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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से डॉ० मधु संधु की कहानी फ्रैक्चर


अस्पताल में मोबाइल की लाइफ़-लाइन के सहारे उन्होंने डेढ़ सप्ताह काट लिया। कभी यह लाइफ़-लाईन कैंटीन से जुड़ती, कभी मेडिकल स्टोर से, कभी रिश्तेदारों-परिचितों से, कभी अड़ौसी-पड़ौसियों से। दोपहर को लोग सारे काम निपटाकर एक औपचारिकता का बोझ उतारने आ जाते और फिर घर जाकर अस्पताल जाने की थकावट उतारने में जुट जाते। नहाते-धोते, लेटते-सोते, फ्रेश होते, अंग-अंग से अंगड़ाइयाँ लेते। चारपाई से जुड़ा मरीज़ हर दोपहर आने वालों की प्रतीक्षा में दीवार पर टकटकी लगाए रहता। दुनिया-जहान घूमने वालों का संसार भी यहाँ आकर ऐसे ही सीमित हो जाता है।

पत्नी उनके साथ छाया की तरह बनी रहती। हमेशा की तरह उनकी हर ज़रूरत को उनसे भी पहले महसूस कर डॉक्टर, नर्स या अटेंडेंट को बुला लाती, उनका हर लिहाज से पूरा ख़याल रखती, पर यह फ्रैक्चर मानो चुपके से उनके भीतर तक उतर गया था। आँखों के आगे बाजू रखकर वे दर्द को पीते और छिपाते रहते।

कभी उन्हें लगता कि दुनिया कितनी संवेदनशील है। जिसने भी सुना, सुनकर सुन्न हो गया। भागा चला आया और कभी लगता कि दोस्त कितने पत्थर दिल होते हैं चार-चार कालेज पर एक बार औपचारिकता निभाकर चलते बनते हैं।

आगंतुक एक तरह से उनका ध्यान बदल देते। लंबी बीमारी की एकरसता में ये क्षण अनमोल, प्रिय और प्रतीक्षित हो जाते। जी.टी. रोड की तरह उन्हें दुनिया से जोड़ते।

मोबाइल की घंटी बजते ही लगता जैसे किसी के दिल का तार उनके दिल से आ जुड़ा हो। मन में तरंगें-हिलोरे-सी उठने लगती। क्षण भर वे कॉल करने वाले की दुनिया में घुस जाते और देर तक वहीं विहार करते रहते।
ज़िंदगी में ऐसा वीराना और ऐसी प्रतीक्षा तो कभी नहीं थी। डाक्टर, नर्स, सफ़ाई कर्मचारी या किसी अटेंडेंट का कमरे में आगमन भी दिल की हलचल/ घटना होती।

वे आँखें मूँद सुस्ता भी लेते, सुदूर अतीत की यात्रा भी कर आते, इस आसन्न संकट का सोच दो बूँद आँसू भी ढुलका देते और भविष्य की चिंता में भी डूब जाते। मुँदी पलकों के भीतर अपने जीवन का दूरदर्शन परत-दर-परत खुलता रहता और लोग समझते कि वे चुपचाप सो रहे हैं। आराम कर रहे हैं। कभी असह्य दर्द से चिल्ला उठते तो नर्स झटके से दरवाज़ा खोल किसी फ़रिश्ते की तरह भीतर आ जाती।

दुर्भाग्य जंगली जानवर की तरह कैसे अचानक दबोच लेता है, जब हम उसकी तरफ़ पूर्णत: पीठ करके खड़े होते हैं। यह उन्होंने इस आकस्मिक त्रासदी के बाद ही जाना था।
दिमाग़ में बचपन में पढ़ी पंक्ति- 'वन कैन क्रॉस एन ओशन विदआउट वेटिंग वन्स लैग्ज़, बट कैन नॉट क्रास लाइफ़ विदआउट वेटिंग आईज' याद आती।

वे सदैव अपने को विशिष्ट मानते आए थे। इसलिए अपने कमरे में अकेले बैठ अख़बार पढ़ना, फ़ोन करना, टी.वी. देखना, स्टीरियो सुनना, चुपचाप गाड़ी लेकर निकलना और घंटो बिन बताए घर से ग़ायब रहने में उनका अहं तुष्टि पाता था। घर के लोगों से कम से कम बात करना या माथे के बलों का फ़ासला रखकर बात करना उनका स्वभाव था। घर के लोगों या उनके मिलने-जुलने वालों को वे अपने से हेय ही मानते रहे। उनके मन में किसी के प्रति आत्मीयता, स्नेह या सम्मान का प्रश्न ही नहीं था।

नित्य प्रात: पाँच बजे एक कप चाय पीकर भगवान के दर्शन को जाते थे और घर जाकर आराम से ब्रेकफास्ट करते थे, पर उस दिन उन्हें वहाँ से सीधे अस्पताल पहुँचा दिया गया। वे पैर फिसलने से सर्जिकल बोन तुड़वा बैठे और ग्यारह बजे से उन्हें ग्लूकोज़ की बोतलों का ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर मिलने लगा। हर आने जाने वाले से ज़रा से होंठ टेढ़े करके परिहास में यही बात कहते कि मंदिर से यह फ्रैक्चर भगवान के प्रसाद की तरह मिला है।

टाँग में रॉड डली थी। स्क्रू डले थे, उस पर अट्ठाइस टाँके लगे थे। मानों स्ट्रेपलर से काग़ज़ की तरह स्किन जोड़ दी गई हो। तन की ऐसी चीर-फाड़, जीवन में क्षण भर के लिए भूकंप आ गया। सब धुर से हिल गया। वे अक्सर पूछते- डॉ. साहिब मैं छह सप्ताह में ठीक तो हो जाऊँगा। सब ओर से एक ही उत्तर आता-आप ठीक तो हो जाएँगे, पर आपको घूमने-फिरने की इजाज़त अभी नहीं इतनी जल्दी नहीं देंगे।

अस्पताल विषयक उनका अनुभव मात्र इतना था कि कभी-कभार जीवन में किसी पड़ौसी या संबंधी की ख़बर लेने चले जाते या कभी किसी के यहाँ खाना पहुँचाने की डयूटी लग जाती। वे दो-एक हॉट केस, थर्मस या दूसरे लिफ़ाफ़े पकड़े पहुँचा आया करते। उनका मन सदैव निर्लिप्त रहता। कब सोचा था कि कभी किसी ऐसे ही अस्पताल में बीमार की हैसियत से रहना होगा।

यह रिप्यूटेड और महानगर का सबसे महँगा अस्पताल है। कार्डियालाजी, जनरल सर्जरी, आर्थोपिडिक्स, न्यूरालोजी, गाइनेकॉलोजी, लैपरोस्कोपिक सर्जरी, डर्माटोलोजी, ई.एन.टी., पैथोलोजी, डैंटल एंड मैक्सो फेशियल सर्जरी, टुबरक्लाज़िज़ एंड रेस्पायरेटरी, यूरोलोजी वगैरह सभी के रोगी यहाँ आते हैं और हर बीमारी का स्पैशलिस्ट गेस्ट एपीयरेंस देता है। बाहर बड़े बोर्ड पर विज़िटिंग डॉक्टरों के नाम इस प्रकार लिखे हैं कि हर आने जाने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अस्पताल में १२०० से १५०० तक छोटे कर्मचारी, २००० से २५०० तक नर्सें, ४००० से ५५०० तक डॉ०- इन रेटों पर अस्पताल में काफ़ी मैन पॉवर इकट्ठी हो जाती है।

पूरा अस्पताल नर्सों, अटेंडेंट या सफ़ाई कर्मचारियों की रौनक लिए रहता। स्पैशलिस्ट डॉ. तो दिन में एक ही बार चक्कर लगाते और हर कमरे में दो एक मिनट रुक कर चल देते। अस्पताल के मेडिकल ऑफ़िसर तीन चार चक्कर लगा जाते। वे किसी भी रोगी को स्पैशलिस्ट से पूछे बिना कभी कोई दवाई नहीं देते, लेकिन हर रोगी को एक साइक्लोज़िकल तुष्टि अवश्य मिलती।

हैड नर्स की आवाज़ काफ़ी करारी थी। वह हमेशा मुस्काते चेहरे से आती और सचमुच यह मुस्कान उसके चेहरे, ढलती उम्र, और थुलथुले शरीर में आर्कषण भर देती। उसका राउंड भी किसी वी. आई. पी. राउंड से कम न होता। साथ डयूटी वाली मेल-फीमेल नर्सें रहती और वह उन्हें निर्देंश देती जाती। यह एक जीवंत राउंड होता।

धोबी हल्की डिटोल-सर्फ़ से चादरें निकाल, तहाकर उनकी ऊपरी तहों पर प्रेस लगा प्रेस की फ़ीलिंग दे देता। आउटडोर पेशेंटस के सेल में एक बड़ा रंगीन टी.वी. चुपचाप तस्वीरें बदलता रहता या किसी मरीज़ का केयर टेकर आकर रिमोट बाक्स से रिमोट उठा ज़ी, स्टार, आज तक या एन.डी.टी.वी. चैनल बदलता रहता।
अस्पताल की कैमिस्ट शॉप खचाखच दवाइयों से भरी रहती। वह नित्य हर कमरे में कम्प्यूटराइज़्ड बिल डिलिवर करता। दवा का नाम, मैनुफैक्चरिंग डेट, कंपनी का नाम-सभी यहाँ रहते।

आई.सी.यू. के बाहर भीड़ बनी रहती। ज़्यादातर दूर-दराज के गाँवों-कस्बों से लोग आते और साथ में पूरा कुनबा ही रहता। कभी सलफास खाया, बिगड़े जोंडियस वाला या चाकू-गोली लगवा कर आया कोई रोगी मर जाता तो परिजनों के क्रंदन से हवा में संत्रास घुल जाता।

अस्पताल से घर आकर भी वे टुकुर-टुकुर देखते रहते। फ्रैक्चर की रिकवरी इतनी धीमी होती है, यह तो उन्हें अनुमान था, लेकिन अपने और पराए दर्द का अंतर उन्होंने अब ही पहचाना था।

दिनों तक करवट न ले पाने के कारण अस्पताल में बैड सोर कसकने लगे थे। घर पहुँचते ही देखा कि लॉबी का बड़ा कूलर जनरेटर से कनैक्ट करवा दिया गया है और यहीं उनकी चारपाई बिछा दी गई है। घर के हर कमरे, यहाँ तक कि किचन-बाथ का दरवाज़ा भी लॉबी में खुलता था। सारा परिवार उनके आसपास बना रहता। सूनी आँखों की आसन्न असहायता रिकवरी की उम्मीदों में बदलने लगी थी। घर पहुँच कर वे थोड़ा सामान्य भी महसूस कर रहे थे। बैड सोर अब सूखने लगे थे।

गर्मी के मौसम में न नहाना उन्हें बेचैन कर जाता, लेकिन साबुन और गीले तौलिए का सपंच और प्रिकली हीट पाउडर की फ्रैशनेस से बिखरी ताज़गी और सुवास उन्हें काफ़ी तरोताज़ा कर जाती।
पट्टी करने वाला सप्ताह में दो बार आता। वे धीरे-धीरे उससे बतियाते रहते। लगता इस फ्रैक्चर की रिकवरी के सभी रहस्य वह जानता है। वह जानता है कि कब वे बैठ सकेंगे, कब टाँग ज़मीन पर लगेगी, कब कुर्सी तक जाएँगे। कब वाकर पकड़ेंगे। कब कदम-कदम चलेंगे।

नन्हीं-सी चार वर्षीय पोती उनकी थाली में एक-एक फुल्का रखती, मचलती, लाड़ करती जाती और वे मात्र मंद मुस्कान से उसके सिर पर हाथ रख उसके सारे मनचलेपन का जवाब दे देते।

पत्नी ने सारे नाते-रिश्ते, काम-काज, घरेलू उठा-पटक, बेकार-बेगार, किट्टी-क्लब, कथा-कीर्तन, ख़रीद-फ़रोख़्त, गप्पबाजी वगैरह से संन्यास ले मात्र उनकी ज़िम्मेदारी ओढ़ ली थी। वह उनकी नर्स भी थी, केयर टेकर भी और संरक्षिका भी।

बेटा सुबह-शाम पास बैठ घंटा भर इधर-उधर की बातें करने लगा था। बहू ने घर के सारे कामकाज की ज़िम्मेदारी सँभाल सास को छोटे मोटे झंझटों से मुक्त कर दिया था। बेटी हर शनि-इतवार चक्कर लगा जाती। यह लॉबी घर का लीविंग रूम, ड्राईंग रूम, डाइनिंग रूम सब बन गई थी। कभी-कभी तो उन्हें बीमारी भी वरदान लगने लगती।

आश्चर्य कि इतने स्नेहिल परिवार की आत्मीयता को न पहचान वे जीवन भर अपने में सिमटे रहे।

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९ अप्रैल २००७

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