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इस प्रहसन का लोग हँसी से लोट-पोट होकर आनंद उठा रहे थे। इसी बीच जगदीश ग़ुस्से से आग बबूला होकर मंच पर चढ़ आया और सारे दर्शकों के सामने अपने जूते निकालकर रफ़ू मियाँ को पीटने लगा। नौटंकीवाले हम सभी लड़के भौचक्के रह गए। क्या करें...क्या न करें, इस पशोपेश में घिरे ही थे तभी दर्शकों के एक समूह की ओर से प्रतिकार में जगदीश पर कुछ रोड़े-पत्थर बरसने लगे और उसे भागना पड़ा। नौटंकी यहीं रुक गई और ऐसी रुकी कि फिर कभी शुरू नहीं हुई। गाँव को जोड़ने के लिए जो एक सांस्कृतिक आयोजन की परंपरा थी, वह अंतिम रूप से ख़त्म हो गई।

रफ़ू मियाँ ने अब नौटंकी से मुँह मोड़ लिया। गाँव की समरसता और सामाजिक सौहार्द्य के लिए यह एक बड़ी क्षति थी। लेकिन सुर-ताल रफ़ू की साँसों में बसा था, अत: वह इससे अलग नहीं रह सकता था। लिहाज़ा अपने गाँव में कभी प्रदर्शन न करने की शपथ लेकर दूर जाकर प्रदर्शन करने के मंसूबे के साथ उसने एक नाच पार्टी बना ली जिसमें हमारे हाई स्कूल के चपरासी गनौरी कान्हू का बेटा सौखी नचनिया बन गया। सौखी ने आगे चलकर पूरे ज़िले में काफ़ी नाम कमाया।

गाँव की ये कुछ ऐसी घटनायें थीं जिनसे मेरा पूरा जीवन प्रभावित रहा। मैं यह मान चुका था कि गाँव मेरी तक़दीर है, जो जैसा भी श्याम-श्वेत है, मुझसे अलग नहीं हो सकता। लेकिन अप्रत्याशित रूप से नियति को शायद मुझ पर तरस आ गया और उसने मुझे तकलीफ़ों के भँवर से निकाल कर शहर में आने का मौका दे दिया। एक प्रतियोगिता परीक्षा पास करने में मैंने सफलता पाई और सिजुआ (धनबाद) की एक कोलियरी में मेकेनिकल अप्रेंटिस में मेरी बहाली हो गई। आज मैं सोचता हूँ कि अगर मुझे यह अवसर न मिला होता और गाँव में रहने को ही मुझे मजबूर होना पड़ता तो क्या मैं यों ही शांत, शरीफ़ और चुपचाप बना रहता? मुझे बाउजी या अन्य परिवारजनों की तरह भूख ज़्यादा बर्दाश्त नहीं होती थी। मुझे वे लोग आँख में बहुत चुभते थे जिनके घर में इफ़रात अन्न रखे हुए सड़ रहे होते थे अथवा जिनके अनगिनत खेतों में फसलें लहलहा रही होती थीं। इस मानसिकता में ज़ाहिर है या तो डकैती या फिर नक्सलवाद का रास्ता मुझे बहुत आकर्षित करता था।

मैं शहर आ गया, यह मेरी अद्भुत कायापलट थी। अब मैं जूते पहन सकता था, रोज़ साबुन लगा सकता था, पतलून पहन सकता था, हर दिन चपाती और चावल खा सकता था। मुझे वे दिन नहीं भूलते कि मैं एक मटमैला पाजामा, एक घिसा हुआ बुशर्ट और एक टुटही हवाई चप्पल पहनकर लिखित परीक्षा देने आया था और अपने गोतिया घर के एक चचेरे भाई के यहाँ ठहरा था। मेरा हुलिया देखकर मेरे भाई को कतई उम्मीद नहीं थी कि मैं किसी प्रतियोगिता परीक्षा में पास हो सकता हूँ। उसके अनुमान को धत्ता बताते हुए रिटेन में मैं पास हो गया। मेरा वह भाई अचंभित रह गया। उसके पास-पड़ोस में उसके कई साथियों के साले और भाई आदि कई महीनों से यहाँ रहकर तैयारी कर रहे थे और वे पास नहीं हो सके थे। भाई की आँखों में मेरे लिए गर्व उभर आया था। उसने इंटरव्यू में बैठने के लिए मुझे अपनी पतलून और शर्ट दी, ताकि मैं ज़रा ठीक-ठाक और थोड़ा स्मार्ट दिखूँ। मेरे दिमाग़ में उस पतलून और शर्ट के रंग स्थायी रूप से दर्ज़ हो गए थे, चूँकि मेरे जिस्म पर चढ़नेवाली वह जीवन की पहली पतलून और शर्ट थी, जो पहले की पहनी हुई और उधार की थीं। मैं अपने उस भाई का आज भी कर्ज़दार हूँ।

शहर में एक साल तक मुझे एकदम मन नहीं लगा था और गाँव मुझे बेतरह याद आता रहा था। रोज़ शाम होते-होते मुझे ऐसा लगता था कि आज मैं निश्चित रूप से गाँव वापस लौट जाऊँगा।
अब माटी जोतने-कोड़ने वाले हाथ लोहे छिलने, काटने और तराशने के हुनर सीखने लगे थे।

गाँव की तरह अब कारखाने की नब्ज़, नीयत, नाइंसाफ़ी और नासूर मैं पहचानने लगा था। मैंने बीस वर्षों तक लेथ, शेपर, स्लॉटर, ड्रिलर, ग्राइंडर आदि मशीनों पर लोहे छिले। मशीनों के शोर में दबे और दफ्न हुए कई ऐसे किरदार मुझे मिले जो भुलाए नहीं भूलते और मन में एक जुगनू की तरह हमेशा टिमटिमाते रहते हैं।

मैंने गाँव की तरह कारखाने और कोलियरी को भी अपनी तक़दीर मान लिया था, लेकिन जैसे गाँव से मुझे मुक्ति मिल गई, वैसे ही कारखाना और कोलियरी ने भी अपनी जकड़न से मुझे मुक्त कर दिया। वहाँ मुझ जैसे लोगों के लिए आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं था। एक बार आपने मज़दूर में नाम लिखा लिया तो फिर उम्र भर पसीने, कालिख और कड़े शारीरिक श्रम का दायरा ही आपकी नियति बन गया। अगर आपकी कोई सिफ़ारिश नहीं है या किसी बड़े साहब के आप रिश्तेदार नहीं हैं तो आपका कुछ नहीं हो सकता। मैं वहाँ व्याप्त नाइंसाफ़ियों और अनियमितताओं से जूझने के लिए यूनियन का चुनाव लड़ने लगा और एक बड़े जन-समर्थन की तरफ़ बढ़ने लगा।

वहाँ का एक पुराना दबंग यूनियन नेता मुझे अपने अस्तित्व पर ख़तरा समझने लगा और खुद को सुरक्षित रखने के लिए मेरा वहाँ से एक ऑफ़िस में तबादला करवा दिया। मेरे लिए तो यह तबादला एक लॉटरी साबित हुआ, लेकिन मुझे समर्थन देने वाले साथियों-सहकर्मियों पर यह बहुत नागवार गुज़रा। उन्होंने यही समझा कि यूनियन से अलग होने के लिए मुझे कीमत दी जा रही है, यानी मै बिक गया हूँ।

ख़ैर जो भी हो, एक चमत्कार की तरह पसीने, कालिख और शोर-शराबे से निकलकर मैं इत्मीनान एवं चमक-दमक से परिपूर्ण एक वातानुकूलित चौहद्दी में पहुँच गया। लोहे छिलने, काटने और तराशने वाले हाथ को अब कलम पकड़ने की ऑफ़िशियल मान्यता मिल गई थी। यहाँ मुझे प्रेस विज्ञप्ति आदि बनाने का काम सौंपा गया। मतलब मुझे अब तनख़्वाह कलम की बदौलत मिलने जा रही थी। गाँव से शहर आने के बाद मैंने प्राइवेट से एम. ए. तक पढ़ाई पूरी कर ली थी, जो आज नई जगह पर काम आ गई थी।

ऑफ़िस की चकाचौंध ने मेरी आँखें चुंधिया दी थी। यह एक तरह से सलमा-सितारों की एक आलीशान दुनिया थी, जहाँ सुख, वैभव और ठाट की सरिता में सारा कुछ सुंदर ही सुंदर और मादक ही मादक था। एकबारगी मुझे ऐसा लगा कि यहाँ किसी भी असहमति, द्वंद्व या शिकायत की कोई गुँजाइश नहीं रह गई। मगर इस मुग्धावस्था और यूटोपिया में थोड़े ही दिन बीते होंगे कि सलमा-सितारों वाली इस दुनिया की आंतरिक बदसूरती नग्न होकर मुझे दिखाई पड़ने लगी। मेरा मन दहल उठा। मैं समझ सकता था कि पसीने और कालिख वाले लोग कठोर श्रम द्वारा उत्पादन में ईमानदार भागीदारी शामिल करके अंदर से पूरी तरह श्वेत और स्वच्छ थे, जबकि यहाँ के गैरउत्पादक लोग कंपनी का भला करने के नाम पर ज़्यादातर उसे नुकसान पहुँचाते हुए अंदर से काले और गंदे थे। हम बहुत छोटे पद के लोग भी स्पष्ट देख रहे थे कि यहाँ एक भयानक लूट, अराजकता, व्यभिचार और निकम्मापन फैला है। महिला कर्मचारियों के उपयोग एवं प्रोन्नति के मामले में भी यहाँ एक विचित्र तरह की दुराचारसंहिता लागू थी।

मैं वहाँ मज़दूर होकर लोहा छिलने के दौरान मैनेजमेंट को नीचे से देख रहा था और इस हाई प्रोफ़ाइल तथा ग्लैमरस विभाग में आकर मैनेजमेंट को ऊपर से देखने लगा था। मैं हैरान था - नैतिकता, उसूल और सेवा के मेकअप लिए हुए प्रबंधन के चेहरे बहुत सारे धब्बे, दाग और गड्ढों से भरे हुए थे।

मेरे साथ पता नहीं ऐसा क्यों है कि परिस्थियाँ लंबे अंतराल तक अनुकूल कभी नहीं रहीं। प्रतिकूलताओं में ही ज़्यादातर बसर करना मेरा नसीब रहा। बाहर तो मुझे कई तल्खियों से गुज़रना पड़ा ही, घर ने भी मुझे नहीं बख़्शा। प्रारब्ध के इस गणित का क्या कहा जाए कि जब आप बेहद ग़रीबी में थे तो ख़ैर फाँकाकशी करनी ही पड़ती थी...आज जब आपके पास अपना घर है और घर में सब कुछ है, फिर भी जब आप बाहर से लौटें तो घर की बत्तियाँ बुझी हों...दरवाज़े अनसुना करके बंद रहें और रसोई के चूल्हे ठंढे हों।

आज मैं कह सकता हूँ कि ये सारे तरद्दुद, जो मेरे साथ घटित हुए और जिन्हें मैंने सहे, तो इससे ऐसा नहीं है कि मैंने कोई असाधारण आचरण जीकर बहुत सहनशीलता का परिचय प्रस्तुत कर दिया, बल्कि सच यह है कि जोख़िम उठाने के प्रति मुझमें साहस का बराबर अभाव रहा कि जो मिला हुआ है कहीं वह भी छिन न जाए। गाँव वाली तकलीफ़ें अब भी मुझे याद आकर डरा जाती थीं। यह डर ही था कि मैं अपनी पेशागत और पारिवारिक यथास्थिति को बदल न सका।

बुरा हो मेरे आसपास की आवोहवा और तहजीब-तरक़ीब का कि स्त्री की चारित्रिक रहस्यमयता और उसकी बौद्धिक हदों ने मुझे एक भी मौके नहीं दिए कि स्त्री के बारे में मैं एक अच्छी धारणा बना सकूँ। पत्नी ही नहीं, माँ, बहन, चाची, मौसी आदि रिश्तों की भी कोई अच्छी नसीहतें मैं हासिल नहीं कर सका। प्रेम की तलाश ने मुझे बहुत भटकाया...बहुत थकाया। स्त्री की वह सनातन छवि कि वह अपने हरेक रूप में दयामयी, ममतामयी, स्नेहमयी, तरल, उदार और शुभेच्छू होती है, मैं ढूंढता रहा हर मोड़ पर, हर गली में। मैं अपनी माँ का इकलौता बेटा...माँ मुझे ज़रूर ही बहुत प्यार करती रही होगी...लेकिन मैं अपनी स्मृति में उसके वात्सल्य का कोई एक भी सघन पल ढूंढ नहीं पाता। माँ के रूप में जो तस्वीर उभरती है मेरे अंदर...उसमें उसका हमेशा बीमार रहना...बिस्तर पर पड़ा रहना...देह जतवाने का अहर्निश अनुरोध करना...दवा की शीशियों में उलझी रहना और बाउजी से हरदम पैसों के लिए खिच-खिच करना आदि ही शामिल है। मेरे ठिठके-ठिठुरे शैशव को प्यार-दुलार की थोड़ी मेंह मिल सकी तो उसे बाउजी ने ही दिया।

स्त्री के रूप में एक और सहोदर रिश्ता दीदी का उपस्थित था। मुझे क्लेश होता है यह लिखते हुए कि दीदी के साथ भी कोई घनिष्ठ और सुखद लम्हा मेरी स्मृति में कायम नहीं है। याद पड़ता है कि ज़्यादातर हम एक-दूसरे को मारते-पीटते ही रहते थे। दीदी ने एकबार मुझे ऐसा दौड़ाया था कि मैं संयुक्त परिवारवाले एक वीरान आँगन के अनुपयोगी कुएँ में गिर गया था। दीदी ने किसी को इसकी ख़बर तक नहीं की, शायद डर से। लेकिन मेरा बचना बदा था। कुछ डूबने-उपराने के बाद मैं एक लोहे की कुंडी को पकड़ लेने में कामयाब हो गया। जोर से हाँक लगाई तो दादी ने आकर मुझे बाहर निकाला।

घर में चाचियों को या आस-पड़ोस की जनानियों को देखता था तो वे अक्सर किसी न किसी से गाली-गलौज, उकटा-पुरान, थूकम-फजीहत और चुगली-शिकायत में मसरूफ़ दिखती थीं। नारीगत करुणा और कोमलता की छाया उनमें कहीं से भी लेश मात्र प्रतिबिंबित नहीं थी।

गाँव में रागात्मकता या प्रेम का एक नन्हा ठौर मुझे मिला था, मगर उसकी मियाद बहुत छोटी थी। अस्मां आठवीं में पढ़ती थी और मैं मैट्रिक पास कर चुका था। उसके मामा ने मुझमें ट्यूशन पढ़ाने की काबिलयत देख ली। वे बड़े लोग थे। मुझे पता भी नहीं चला कि ज़रा-सी आत्मीयता के लिए खानाबदोश-से भटकते मेरे हृदय को कब अस्मां ने अपने हृदय में एक खास जगह दे दी। उसने मेरे लिए अपने हाथों से एक कमीज़ सिली थी। मैं हैरत में था कि घर की भीड़-भाड़ में रहकर उसने कैसे इतना एकांत ढूंढ लिया! दोस्ती कायम होने के बाद जब पहली ईद आयी तो वह बुखार में थी और नमाज़ पढ़ना उसके लिए मुमकिन नहीं था। उसने फिर भी नमाज़ नहीं छोड़ी। मेरे बहुत पूछने पर उसने बताया कि इस बार उसे एक बड़ी और ख़ास मुराद के लिए दुआ माँगनी थी और वह मुराद यह थी कि खुदा मुझे यानी कुबेर प्रसाद को ग़रीबी और गुरबत से निकालकर एक अच्छी जिंदगी बख्शे।

शायद सच्चे दिल से निकली हुई अस्मां की वह दुआ ही थी जो मुझे फल गई और मैं गाँव से शहर आ गया। जब उससे आखिरी विदाई ले रहा था तो वह मुस्कराने की कोशिश कर रही थी, मगर उसकी आंखों से जार-जार आंसू बह रहे थे। जुदाई की यह पहली चुभन थी जिसे मैंने जिगर में महसूस किया था। अपनी रुलाई भी मुझसे थम न सकी थी। जानता था कि अस्मां से यह मेरी आखिरी मुलाकात है। आगे गाँव आकर भी उससे मिलना संभव नहीं हो सकता था। चूँकि पर्दे में रहने के रिवाज़ की वह पाबंद थी जिसे बेधने का मेरे पास कोई बहाना नहीं हो सकता था।

इसके बाद लंबे समय तक एक रिक्तता, उचाटपन और नीरसता बनी रही। मेरी बीमार मां ने अपनी सुश्रुषा कराने की चाहत से, अपने मायकेवालों के बहकावे-फुसलावे में आकर, बहुत कम ही उम्र में एक ऐसी जगह मेरे कुंवारेपन को हलाल कर दिया जिसकी शिष्टाचार, शिक्षा और संस्कृति से पुश्तैनी दुश्मनी थी। शुरू से ही संशय, अविश्वास और मूर्खता के अटपटे और अनाड़ी तीर चल-चलकर मुझे बींधने लगे और दाम्पत्य एक गलीज अदावत बन गया और घर एक बदबूदार मछली बाजार। आज सोचकर बड़ा ताज्जुब होता है कि अदावत और मछली बाजार सदृश दोजख में भी एक-एक कर चार बच्चे हो गये। इसे ही कहते हैं बिना किसी पसंद-नापसंद के कहीं भी एषणा को बुझा लेने का पागलपन। बहरहाल, ये बच्चे खटारा दांपत्य को भी चलाते रहने की एक अनिवार्य शर्त बनते गए। आज भी हम उसी दांपत्य के जर्जर धागे से बंधे हैं तो इसका श्रेय इन बच्चों को ही जाता है।

मैं यह मान चुका था कि प्रेम और मैत्री का अवसर बार-बार नहीं मिलता। मुझे एकबार मिल चुका जिसे मैंने यों ही गँवा दिया। मगर शायद बर्बादियों के कुछ और मंज़र दिखाने के लिए भूकंप के कुछ और झटके अभी बाकी थे। मन में तो कहीं एक खालीपन था ही...एक चाह थी ही कि किसी से खूब अंतरंगता होती, एक दूसरे के दुख-सुख में साझीदार होते, एक-दूसरे के हम राज़दार होते...एक-दूसरे पर हम पूरी तरह निछावर होते। मेरी यह चिरसंचित आकांक्षा थी कि सृष्टि के तमाम मर्दजात जिस औरतजात के लिए मरते, मिटते और पागल होते रहे हैं, उस औरत सदृश बहुआयामी और बहुअर्थी महाकाव्य को मैं एकदम पास से पूर्णता में पढ़ सकूं, समझ सकूं, महसूस कर सकूं...उसकी कोमलता, उसका सौंदर्य, उसकी अदायें, उसकी भंगिमायें, उसका मातृत्व, उसका त्रियाहठ, उसका सम्मोहन, उसमें बसा प्रेमतत्त्व...। मैं औरत के बारे में अपनी राय ईमानदारी से बदलना चाहता था।

अफसोस, मैं कामयाब न हो सका। शायद मुझमें ही कोई खोट रही हो। अपने पति से संबंध विच्छेद कर लेने वाली एक बोल्ड सी विदुषी महिला से मेरी नजदीकी बढ़ गयी। लगा कि तलाश पूरी हो गयी। मैं इस खुशफहमी में एक साल ही रहा हूंगा कि अचानक उसकी तरफ से उत्साह मंद पड़ने लगा और उसकी रुचि भटकने लगी। हैरान रह गया जानकर कि प्रेम की उसकी परिभाषा में निर्वाह के समय की परिधि उतना ही तय है, जितना में ऊब महसूस न हो। उसके अनुसार प्रेम के नाम पर तमाम उम्र का समर्पण एक बोरियत भरी बेवकूफी है।

मैंने देखा कि उसमें अनेक गाँठें हैं, एक खोलो तो दूसरे में उलझ जाओ...अनेक चौराहे हैं, एक रास्ते जाओ तो पता चले कि गंतव्य दूसरे रास्ते में शिफ्ट हो गया...अनेक मुखौटे हैं, एक से परिचय बढ़ाओ तो दूसरा मुखौटा अपरिचय लेकर हाज़िर। स्थिति मेरी आज भी यही है कि मैं अब भी गाँठों में उलझा हूँ, चौराहे पर उजबक बना गंतव्य तलाश रहा हूँ और मुखौटों के भीतर झाँककर उसकी असलियत चिन्हने की कोशिश कर रहा हूँ। मुझे पता है कि मैं अपने मकसद में कभी कामयाब नहीं हो पाऊँगा, फिर भी मृगतृष्णा कम नहीं होती। मैं रेगिस्तान में दौड़ रहा हूँ और दौड़ता चला जा रहा हूँ...। 

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१६ मार्च २००७

 
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© सर्वाधिका सुरक्षित
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