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आज उसने जाना कि कितना अंतर है उसमें और इन ऑटो चलाने वालों में। उनकी बातें एक दम निराली थी। मुँह में गुटका भरकर सब एक दूसरे से गाली से बात कर रहे थे। वह चुप ही रहा। जीवन जीने, ज़िंदगी को देखने का, लड़कियों के बारे में सोचने और उन्हें छेड़ने का इनका तरीका ही अलग था। कैसी बातें कर रहे थे वे अश्लील-सी और बिना शर्म-हया के हँस रहे थे। आते-जाते लड़कियों को देखकर साली-हरामजादी, कैसे मटक रही है। ऐसे ही जुमले इस्तेमाल कर रहे थे। तभी एक सुंदर-सी लड़की पास से गुज़री उसे देखकर तो एक ने ऐसा घटिया दोहा जैसा कुछ कहा कि दीप शर्म से पानी-पानी हो उठा और मन वितृष्णा से भर गया। उसने ऑटो स्टार्ट किया और बिना सवारी लिए ही माढ़ोताल की ओर चला। उसका जाना शुभ ही निकला। रास्ते में सवारियों की टोली मिली उसका ऑटो भर गया। वह खुशी-खुशी सरपट भागा। इसी तरह दिन निकल गया। रात नौ बजे उसने करीम भाई के घर ऑटो लगाया। उन्हें दो सौ रुपए दिए और अपने घर आ गया। माँ उसके इंतज़ार में ही बैठी थी। उसने जेब से पैसे निकाले और टेबल पर फैला दिया और माँ से बोला, ''देखो माँ का पता नहीं किस्मत में क्या आया?''

माँ पानी का गिलास लेकर आ गई। ले पहले पानी पी। किस्मत को मत कोस। तेरा अंश और तेरी मेहनत कहीं नहीं जाएगी और सिक्कों को गिनने में उसकी मदद करने लगी। पूरा हिसाब लगाकर दीप माँ से बोला, ''२०५ रु.ही है माँ।''
''फिर वही बात! २०० का एवरेज भी लेगा तो ६ हज़ार महीने के हो जाएँगे। तू परेशान न हो। दिन में कुछ खाया होगा डीजल भरायी होगी। निराश होने की जगह ये सोच कि तुने कुछ पॉजिटीव किया है।''

उसके होठों पर मधुर मुस्कान फैल गई। कितनी अच्छी हो तुम माँ! दीप धीरे से माँ के गले में बाहें डालते हुए बोला। मेरा बेटा क्या कम अच्छा है, अभी अपनी पढ़ाई, कॉम्पीटीशन की तैयारी सब जारी रखते हुए, काम भी करेगा। बोल भला क्या इतना प्यारा बेटा हो सकता है किसी और का?
माँ की बात सुनकर उसे अपने ऊपर गर्व हुआ। हाँ, हाँ सही में अच्छा ही तो है वो। सदा ठीक से पढ़ाई करता आया है। बाबा आज ज़िंदा होते तो सचमुच पढ़ाई के लिए समय पर पैसे मिल गए होते और आज वह ऑटो चालक नहीं इंजीनियर बन गया होता। इतना सोचते-सोचते उसकी हँसती हुई आँखों में पानी आ गया। माँ पास ही बैठी प्याज़ काट रही थी। कहीं माँ ये आँसू न देख ले इस डर से उसने बहुत तेज़ी से पलकें झपकाना शुरू किया ताकि आँसू आँख में ही समा जाए और गालों पर न बहें। विचारों की शृंखला बंद करने के उद्देश्य से उसने माँ से खाना माँगा। हाँ रे! ला रही थी इसी के लिए तो प्याज़ काट रही थी, कहती हुई माँ उठी।

खाना खाकर जब दीप बिस्तर पर लेटा तो नींद की जगह विचारों ने आ घेरा। आज बार-बार बाबा की याद आ रही थी। अगर बाबा व्हीकल फैक्ट्री में काम न कर रहे होते, असमय उनकी मृत्यु न हुई होती, तो दीप सचमुच आज कुछ और ही होता। किन रास्तों पर बढ़ रही थी ज़िंदगी और किन रास्तों पर आ गई। इतने अच्छे मार्क्स मिले थे बारहवी में! २५ हज़ार रुपए मिल जाते तो वो इंजीनियरिंग में एडमिशन पा ही जाता! अपनी ज़मीन होती तो एजुकेशन लोन भी मिलता। रश्मि भी साथ होती, और अब कितनी बढ़ चुकी होती हमारी कहानी। शायद हम विवाह कर लेते। रश्मि की याद आते ही दिल में कसक उठी। उसने कहा तो था दीप तुम इंजीनियरिंग नहीं कर रहे हो तो तब भी हम दोस्त तो है ही। पर उसने खुद ही उससे कभी बात नहीं की, कभी मिला भी तो नहीं उससे।

कैसे मिलता क्या कहता कि देखो, मैं ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा कर बी.कॉम. की डिग्री ले रहा हूँ। घर खर्च निकालने के बाद इतने पैसे नहीं बन पा रहे हैं कि सी.ए. की तैयारी करूँ। एक गहरी टीस फिर उठी ह्रदय में। प्यार का इज़हार तो दोनों में से किसी ने नहीं किया था। पर दोनों की आँखें साफ़-साफ़ दिल की बात कहती थी। अब इतना कुछ होने के बाद इज़हार का तो सवाल ही नहीं उठता। ओह, कैसी है ये ज़िंदगी! इंजीनियर बनने का सपना उसने बचपन से पाला था। जब पूरा होने का समय आया तो एक झटके में टूट गया। उसने हिम्मत रखते हुए सीए बनने का सपना देखा, पर रास्ते में इतनी अड़चनें दिखाई देती गई कि उस रास्ते से भी हटना पड़ा। अब बी.कॉम. के बाद प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करनी है। पढ़ाने में दो हज़ार से ज़्यादा मिल भी नहीं रहा था, सो दूसरी नौकरी खोजनी ही थी। तीन महीने पागल होने के बाद अंततः ये आटो चलाने का काम मिला है। पता नहीं पढ़ाई की आरजू कैसे पूरी हो सकेगी। सोचते-सोचते उसकी आँख लग गई।

सुबह दस बजे वो अपना ऑटो लेकर माढ़ोताल पहुँचा। अपना नं. आने पर सवारी लेकर बस स्टैंड पहुँचा। साइड में मोटर साइकिल पर खाकी वर्दी दिखी, पर उसने ऑटो बढ़ाया तो मोटर साइकिल पर खाकी वर्दी दिखी, पर उसने ऑटो बढ़ाया तो मोटर साइकिल उसके ऑटो के आगे जाकर रुकी। उसने समझा ड्राइविंग लाइसेंस चेक की जाएगी। अपने पॉकेट से लाइसेंस निकाला और वर्दी वाले की ओर बढ़ा दिया, ''सर देखिए। अबे, क्या है ये? टैक्स निकाल।''
''कौन-सा टैक्स सर?'' उसने अचरज से पूछा।
''कौन-सा टैक्स क्या? अपने ऑटो में आगे पीछे मिलकर दस सवारी भरे हो और टैक्स नहीं दोगे? कुछ भी न समय पाने के बावजूद उसने कहा, ''सर कितना देना होगा?'' ''अबे ५० रुपए निकाल इतना भी नहीं जानता। दुखी ह्रदय से उसने ५० रुपए दिए। खून-पसीने की कमाई यों देने में उसका कलेजा निकल गया। दोपहर को खाना खाते समय उसने एक ऑटो वाले से इस घटना की चर्चा की तो उसने अपना सिर पिट लिया। और बोला, ''भाई उसको हमलोग गुंडा टैक्स बोलते हैं और वो रोज़ दस रुपए देना होता है। तुमने तो ५० रुपए दे दिए।

दीप चकित था, ''ये गुंडा टैक्स क्या होता है?''
''तुम कितने बुद्धु हो?'' उसकी समझदारी पर लानत भेजते हुए उसने कहा, ''ये साले! किसी गुंडे से कम हैं क्या? हमारी मेहनत की कमाई में रिश्वत माँगते हैं। हम सवारी भर-भर कर घूम रहे हैं, इसलिए ये पैसे माँगते हैं, १०० से ज़्यादा ऑटो पड़ते हैं एख गुंडे के हिस्से में। बताओ कमीने को हज़ार रुपए से ज़्यादा की तो रोज़ वसूली होती है। इसलिए हम इन्हें गुंडे और रंडूए कहते हैं। अब दीप को अपने ५० रुपए जाने का नहीं वरन पुलिसवाले और व्यवस्था के पतन होने का दुख हो रहा था। आज रात को नौ बजे वह घर पहुँच गया। पर मन में दिन भर के इतने सारे विचार और इतनी थकान थी कि पढ़ना न हो सका। अपनी नई दिनचर्या और ज़िंदगी के बारे में विचार करता हुआ वह सो गया।

आज सुबह से ही उसका मन खिन्न है। कई दिन हो गए, रोज़ ही सोचता है कल से पढ़ाई शुरू करेगा, पर सुबह का समय कैसे कट जाता है पता ही नहीं चलता। और रात को तो वह थका-हारा आता है। ऊपर से हर दिन एक नया अनुभव उसे मिलता है। उसकी समझ में ही नहीं आता कि वह क्या करे। पता नहीं कैसे वह दूसरे ऑटो वाले से भिन्न दिखता है। यह दुनिया जो ऑटो वालों की है, सच काफी अलग है। कभी-कभी तो लगता है कि ऑटोवाले का जीवन ऐसा है कि सीधे और ईमानदार होकर तो काम चल ही नहीं सकता है। अब आज की ही घटना ले ले! वह ऑटो लेकर बस स्टैंड जा रहा था। मात्र तीन सवारियाँ थी उसके पास, जब वो दीनदयाल चौक पहुँचा तो उसके सामने ही बस स्टैंड से आ रहे ऑटो वहीं से मुड़ गए। दीनदयाल चौक पर उस समय दस से अधिक सवारियाँ थी। कमीनों ने झटक ली। वह वहाँ पहुँचा तो कहने लगे तुम आधे घंटे बाद आ जाना, अभी हम जाएँगे। जबकि नियम के हिसाब से किसी ऑटो को आधे रास्ते से नहीं लौटना होता है। वह तो चुपचाप देखता रहा। आधे घंटे तो नहीं दस मिनट के बाद वह खाली ऑटो लेकर ही बस स्टैंड पहुँचा। उसकी जगह कोई ऑटो वाला होता तो अच्छी-खासी लड़ाई हो जाती। दुश औऱ गुस्सा आने के बाद भी वह कुछ नहीं कह सका। उसकी आँख में बेबसी के आँसू आ गए। ये आँसू भी अजीब होते हैं। खुशी, गम हर जगह तो आते ही हैं, पर दीप को तो गुस्सा न निकल पाने पर भी आ जाते हैं।

रात को उसने तय किया कि सुबह उठकर सबसे पहले अपना एख रूटीन बनाऊँगा और उसी के अनुरूप सारे काम करूँगा तो पढ़ने का काम भी होने लगेगा। उसने खुद से वादा किया अब किसी से दबना नहीं है। उसे कभी-कभी आश्चर्य होता कि दूसरे ऑटो वाले उसे सीधे, एक तरीके का बुद्धु क्यों समझते हैं? यह सही है उसका एटीट्यूड औरों से बिल्कुल अलग है, पर है तो अच्छा नं!

पहले दिन ही वह अपना रूटीन फॉलो नहीं कर पाया। सुबह-सुबह माँ ने कई काम बता दिए। सबको निबटाते-निबटाते साढ़े दस बज गए। ऑटो लेकर निकला तो देर होने के कारण सवारी कम मिली, आधे रस्ते में ऑटो पंचर हो गया। सवारियाँ उतारनी पड़ी। कई ने तो पैसे ही नहीं दिए। जब बस स्टैंड पहुँचा तो गुंडा वसूली वाले मिले। आज उसने कुछ भी देने से इंकार कर दिया। उसने देख लेने की धमकी दी। तीन बजे के करीब वह सवारी लेकर चौक जा रहा था। उसके ऑटो में ८ सवारियाँ थी। ६ पीछे और दो सवारी आगे बैठी थी। रास्ते में उसे वर्दी वाले ने रोका। वह आराम से रुक गया। लाइसेंस माँगने पर उसने लाइसेंस दे दिया। लाइसेंस देखकर उसने कहा सवारी उतारो।

दीप ने अचरज से पूछा, ''क्यों? मेरे पास तो लाइसेंस है।''
जवाब मिला, ''ओवर लोडिंग जुर्म है नहीं जानता तु?''
''पर, सर इस ऑटो में ८ सवारी तो बैठाना अलाऊ है ही। मेरे पास तो आठ ही हैं आप गिन सकते हैं।'' ''हाँ, वे साले कानून पढ़ा तु मुझे ही। आठ के बच्चे! तुने दो सवारी आगे क्यों बैठाएँ हैं। अब चपड़-चपड़ बंद कर और ऑटो खड़ा कर दे।'' सामने और पीछे से आने वाले हर ऑटो में आगे तीन से चार सवारियाँ बैठी थी। पर किसी को रोका नहीं गया। उसकी इच्छा हुई कि वह ज़ोर-ज़ोर से चीख कर बोले कि जो ओवर लोडिंग कर रहे हैं उन्हें तो पकड़, मुझ पर क्यों खुन्नस निकाल रहा है। पर वह कुछ भी बोल नहीं पाया। वापस पीछे खड़ी अपनी ऑटो के पास आया और सवारियों से उतर जाने की प्रार्थना की। सभी कहने लगे, ''भाई, तुमने तो ओवर लोडिंग नहीं की है, ज़रूर बदला वसूल रहे हैं ये लोग किसी बात का।''
उसके हाथ से चाभी लेते हुए वर्दी वाला बोला, ''शाम को या तो खुद आ जाना या अपने मालिक को भेज देना।''
उससे निबट कर उसने करीम भाई को फोन किया, औऱ सारी बातें विस्तार से बता दी। फिर तो करीम भाई का नया रूप सामने आया। उन्होंने कहा कि शाम को थाने जाकर आवश्यक कारवाई पूरी कर ले औऱ आटो छुड़ा ले।

दीप के मुँह से आवाज़ नहीं निकली। वह सुनता रहा और सोचता रहा, ऐसा कैसे हो सकता है। ऑटो छुड़ाने में डेढ़ से दो हज़ार रुपए लगेंगे, ज़्यादा भी लग सकता है। वह कैसे चुकाएगा ये सब। पूरे शहर में भाड़े के ऑटो का नियम है कि ऑटो पकड़ाने पर मालिक ही पैसे भरते हैं। ऑटो खराब होने पर मालिक ही ठीक कराते हैं। अभी उसी दिन उसने ३०० रुपए में आटो बनवाया था। उसका दिल रो उठा। उसने धीरे से फोन रख दिया।

शीशथिल कदमों से घर पहुँचा तो माँ उसका चेहरा देखते ही घबरा गई। सारी बात सुनकर बोली, ''तू करीम भाई के घर जा, उन्हें फिर से सारी बात बता, कह देना हम इतने पैसे कहाँ से लाएँगे? फिर थाने में ऑटो के काग़ज़ात भी तो दिखाने होंगे।'' माँ की बात सुन कर दीप थोड़ा आशान्वित हुआ। करीम भाई के घर पहुँचा तो वे आराम से बैठकर चाय पी रहे थे। दीप ने नमस्ते किया और कहा, ''भाई थाने जाकर ऑटो छुड़ा लीजिए।''
रोज़-रोज़ ओवर लोड़िंग करके पैसे तू कमाए और आज जब पुलिस पकड़ती है तो पैसे मैं चुकाऊँ। तुने कभी २५० से ज़्यादा दिए हैं मुझे कि लो करीम भाई ओवर लोड़िंग करके खूब कमा रहा हूँ, कुछ तुम भी खाओ। ये लो गाड़ी के काग़ज़ात के फोटो कॉपी है ये और जाकर आज ही गाड़ी छुड़ लो।

बातें इतनी तमक के साथ हुई कि दीप कोई जवाब नहीं दे पाया। चुपचाप काग़ज़ात उठाकर घर आ गया। माँ ने दो हज़ार रुपए का प्रबंध कर दिया। थाने में भी सबको आश्चर्य हुआ कि करीम भाई खुद गाड़ी छुड़ाने नहीं आया। दरोगा ने उसपर तरस खाते हुए कहा, ''तू डेढ़ हज़ार ही दे दे और गाड़ी ले जा।
बाहर निकला तो सुबह वाला गुंडा दिखा, मुँह से पान का रस टपकाता हुआ बोला, ''देख बेटा! जल में रह कर मगर से बैर नहीं पालते।''
दीप ने कोई जवाब नहीं दिया और ऑटो लेकर करीम भाई के घर की ओर चला।

घर पहुँचा तो काफी परेशान था। सारी रात वह मानसिक द्वंद्व से जुझता रहा। दूसरे दिन ग्यारह बजे आटो लेकर सीधे बस स्टैंड ही पहुँचा। वहाँ दो ऑटो पहले से ही खड़े थे। उसने अपना ऑटो पीछे कर लिया। वे दोनों सवारियाँ भी भरते जा रहे थे और दीप को चिढ़ाते भी जा रहे थे। एक ने कहा, ''अरे यार तू सचमुच भोला है। करीम भाई को ऐसा नहीं करना चाहिए था।'' दीप को लगा ये लोग उसके साथ हैं। लेकिन तभी दूसरे ने कहा, ''अरे यार ये तो लल्लू है इससे ऑटो क्या चलेगा, इसे तो घर बैठना चाहिए।'' फिर दोनों हो-हो कर हँसने लगे। पहला फिर बोला, ''इसके पास पैसे बहुत ज़्यादा हैं। आसानी से तीन हज़ार रुपए कल इसने चुकाए हैं। इसे सवारी की क्या ज़रूरत है। सवारी की ज़रूरत दो हम जैसे ग़रीबों को है। इसे यहीं बैठने दो। अभी तो सवारी लेकर हम ही जाएँगे।'' तभी तीसरा ऑटो वाला आ गया। उनकी बातों में सम्मिलित होता हुआ बोला, ''हाँ भाई! तू यहीं बैठ, अभी इनके बाद तो ऑटो लेक मैं जाऊँगा।'' अब दीप अपना क्रोध न सँभल सका। उसने तीसरे ऑटोवाले के एक थप्पड़ दे ही दिया। और बोला, ''इन दोनों के बाद मेरा नंबर है। मैं जाऊँगा। यह स्यानापन किसी और को दिखाना।'' पर दीप की यह बड़ी ग़लती साबित हुई। अब तो तीनों ऑटो वाले एक साथ उस पर पिल पड़े और गालियों, लातों और घुस्सों से उसे कुट ही डाला। सारे लोग तमाशा देखते रहे। किसी ने लड़ाई बंद कराने की कोशिश नहीं की। थोड़ी देर के बाद पुलिस आई। तब उसके हस्तक्षेप से मामला रफ़ा-दफ़ा हुआ। दीप को काफी चोट आई थी। एक ऑटो वाला आगे आया और दीप को अपने ऑटो में डाल कर हॉस्पिटल ले गया।

शाम तक दीप की हालत बहुत सुधरी थी। दीप की माँ को ख़बर भेजी गई। वे दौड़ी-दौड़ी आईं। उस समय तो सिर्फ़ रो रही थी, पर अब कहा, ''बेटा बहुत हो चुका अब तो चाहे जो हो ये आटो चलाना बंद कर दे। ऐसे भी पढ़ाई नहीं हो पा रही है तेरी। मैंने समझा था तू बहादुर है, हर काम कर लेगा, पर तेरी जान की कीमत पर मुझे कोई काम नहीं कराना है।''

आज तक दीप माँ के सहारे ही सारे अवरोधों के साथ भी मुस्कुरा रहा था। पर आज माँ का यों हताश हो जाना उसे रूला गया। अपनी कॉन्फिडेंशियल माँ को उसने ही इतना तोड़ दिया है सोच कर उसकी आँखें भर आईं। बिना कोई जवाब दिए वो सो गया। मन ही मन वो इस का दूसरा हल ढूँढ़ना चाह रहा था। दिल का एक कोना कह रहा था कि उसे ऑटो चलाने का काम छोड़ देना चाहिए। दूसरा कोना कहता नहीं यही तो चुनौति है। ऊपर से माँ का दिल टूट गया है, उसे यही काम करना है और कुछ कर दिखाना है।

सुबह उठने पर उसने उन्हीं सज्जन को अपने पास बैठे देखा जो उसे हॉस्पीटल लेकर आए थे। उन्होंने मुसकुरा कर पूछा, ''अब कैसे हो दीप?''
दीप ने कहा, ''ठीक हूँ।'' उसकी आँखों में कई प्रश्न थे। लेकिन पूछने की ज़रूरत नहीं आई। उन्होंने खुद ही कहा, ''तुम मुझे नहीं पहचानते हो। लेकिन जिस दिन तुमने ऑटो चलाना शुरू किया था। हर रूट के ऑटो वालों ने तुम्हें जान लिया था। पहले ही दिन से तुम्हारी चर्चा होने लगी थी। मेरा नाम रमेश यादव है। मेरे पास चार ऑटो हैं। तीन तो मैंने किराये से चलाने को दे दिए हैं और एक खुद चलाता हूँ। निराश होने की ज़रूरत नहीं है। तुम बहुत अच्छे लड़के हो। पर थोड़ी दुनियादारी की कमी है तुम्हारे अंदर।''
माँ ने कहा, ''उम्र ही कम है इसकी और कभी ऐसे पचड़ों में पड़ा भी नहीं था। मैंने तो सोचा था इसी काम को करते हुए दीप अपनी पढ़ाई भी कर लेगा। पर अब तो नहीं, कुछ भी हो मैं इसे करने नहीं दूँगी।''

रमेश जी ने तुरंत उसकी बात काटते हुए बोले, ''अरे नहीं ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है। करीम तो है ही बदमाश। आप लोगों से ग़लती ये हुई कि खुद ऑटो छुड़ाया। करीम भाई ने आपका फ़ायदा उठाया है। आपको ऑटो नहीं छुड़ाना चाहिए था। ज़्यादा से ज़्यादा वे दीप को कहता कि जाओ काम छोड़ दो बस। और काम छूट जाता भी तो दूसरा मिलता। ख़ैर कोई बात नहीं। तुम चाहो तो मेरा ऑटो चलाओ। बस ये है कि ग्वारी घाट रोड पर चलानी होगी और साथ में मैं रहूँगा ही। और तुम मुझे रोज़ सौ रुपए ही देना। डेढ़ सौ रुपए मेरी तरफ़ से अपनी पढ़ाई के लिए बचा लेना। होनहार बच्चों की मदद करने में तो सबको खुशी होती है। दीप और उसकी माँ की आँखों में कृतज्ञता के आँसू आ गए।

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२६ अक्तूबर २००९

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