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दादी तरकारी लेकर आँगन में बैठ जातीं तख्त पर। एक-एक तरकारी छाँटतीं-छीलतीं। उनकी पोथी का एक-एक पन्ना खुलता जाता।
'जे कचनार राजा जी ने लगवायौ हौ। उनकी रसोई में एक दिन पूरी ब्यालू कचनार की रँधे ही। कचनार की भुजिया, कचनार का रायता, कचनार का अचार, बाजरे की बेड़मी। एक दिन शकरकन्दी का राज रहतौ। शकरकन्दी का हलवा, शकरकन्दी की खीर, शकरकन्दी की चाट, शकरकन्दी की पूड़ियाँ।''

दादी की निगाह में यह राजा जी की वैभवगाथा थी पर हम तीनों बहन इस विवरण से ज़रा भी प्रभावित न होतीं।
''बड़ा इकरंगा जीवन था राजाजी का। उनकी रानी तो ऊब से अधमुई हो जाती होगी।'' हम कहते।
''जे लो छोरियों, तुम्हें सुख में दुख दिखे, दुख में सुख दिखे। कौन चाल मेल की हो तुम?''
रात को हम छत पर छिड़काव करतीं। एक-एक कर सबके बिस्तर बिछातीं। एक ऊँची पटिया पर सुराही रखतीं, सुराही पर गिलास मूँदा मारतीं। भग्गो बुआ काले उदले में आलू की रसेदार तरकारी लाकर रखती। दादी कठौते में परांठे। मैं कचनार के रायते पर भुना हुआ पिसा जीरा छिड़कती। कटोरियाँ गिनती, एक दो तीन चार पाँच छः सात आठ। धत्त तेरे की। कटोरी थाली तो बस छः ले जानी है। मम्मी पापा तो आए नहीं हैं। तभी तो रोज़ खाट पर पड़ जाने के बाद दादी जागती रहतीं। जब फ्रंटियर मेल का इंजन अपनी भट्टा जैसी एक आँख चमकाता, चिंघाड़ता गुज़र जाता, उसके दो तीन मिनट बाद दादी जम्हाई लेतीं, ''सो जा री छोरी! लगै आज भी बिद्दाभूसण नायं आयौ।''

बाबा अपनी खाट से कहते, ''ससुरे में छटाक भर भी ममता नहीं है माई बाप की। दिल्लीवारौ बनौ बैठो ए।''
दादी बमक पड़तीं, ''जे बताओ, तुमने कभी नेक ममता करी लड़कन की। कान खींचे, गेटुआ दबाये, कभी तराजू दे मारें, कभी बाँट फेंके। कौन करम नायं किए। मेरे दोनों लालाए देस निकारा दे डारौ।''
बाबा आग बबूला हो जाते, ''बिरचो समझै नायं। तेरे छोरन पे बाबूसाहबी छाई रही। पैंट बुशकोट पहरें, गिटपिट बोलें, कुर्सी तोड़े। गद्दी पे बैठ बूरा तोलने में उनकी मैया मरै थी। एक कबिताई करे लगौ, दूसरे को साहबियत चाट गई।''
दादी बिखरा दूध समेटतीं, ''अच्छा अच्छा बस करौ। तुम तो बर्र के छत्ते से छिड़ परौ हौ। नतनियाँ सुनेंगी, सरम करौ।''
जब बेटे सगे नायँ निकरै तो नाती धेवते कौन किरिया करेंगे। कोऊ काम नायँ आयेगौ, समझी रहौ।''
बाबा तो पड़ी लगाकर सो जाते, दादी रात भर घुट-घुट कर उमड़तीं-घुमड़तीं। ''जेईमारे निकर गए दौऊ भइया। न कभी उन्हें दुलराया न पुचकारा। बस दुर-दुर करते रहे। ज़िन्दगी भर हर चीज़ बाँट तराजू से तोली। मैं कहूँ अजी प्यार को मोल और तोल बतावै, ऐसी तराग कहाँ पाओगे। पर नायं, जे तो छोटे के काग़ज़ पत्तर कापी उठा-उठा के चूल्हे में झोंके। बड़े की किताबें रद्दीवाले को बेच आए। दो दिन रोटी नहीं खाई मेरे लालों ने।''

मैं दादी के पैर दबाती। उन्हें थपकती कि किसी तरह वे सो जायें। सुबह सौंताल की तरफ़ दादी के साथ जाती हुई कहती, ''दादी इस बार तुम हमारे साथ दिल्ली चलो।''
दादी निहाल हो जातीं। मुझे कमर से चिपका कर, मेरे बिखरे बालों पर हाथ फेरतीं ''बिल्कुल बाप पे गयौ है मेरो लूटरबाबा। मैं जानूँ बिद्दाभूसण भी मुझे हुड़कता होगौ। जब बारहवीं में आगरे पढ़ै था, रात में मेरी पाटी पर आकर पूछै, ''जीजी च्यौं रो रई हों?'' मैं चुप।
''कान में दरद है?'' मैं चुप। ''दाँत में दरद है?'' मैं चुप की चुप।
''पैर दबा दूँ?'' नई।
''जीजी सुबह तुम्हें डाक्टर के लै चलूँगौ, चुप हो जाओ।''
तभी तेरे बाबा अपने तखत पे से किल्ला उठें, ''याके लिये तेरे पास डागडर की फीस है तो मेरे को दे दीजौ। कातिक में आढ़त भरनी है काम आएगी।'' बिद्दाभूसण में ऐसी खटास भर जाती अगले ही रोज़ वह अपना बिस्तरा गोल कर लेतौ।''
हमें बाबा से डर लगने लगता। शाम की सैर के बाद घर लौटने में दहशत होती। हम कहतीं, ''दादी आज यहीं रह जायं, घर ना जायं।''

दादी कहतीं, ''घर तो जानौ ही परैगो। अपने द्वारे से हट के तो फूलमती भी नायँ जी, हम तुम कौन गिनत में।''
अन्नो कहती, ''देखो ये अर्जुन और कदम के नीचे कैसी पत्तों की छैयाँ है, पीने को बावड़ी का मीठा पानी और खाने को झरबेरी के लाल लाल बेर।''
दादी तड़प जातीं, ''ऐ री अन्नो! अब की तो कह दिया, फिर कभी न कहियो जे बात।''
''क्यों दादी'' मैं ज़िद करती।
''तुझे नायं पतौ! बहू ने नायं सुनायौ वा किस्सौ ?''
हम वापसी के लिए चल पड़ते। दादी अपनी एक टाँग पर उचक उचक कर चलतीं। और किस्सा भी उचक-उचक कर आगे बढ़ता।

''एक थी फूलमती। बाके ये बड़ी बड़ी आँखें, कोई कहे मिरगनैनी कोई कहै डाबरनैनी। एक बाकी ननद लब्बावती। जेई सौंताल से लगी हवेली राजा सूरसेन की। राजा जी के सन्तरी मन्तरी ने भतेरा समझायो, ''या बावड़ी ठीक नईं, नेक परे नींव धरो'' पर राजा जी अड़े सो अड़े रहे ''मैं तो यई बनवाऊँगौ महल। एम्मे का बुरौ है।''
''राजा जी पीपल के पेड़ पर भूत पिसाच और परेत तीनों का बसेरौ ए। जैसे भी भीत उठवाओगे, पीपल की छैयाँ ज़रूर छू जाएगी, जनै उगती जनै डूबती।'' सन्तरी बोले।
बस इत्ती-सी बात।
ये लो। राजाओं ने पीपल समूल उखड़वा दियौ।

राजा सूरसेन को अपनी रानी से बड़ी परेम हौ। रानी फूलमती बोली, ''राजा ऐसौ बाग बनाओ कि मैं पूरब करवट लूँ तो मौलसिरी महके, पच्छिम घूम जाऊं तो बेला चमेली।'' राजा ने ऐसौ ही कर्यौ। हैरानी देखो बेलों की जड़ सौंताल की मिट्टी में और फूल खिलें रानी के चौबारे।
राजकुमारी लब्बावती का विवाह हाथरस के कुँअर वृषभानलला के पोते से हो गया। अभी गौना नहीं हुआ था। नन्द भाभी घर में जोड़े से डोलें, सास बलैयाँ लेती, ''मेरी बहू बेटी दोनों सुमतिया।''
''पर तुम जानो जहाँ सौ सुख हों, वहाँ एक दुख आके कोने में दुबक कर बैठ जाय तो सारे सुख नास हो जायं। सोई हुआ राजा की हवेली में।''
''कैसे?'' अन्नो ने कहा।
''अरे विवाह को एक साल बीता, दो साल बीते, साल पे साल बीते, फूलमती की कोख हरी न भई।
''सास लाख झाड़-फूँक करावै, राजाजी ओझा-बैद बुलावें, नन्द किशन कन्हाई की बाललीला सुनावौ पर कोई उपाय नायं फलै।''

''एक दिन लब्बावती को सुपनौ आयौ कि तेरे भैया ने पीपर समूल उपारौ, येई मारे महल अटारी निचाट परै हैं। एकास्सी के दिन सौंताल के किनारे फिर से तैरी भाभी पीपर लगायं, रोज़ ताल में नहायं, पीपर पूजै अन जल लें तब जाके जे कलंक मिटै। फिर तू नौ महीनन में जौले जौले दो भतीजे खिलइयौ।''
लब्बावती ने सुबह सबको सपना बखानौ। अगले ही दिन एकास्सी थी। सो सात सुहागनें पूजा की थाली सजाए, सोलहों सिंगार किये, सोने का कूजा डाबरनैनी फूलमती के सिर पर धरा कर पीपल रोपने चलीं। महल की मालिन का इकलौता बेटा सबके आगे आगे रास्ता सुझाये। बाके हाथ में फड़वा खुरपी।
राजा महलन में से देकते रहे। रानी फूलमती ने लोट-लोट कर पूजा की। आपै। आप बावड़ी में उतर सोने की कुजा भरयौ और पपर-मूर पे जल चढ़ायौ। फिर सातों सुहागनों ने असीसें उचारीं। सब की सब राजी खुशी घर लौटीं।
रोज़ सबेरे पंछी-पंखेरू के जगते-मुसकते फूलमती, लब्बावती दोनों जाग जातीं और सौंताल नहाने, पीपर पूजने निकल पड़तीं। कभी राजा जी जाग जाते, कभी करवट बदल कर सो जाते।

फूलमती भायली ननद से कहती, ''तेरे भइया तो पलिका से लगते ही सोय जायं। इनकी ऐसी नींद तो न कभी देखी न सुनीं।''
लब्बावती कहतीं, ''मेरे भइया की नींद को नज़र न लगा भाभी। जे भी तो सोच जित्ती देर जागेंगे तुम्हें भी जगाएँगे कि नायं।''
डाबरनैनी फूलमती उलटी साँस भरती, ''हम तो सारी रात जगें, भला हमें जगाबे बारो कौन ?''
लब्बावती को काटो तो खून नहीं। बोली, ''क्या बात है?''
फूलमती बोली, ''अभी तुम गौनियाई नायं, तुम्हें का बतायं का सुनायं। तोरे भैया तो जाने कौन-सी पाटी पढ़े हैं कि मन लेहु पे देहु छटांक नहीं।'' फिर फूलमती ने बात पलटी, ''तुम्हारी ससुराल से संदेसो आया है अबकी पूरनमासी को लिवाने आयेंगे।''
लब्बावती ने भाभी की गटई से झूल कर लाड़ लड़ाया, ''कह दो बिन से, पहले हम अपने भतीजे की काजल लगाई का नैग तो ले लें तब गौना जायं।''

माँ ने सुना तो बरज दिया, ''समधी जमाई राजी रहें। इस बारगौनाकर दें, फिर तू सौ बार अइयौ, सौ बार जइयो, घर दुआर तेरौ।'' बड़े सरंजाम से लब्बावती कि बिदाई भई। गौने में माँ और भैया ने इत्तौ दियौ कि समधी की दस गाड़ी और राजा जी की दस गाड़ी ठसाठस भर गईं। डोली में बैठते लब्बावती ने भाभी को घपची में भर लीनो ''भाभी मेरी, मेरे भैया को पत रखना पीपल पूजा, वावड़ी नहान का नेम निभाना। मोय जल्दी बुलौआ भेजना।''
फूलमती ननद के जाने से उदास भई। राजाजी ने कठपुतली का तमाशा करायौ, नन्द-गाँव का मेला दिखायौ पर रानी का जी भारी सो भारी।

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