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तीसरे-चौथे कोनों में भी, "अब असलियत क्या है, इसे ईश्वर भरोसे छोड़ कर, इसी अनुमान पर विश्वास किया जा रहा था कि कुछ ढंग का काम-धाम शायद है नहीं इसके पास औ़र नौकरी तो छूटी हुई है ही कई महीनों से। मतलब बेरोज़गार ही. . ."
"ओ. . .तभी" कई लोगों के मुँह से एक ज़ोरदार 'च्च' निकली लेकिन कोशिश करने पर भी उनके कुतूहल की सतह पर कोई अवसाद नहीं व्यापा।
दौर, चालू, फूहड़ जिज्ञासाओं का ही चला
"लेकिन सुनते हैं हवाई जहाज़ से आया था भ़ाई।"
"वो तो इसलिए क्यों कि थोड़ी फितूरी किस्म की तबियत पाई है, लगता नहीं?"
"लेकिन हवाई जहाज़ फितूरी मिज़ाज़ वालों को मुफ़्त में थोड़ी ढोते हैं, टिकट तो लगा ही होगा। और दो-चार सौ नहीं पूरे चार-पाँच हज़ार, एक तरफ़ के।"
"चालू टाइप भी तो है। दिखता नहीं?"
"इतना चालू तो नहीं ही कि प्लेन में बिना टिकट सफ़र कर लें।"
"पहुँच वाले लोगों के साथ उठना-बैठना, मेलजोल बनाए रखता है - ज़्यादा टूरिंग करने वालों को कांप्लीमेंटरी टिकट भी मिलता है। दौड़ भाग कर, ज़रूरत बता कर इस तरह का कोई जुगाड़ बैठा लिया होगा।"
"इतना जुगाड़ वाला होता तो लगी-लगाई नौकरी कैसे छूट सकती थी. . ."
"नौकरी भी ऐसों-ऐसों की ही छूटती है जो दिखते हैं कि नौकरी को वे जूते की नोंक पर रखते हैं।"
"हम समझते थे इनके सगे देवर का लड़का है।"
"सगा तो इनके कोई है ही नहीं। तभी तो. . . "
"यह सगा बनने चला आया।"
"चलिए साहब, जो भी हो, रोल अपना ठीक-ठाक ही अदा किया।"
"बेशक स़बके बढ़ कर तेरहवीं तक रुकना ही. . ."
"उसका तो ख़ैर अब खुलासा हो गया। कि इसके पास टाइम ही टाइम है। और कुछ भी नहीं तो तेरह दिनों तक मुफ़्त खाना, नाश्ता, बोर्डिंग-लॉजिंग ही. . ."
"मुझे तो इसके आगे के दूसरे फ़ायदों तक भी इसकी दूरंदाज़ी नज़र आती है। नि:संतान विधवा की लाचारी से।"
"नहीं, इसे लेकर तो ये पति-पत्नी काफ़ी पहले से होशियार रहे। सारी संपत्ति शहर के विधवाश्रमों और सुधार गृहों के नाम हो जाएगी पत्नी की मृत्यु के बाद।"
"वैसे भी, लगता नहीं कि नीयत ख़राब है।"
"नीयत नहीं, किस्मत ख़राब है। सुना है, नौकरी छूटने की ख़बर पर सगाई भी टूट गई इसकी।"
"अच्छा! अभी तक शादी-ब्याह नहीं हुआ है?"
"अरे भई लोग लड़की देने से पहले जाँचते-परखते भी तो हैं।"
"अब यही देख लो, छूटी हुई नौकरी के लिए दौड़-भाग करने की जगह हवाई जहाज़ से मातमपुर्सी के लिए भागे चले आ रहे हैं। झक्कीपना ही हुआ न!"
"वही तो च़ाहे लड़की का बाप हो, चाहे अफ़सर या मालिक, सिरफिरों और झक्कियों से सभी कतराते हैं।"
"सीधी-सी बात है जब नौकरी छूटी हुई है तो बची हुई जमापूँजी सहेजनी चाहिए कि जब तक दूसरी न लग जाए, मुँहताजी की नौबत न आने पाए लेकिन यहाँ तो साहब, हवाई जहाज़ से चले आ रहे हैं बेगाने मातम में अपनापा दिखाने के लिए।"
"और तो और सिर भी घुटा लिया, दाग देने के बाद।"
"सौ औलादों से बढ़ कर यही हो गया-"
"जबकि खुद की औलाद भी कहाँ घुटा पाती है सिर आजकल। ऊँचे ओहदों वाले सरकिल में तो खिल्ली ही उड़ जाए।"
"असल में इसे कौन-सा दफ़्तर कचहरी करनी है कि चार लोगों के बीच झिझक और संकोच से गुज़रना पड़ेगा।"
"कैसी शान से घुटे सिर घूमता है जैसे परमवीर चक्र पाया हो।"
"छोड़ो, दया का पात्र है 'पुअर ही' बेचारा।"

कहने के साथ ही कइयों ने उसके प्रति दया, सहानुभूति महसूसने की कोशिश की लेकिन इसकी कोई गुँजाइश बन पाती, इससे पहले ही तेज़-तेज़ चलता वह, हलवाई को साथ लिए आया और पास खड़े लोगों को इकठ्ठा कर तेरही के खाने के बारे में सलाह मशविरा लेने लगा।
लोग फिर पास आ बैठे। उसने गृहस्वामिनी को भी बुलवा भेजा। जिससे सब कुछ उनकी जानकारी और स्वीकृति से हो। यह स्पष्ट करते हुए कि, स्वयं उसे ऐसे किसी बड़े आयोजन का बिलकुल अनुभव नहीं है, वह मालकिन और उपस्थित लोगों की मदद से हलवाई को सामानों की सूची लिखवाता गया। लिस्ट पूरी हो गई तो हलवाई उसे सलाम करके उठ गया।
लोग फिर मात खा गए थे।
नायक से महानायक होने की दिशा में अनवरोध अग्रसर था वह!

......................

अगले तीन चार दिन वह अगल-बगल के पड़ोसियों से मिला और भोज की जगह, पत्तल, पुरवे, दरी, टाट-पट्टी आदि की व्यवस्था को लेकर पूछताछ करता रहा। उसका घुटा सिर देखते ही लोग स्वयंमेव सहयोग के लिए प्रस्तुत हो जाते। गृहस्वामिनी की इच्छा वाली बात तो उन्हें बाद में पता चलती। आयोजन के प्रति उसकी संलग्नता, पड़ोसियों के मन में उसके प्रति अतिरिक्त आदर भाव पैदा कर रही थी। वो तो अब तक यही समझते थे कि नि:संतान दंपत्ति का कोई है ही नहीं।

जैसे-जैसे तेरहवीं का दिन पास आ रहा था, गहमागहमी और बढ़ती जा रही थी। पड़ोसियों ने इस आयोजन को दिवंगत के सम्मान, श्रद्धा से जोड़कर अपना आयोजन मान लिया था। छोटे-बड़े हर उम्र के लोग सारी व्यवस्था में भरपूर सहयोग दे रहे थे। घर में पड़ोसियों के आने-जाने का ताँता-सा लगा रहता। हर व्यक्ति उसी को ढूँढ़ता, उसी से पूछता, उसी के निर्देशों की प्रतीक्षा करता। कुर्सियों, बेंचों की गिनती से लेकर वनस्पति के टिनों और शक्कर, आटे की बोरियों तक के सारे हिसाब उसे ही पकड़ाए जाते।

............

पहले के आए मेहमानों में अधिकांश जा चुके थे। तेरही में शामिल होने वाले कुछ नए आते भी जा रहे थे। नयों के अंदर भी उसे लेकर कुछ-कुछ उसी तरह की जिज्ञासा और कुतूहल था जैसा पुराने के मन में।

यों, अधिकांश आने वाले लोग, जाने वालों से उसका बायोडेटा हासिल कर चुके थे और तद्नुसार अंदर-अंदर उसके प्रति पक्की धारणा भी बना चुके थे किंतु इस सबके बावजूद खुद को उसके द्वारा परिचालित होने से रोक नहीं पा रहे थे। पुरानों की तरह ही, वे भी असमर्थ और लाचार थे, अपने आपको उससे असंबद्ध कर पाने में। उन्होंने भी 'सरेंडर' कर दिया था, उसके अघोषित लेकिन प्रमाणित नेतृत्व के समक्ष। धुरी था वह समूचे आयोजन की।

तभी शोक संदेश के रूप में आए पत्रों के बीच उसके नाम का एक ख़त आया। लोग अचंभित। उसने खोल कर देखा। थोड़ी देर माथे पर उभर आई सिलवटों को उँगलियों से सहलाता रहा, फिर एकदम से झटकार कर उठा और इंतज़ार में खड़े हलवाई से हिसाब मिलाने चल दिया।
लोग मन में मुस्कुराए कि स्वांग तो ऐसा भर रहा है जैसे किसी कंपनी का एम.डी. हो और कंपनी बंद होने की ख़बर के साथ एस ओ.एस. की गुहार मची हो। सभी को मालूम है कि उसके पास कोई ज़रूरी सूचना या सर्कुलर आने की दूर-दूर तक गुँजाइश ही नहीं! गै़रज़रूरी को ज़रूरी बनाकर पेश करना ऐसे लोगों की लाचारी होती है। बेचारा!

ब्रह्म भोज बड़ी भव्यता एवं कुशलता से संपन्न हुआ। मेहमानों और पड़ोसियों का पूरा सहयोग रहा। दूसरे दिन उसने किराए पर आए हंडे-परात, टाट, कुर्सियाँ वापस भिजवाई। आए-गए सामानों की गिनती मिलाकर पैसे चुकता कराए और हिसाब सही किया।
साफ़-सफ़ाई तक शाम हो गई और वह थककर जल्दी ही सोने चला गया।

अगली सुबह नीम-अँधेरे उठा। मुँह धोया, अटैची उठाई और गृहस्वामिनी के सामने जाकर खड़ा हो गया।
उनके हाथों में वही पत्र था और वे अपार पछतावे से भरीं थी,
"तुम्हारा यह बहुत ज़रूरी पत्र, इन शोक-संदेशों के बीच दबा रह गया, मेरी नज़र ही नहीं गई। किसी इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था तुम्हें दो ही दिनों पहले; तुम्हारे दोस्त ने सूचना भेजी थी। पता चल गया होता तो. . ."

उनकी आवाज़ रूँध-सी रही थी, लेकिन वह निर्विकार था। आँखों में न आश्चर्य, न पछतावा, न अहसान और न गृहस्वामिनी द्वारा व्यक्त उद्गारों पर मोहाविष्ट या गदगद ही - उल्टे उनको प्रबोधता, भरपूर भरोसे के साथ कह रहा था, "आप इतनी परेशान क्यों हो रही हैं। मुझे पता चल गया था - मैंने वह पत्र देखा था। देख कर ही उन पत्रों के बीच भूल गया था।"
"अरे-'' उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था- ''फिर''?
"मेरा मन नहीं किया, मैं नहीं गया, बस। अब जा रहा हूँ।" और वह आत्ममुग्ध नहीं, आत्मतृप्त भाव से उन्हें नमस्कार कर सीढ़ियाँ उतर गया।
शायद, जो जहाँ थे, वहाँ एक बार फिर मात खा गए।

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१ अप्रैल २००५

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