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कहानियाँ 

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ मे इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से गुरदीप खुराना की कहानी—''अपने को संभालना''


चंदर अपने काम में बुरी तरह मसरूफ़ था। वह एक स्लाइड उठाता, उसे रोशनी के आगे आकर देखता फिर अपनी कॉपी में कुछ नोट करता जाता। वह कल होने वाली प्रस्तुति के लिए साथ-साथ बोलने के लिए वाक्य तैयार कर रहा था। यों तो उसका पेपर और पारदर्शियों की नकल, एक पुस्तिका की शक्ल में तैयार हो चुकी थी लेकिन हर स्लाइड की प्रस्तुति के साथ जो कुछ बोलना ज़रूरी होता है, उसका शब्द-चयन वह पहले से कर रहा था। वैसे भी यह मौका बरसों के बाद आ रहा है। पिछले कई महीनों से वह इस तैयारी में जुटा हुआ था। मीरा आई। बोली, "खाना ठंडा हो रहा है।"
इससे पहले भी वह दो बार यही कह गई है लेकिन उसने जैसे सुना ही नहीं।
"और कितनी देर लगेगी। ग्यारह बज रहे हैं।" वह खीज कर बोली।
"बस पंद्रह मिनट और। दो स्लाइड रह गई हैं।"
तभी फ़ोन की घंटी बजी। उसने मीरा से कहा, "ज़रा जाकर देखो शायद ऑफ़िस से ही होगा।" उसके ऑफ़िस में ही सुबह वह सेमीनार होना था जिसकी ज़ोर-शोर से तैयारी चल रही थी।
फ़ोन लंबा था। जब तक मीरा सुनकर लौटी वह आख़िरी स्लाइड देखते-देखते बोला- "क्या बात है? इतनी लंबी गप्प किससे चल रही थी। मिसेज सोनी का फ़ोन था क्या?"
"नहीं।"

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