया। सुदर्शन सचमुच ही सुदर्शन व्यक्तित्त्व का मालिक था। साफ गोरा रंग, चौड़ा माथा और राजनैतिक सामाजिक मुद्दों पर आत्मविश्वास पूर्ण तरीके से की गई बातें बरबस ही मन मोह लेती थीं। शिवली को लगा – उसे जीवन में ऐसा ही पुरूष चाहिए था। उदार और विशाल हृदय वाला सुदर्शन सबसे खुलकर बोलता
था...शिवली को लगा उसके सपनों का राजकुमार इससे कमतर था। बस चन्द दिनों बाद ही शिवली की शादी सुदर्शन से कर दी गई।

"मैडम, स्टेशन आनेवाला है...आपको यहीं उतरना है न?" पास वाले सज्जन ने शिवली से कहा।
"आँ...हाँ..." शिवली ने घड़ी देखी...सचमुच टाइम का जैसे पता ही नहीं चल सका..., उसका मन किसी और ही दिशा में भ्रमण कर रहा था। जीवन के रास्तों पर चलते हुए हमें अपना रास्ता खुद–ब–खुद बनाना पड़ता है और पैदा करनी होती है जिजीविषा...जिसमें पता ही न चले कि कांटों की चुभन में भी मोहकता है, रास्ते का हर बड़ा पत्थर भी संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। और शिवली को बनना होगा एक ऐसी ही सम्पूर्ण नारी जो जरा भी कठोरता में दबे न – जरा सी तपिश में मुरझा न सके...। आँखों में उमड़ आए आँसुओं की बाढ़ को थामें हुए शिवाली ने रेल के डिब्बे, डिब्बे में बैठे हुए सामान संभालते लोगों के चेहरों को ध्यान से देखा...। फिर बाहर की तरफ देखा, सबेरे का उजाला चारों तरफ फैल गया था...सभी सक्रिय होकर अपने कार्यस्थल की ओर जाने लगे...। स्टेशन से बाहर निकलकर शिवली ने एक रिक्शे वाले को आवाज दी
और अपने गन्तव्य की ओर मुड़ गई।

दिन भर ऑफिस के कार्य को निबटाते, लोगों की समस्याएँ सुनते और निर्धारित समय पर वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात करते हुए शाम के छह बज गए। उसके कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारी...जिनके बारे में सोचकर मन कसैला सा हो जाता है...किस तरह से किन बातों को उसके सामने कहते हैं। चापलूसी करने वालों को छोड़ भी दें तो १–२ साल बाद रिटायर होने वाले ऊपर से सौम्य, सभ्य दिखने वाले संयुक्त सचिव स्तर के लोगों में भी कितना छिछोरापन और घटियापन भरा है, सोचकर ही पुरूष जाति के प्रति शिवली का मन कड़वा हो उठता है। कुछेक लोग ही अच्छे संस्कारी और
सचमुच के मददगार होते हैं वरना अधिकांश नजरों में कामुकता भरी होती हैं और जरा सा मौका मिलते ही वे अपनी नीच हरकतों से...उफ। चलना चाहिए अब...। पुनः स्टेशन की ओर चल देती है शिवली – थका, शरीर और भारी मन लिए हुए। तो आज का दिन यूँ बीत गया लेकिन २–३ घंटे उसे अभी और झेलने होंगे ट्रेन यात्रा के, शिवली ने सोचा।

चारों तरफ रोशनियाँ बिखर गई थीं। सड़क पर जलती रौशनी ने रात के अंधकार को प्रकाश में बदल दिया था। अभी थोड़ी देर बाद ही आसमान में तारे भी झिलमिलाने लगेंगे। बाहर के अंधकार को प्रकाश में बदला जा सकता है परन्तु क्या कोई किसी के मन के अंधकार को प्रकाश में परिणत कर सकता है? क्यों दुखों, परेशानियों, कठिनाइयों को लोग नियति की देन कहकर संतुष्ट हो लेते हैं और वह खुद क्यों इतनी मार्मिक होने का स्वांग करती है...। क्यों नहीं औरों की तरह 'भाग्य में यही बदा था' सोच लेती...काश ऐसा सोच पाती शिवली। वह तो स्थितियों–परिस्थितियों की कार्य–कारण समीक्षा करके ही चैन लेती है।...अत्याधुनिक 'सोच' और समझ से लैस नारी है न? 'सचमुच...'

उसने सोचा भीड़–भाड़, चिल्ल–पों और शोर–गुल की अभ्यस्त सी हो गई हैं वह। स्टेशन पर आकर टेम्पो रुक गया...उसने पैसे दिए और यंत्रवत उसके कदम प्लेटफार्म की तरफ बढ़ने लगे। सचमुच, जीवन भी किसी प्लेटफार्म से कम नहीं है... ट्रेन के चलते पहिए...समय की सुइयों पर टिकी जीवन शैली और दूरियाँ नाप रही रेलगाड़ियाँ। अनायास ही उसकी नज़र उन प्रौढ़, गंजे लेकिन लंबे से सज्जन पर पड़ती है...लौटते वक्त इनका चेहरा कितना तनावमुक्त सा दिख रहा है, जबकि सुबह यही सज्जन बार–बार घड़ी देखते हुए बेचैनी से चहलकदमी करते घूम रहे थे। ट्रेन जाने के लिए प्लेटफार्म पर लगी थी लेकिन जाने वाले ज्यादातर लोग बाहर ही चहलकदमी कर रहे थे... यानि लगता है ट्रेन चलने में देर है... चलो अन्दर च
लकर बैठते हैं, शिवली ने सोचा और अन्दर बैठकर पत्रिका के पन्ने पलटने लगी।

खिड़की से झाँककर देखा तो सहकर्मियों के कई समूह इसी विचार–विमर्श में लगे हैं कि ट्रेन चलने में देर क्यों हो रही है। कुछ लोग, गार्ड को देखने गए हैं तो कुछ स्टेशन मास्टर से मिलने गए हैं... कुछ लोग ड्राइवर को ढूंढ़ रहे हैं...लोग ट्रेन न चलने के कारणों की विवेचना में लगे हुए हैं – "अरे...जरा ये तो देखो कि इंजिन जुड़ा कि नहीं? लगता है ब्रेक जाम है...ब्रेक रिलीज ही नहीं हो रहा – वैक्यूम नहीं बन रहा है...शायद लाइन खराब है – – यार! देखो तो आगे मालगाड़ी फंसी हुई है...जाने वालों के चेहरों पर बेचैनी के भाव साफ नज़र आ रहे हैं...तभी पीछे से किसी की आवाज सुनाई देती है, "गार्ड का बक्सा आया कि नहीं?"

शिवली को रोजमर्रा की ये तमाम बातें याद सी हो गई हैं। एक बार बिना गार्ड के गाड़ी चल दी...शायद चार्ज लेने में टाइम हो रहा था। और एक बार लेट होने पर किसी ने हरा कपड़ा ही दिखा दिया। कुछ लोग तो गप–शप में तल्लीन हैं तथा कुछ
लोगों को जाने की जल्दी है और वे इधर–उधर भाग–दौड़ करके पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि ट्रेन कब चलेगी।

लेडीज यात्री चुपचाप अपनी–अपनी सीटों पर बैठी हुई अपना–अपना स्वेटर बुनने में तल्लीन हैं या फिर बच्चों और पति की समस्याओं से जुड़ी बातचीत में। बच्चों के अच्छे स्कूलों में एडमीशन की समस्या पर भी बातचीत दिलचस्प लगती है...तभी ट्रेन के चलने का संकेत मिलता है और जाने वालों में हड़बड़ी मच जाती है... बाहर खिड़की से ही कोई रूमाल, अटैची, पेपर या तौलिया वगैरह सीट पर कब्जा करने के लिए डाल देता है। अगर उनकी सीट पर कोई कैजुअल पैसेन्जर बैठ गया तो मार–पिटाई तक की नौबत आ जाती है लेकिन एम.एस.टी. वालों से कोई भी पंगा नहीं लेता – "बैठो यार
बैठो...कोई बात नहीं" कहकर एडजस्टमेंण्ट कर लिया जाता है।

सामने वाले लड़के को देखकर शिवली सोचने लगती है – सुदर्शन का व्यक्तित्व इससे काफी मिलता है...' न चाहते हुए भी सुदर्शन के बारे में सोचते रहना शायद उसका अतीतजीवी होना ही है। शादी के बाद चन्द महीने ही तो ठीक से हँसी–खुशी बीते थे कि अचानक एक दिन एक वृद्ध महिला उस सनसनीखेज घटना के बारे में बताती है कि सुदर्शन की तो शादी हो चुकी है... शादी के समय खिंचवाये गए सुदर्शन और वृद्धा की लड़की के फोटो इसे दिखाए जाते हैं। एक पल को तो उसे विश्वास नहीं होता – "नहीं ऐसा नहीं हो सकता...ऐसा नहीं हो सकता' अश्रुविगलित आँखों से वह चीख पड़ती है। सर्दी के मौसम में भी चेहरा पसीने से तर–बतर हो जाता है। उस वक्त वह सुदर्शन के आफिस में फोन मिलाती है..."सुदर्शन किसी जरूरी कार्य से बाहर गया हुआ है" जवाब मिलता है...।

गुस्से की ज्यादती में वह कमरे की हर चीज उठाकर फेंकने लगती है...कहाँ जाए क्या करें वह? प्रश्नाकुल मनःस्थिति में वह इधर–उधर कई जगह फोन मिलाती है...उसकी माँ शाम तक आ जाती है। भावुकता की अतिशयता में उसकी कुछ भी समझ में नहीं आता कि क्या किया जा सकता है? यूँ अचानक नियति उसे कहाँ से कहाँ ला पटकती है? इस पर किसी का कोई वश नहीं, कोई कुछ नहीं कर सकता। जीवन एक बार फिर अस्त–व्यस्त, त्रस्त और संत्रस्त होता चला जाता है।
सब कुछ कितना क्षणिक और अल्पजीवी रहा... कितनी वेदना और मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजरकर भी जीवित रह जाता है इंसान।

और इसके बाद सिलसिला शुरू हो जाता है – अकेलेपन में उदासी की गहरी परतें...किस्मत के निर्णय पर अफसोस और अवसाद में डूबता मन... सुदर्शन उसके किसी भी प्रश्न का कोई भी उत्तर ठीक से नहीं दे पाया। "क्या इसी प्रताड़ना के लिए इतने रंगीन सपने बुने थे हमने?" अन्दर धधकते हुए ज्वालामुखी पर काबू करना मुश्किल हो रहा था तो माँ मुझे अपने पास ले आई। सब कुछ चुक गया मेरे अन्दर प्यार, विश्वास, भावनाएँ और लगाव...सामने वाले को अच्छी तरह से जानने का दावा करना कितना बड़ा मतिभ्रम है।

शायद यही कारण है कि इस त्रिकोण से शिवली बाहर निकल आई। स्वाभिमानी शिवली आजीविका के साधनों से लैस तो थी ही – सम्बन्धों के तार–तार हो जाने के बावजूद वह इन्हीं के गर्त-आवर्त में डूबती–उतराती रही...तिल–तिल करके जलती रही उस यातना भरे दौर में। सचमुच! जीवन जीना एक दुरूह और कठिन कार्य है...चुनौतियाँ हैं, संघर्ष भी हैं। और काँटों
भरी दुर्गम राहें भी, जिन पर चलने से आप लहूलुहान हो सकते हैं लेकिन अगर रास्ता वही हैं तो या तो आप चलना बंद कर दीजिए या फिर उसके ताप से बेखबर रहकर चलते रहिए... इसे ही नियति की विडम्बना मानकर जीने में क्या बुराई है?
उसकी दोस्त शुभि उसे घंटों समझाती रही थी।

"दिन पर दिन यूँ ही बीतते चले गये और हम प्रत्यक्षदर्शी बन कर मात्र स्थितियों का आकलन ही करते रहे...शिवली ने सोचा, तभी पास वाली महिला उससे पूछती है,
"मैडम आपके कितने बच्चे हैं?"
"बच्चे नहीं है मेरे..." शिवली ने तटस्थापूर्वक जवाब दिया।
"कल छुट्टी है न...तो मैंने सोचा आप दिनभर क्या करती होंगी..." उस सहभागी ने शिवली की तरफ देखकर पूछा।
"और आप क्या करती हैं?" बेमन से शिवली पूछ बैठती है।
"अरे बहिन जी मेरी जिन्दगी में मुझे मरने का भी टाइम नहीं मिल सकता...सोशल लाइफ तो बिल्कुल है ही नहीं हम दैनिक यात्रियों की... लेटनाइट प्रोग्राम अटैण्ड नहीं कर सकते...सुबह ट्रेन पकड़ने का टेंशन जो रहता है दिमाग में। कल तो
मैं अपने भतीजे की शादी भी ठीक से इन्ज्वाय नहीं कर पायी। बच्चों की बीमारियों वगैरह में ही सारी छुट्टियाँ शुरू के पाँच छह महीनों में ही खत्म हो जाती हैं।

साथ वाले सज्जन बीच में ही बोल पड़े, "आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं...। मेरी तो जब ट्रेन लेट हो जाती है तो मुझे छुट्टी लेनी पड़ती है। ऐसे में रसोई गैस लाना, फैमिली के साथ खरीदारी करना और बच्चों की किताबें कापियाँ वगैरह लाना...इन सब में ही पूरा दिन बीत जाता है।"

"भाई, सण्डे इवनिंग तो हम लोग घूमने निकलते हैं। लोग बाहर ही घूमते हैं, खाना खाते हैं, देर रात लौटते हैं," किसी नवयुवक ने कहा। हजारों की संख्या में हम दैनिक यात्रियों की दिनचर्या भी कितनी मशीनी है... लगता है हम बिल्कुल मशीन हो गये हैं, हम तो छुट्टी के दिन सपने में भी बस यही देखते हैं कि गाड़ी जा रही है, देखो छूटी जा रही है और हम पीछे–पीछे दौड़ लगा रहे हैं देखो–देखो चेन खींचो...पूरे पंद्रह साल हो गए हैं हमारे जीवन में अप–डाउन करते–करते।

सहयात्रियों की बातों को निर्विकार भाव से सुनती हुई शिवली सोचने लगती है – कितनी जल्दी समय सबको अपने ग्रास में ले लेता है और व्यक्ति चला जाता है इतिहास के साए में। बस यही है जीवन का मूल्य। वर्तमान को विगत बनने में देर ही कितनी लगती है...सचमुच, अब तो मेरे पास बाकी रह गई हैं स्मृतियों की धुंध लम्बी और दीर्घजीवी। जीवन जी पाना
कठोर यंत्रणा जैसी प्रक्रिया है। पग–पग पर भय, आशंकाएँ और दुश्चिंताएँ बिखरी पड़ी है। चैन से कहाँ जी पाते हैं हम?

उसके कानों में तो बस प्लेटफार्म पर रेंगती लोहे की पटरियों का धड़धड़ाते हुए गुजर जाना गूँजता रहता है। छोटे–छोटे टुकड़ों में स्टेशन पर आते लोगों के निर्विकार चेहरों को देखते हुए भी अनदेखी करके आगे बढ़ते जाना ही उसकी नियति है, परन्तु अकस्मात् जीवन में आए नए–नए प्रसंग भी अब उसे उद्वेलित– विगलित नहीं करते। जीवन के संध्या–काल में पचास की आयु पार कर रहे मिस्टर सोमेश का उस पर अनुरक्त होना उसे अजीब सा लगा था। उनके द्वारा कहे हुए फोन पर उनके शब्द पहले आग्रह, आग्रह से टपकता अनुरोध...वह सिर्फ सुनती ही जा रही हैं। पता नहीं उसे क्या हो गया है कि अन्दर की फैली हुई दरारें उसकी गति को थाम लेती हैं...और वह उस बहाव को लेती है बेहद सहजता से।

अपनी सुरंग से बाहर आकर झाँकने की कोशिश क्यों नहीं करती हो तुम? सोमेश बार–बार पूछता। सूने एकांत में डूबकर खुली छत पर स्वच्छन्द पंछियों का उड़ना तो अच्छा लगता है मुझे...लेकिन कोई पंछी पैर टिकाकर मेरे कंधे पर बैठे तो...तो...'मैं यह नहीं झेल सकता..." उसका स्वर डूबा और बुझा हुआ होता...सूखा और बेजान सा। औरत अतीत से बहुत गहरे तक जुड़ी होती है...सचमुच उनके द्वारा कही गई उल्लास भरी तमाम बातों को चुपचाप पीती रही वह... उनके कहे
मार्मिक शब्दों से बिंध सी गई थी वह।

"सुबह के उजाले की ओर अपने पैर बढ़ने दो शिवली। जहाँ यह लगे कि कोई सम्बन्ध चुक गया है और उसने हमें अकेला बना दिया है तो उस बंजर में खुद को घसीटते रहने से भला क्या मिलेगा तुम्हें?"

वह खामोश हो जाती है...पेड़ किसी भी तरफ से काट दो तो क्या वहाँ से नई तरह से उगने की क्षमता वह पेड़ खो सकता है भला?

"लेकिन पतझड़ ने मुझे सूखा और बेरस बना दिया है...शायद पूरी तरह निचुड़ गई हूँ मैं – जहाँ से नई संभावनाएँ तलाशना नामुमकिन है...अन्दर ही अन्दर सिमटी हुई पीड़ा चेहरे पर छा जाती है।
"बट, आई विल वेट फार यू..." सोमेश का बेबाक ढँग से कहना उसे थोड़ी देर के लिए बेचैन कर देता है। लेकिन ऊपर से उदासीनता और चुप्पी ओढ़े रहती है वह। अन्दर ही अन्दर पिघलती जा रही है शिवली...लेकिन पूर्ण समर्पण के लिए चाहिए –
निष्ठा, विश्वास और प्यार...पता नहीं क्यों उसे लगता है कि वह अन्दर से खाली है...बिल्कुल रिक्त...क्या दे सकेगी उन्हें?

ट्रेन की खिड़की के अन्दर और बाहर की अपरिचित दुनिया की ओर ताकती हुई शिवली ने ट्रेन के रूकने के साथ ही तेज–तेज कदम आगे की पगडंडी पर बढ़ा दिए। सर्दी की ठिठुरन से अनजान उसके अन्दर की तमाम सीवनें खुल गई थीं...कुलियों की देह पर लदा है यात्रियों के सामानों का बोझ...उबड़–खाबड़ रास्तों पर पैदल चलते हुए वह सोचती है, दिन–रात की घड़ी की सुइयों की नोंक पर टिकी हैं उसकी जिन्दगी।

जाने अनजाने अपना रास्ता खुद ही तो चुना है उसने। अक्सर ही नींद में अधमुँदी आँखों से देखती रहती है सपने...अपने चारों तरफ छाए घुप्प अँधेरों में भी रोशनी झिर–झिर कर अप्रतिहत रूप से आती जा रही है उसके पास...अचकचाकर वह इससे बचने के लिए अपनी आँखें जोर से बन्द कर लेती हैं। फिर अचानक ही चारों तरफ रोशनी फैल जाती है। शिवली जल्दी से हड़बड़ा कर उठ बैठती है आज सुबह वाली उसकी ट्रेन छूट जाएगी।

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९ जनवरी २००४

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