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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से महेशचंद्र द्विवेदी की कहानी— 'चाची'


चाची! तुम पूछोगी नहीं, 'लला! मेम साहब कौ नाईं लाए का?'

मैं आ गया हूँ और तुम्हें बताने को उत्सुक हूँ कि मेम साहब भी आईं हैं, मेरे पीछे बरामदे के दरवाज़े पर किवाड़ का सहारा लेकर खड़ीं हैं- तुम्हारे द्वारा पूछे जाने की प्रतीक्षा वह भी कर रहीं हैं। पर हम जानते हैं कि यह प्रतीक्षा तो हमारी मृगतृष्णा शांत करने को मृगमरीचिका मात्र है- तुम तो हमसे इतनी रूठ गई हो कि कभी भी हमसे कोई पूछताछ न करने का संकल्प ले चुकी हो।

दोपहरी हो चुकी है और दोपहर चाहे जाड़े की हो, बरसात की हो या गर्मी की, उस समय तुम्हारे मुहल्ले की दस-पाँच स्त्रियाँ तो तुम्हें घेरे ही रहती हैं- मुनुआँ की दादी को अपनी बहू द्वारा उलटा जवाब दिए जाने की शिकायत करनी होती है, चमेली को अपनी सास की गालियों से तंग आकर अपने दिल की भड़ास निकालनी होती है, चुन्नी को पेट में बच्चा आ जाने की ख़बर देकर खाने पीने के परहेज के बारे में पूछना होता है, स्यामा की बिटिया की आँख कल्लू कुम्हार से लड़ जाने की बात राजकुमार की बहू के पेट में पच न पाने के कारण तुमसे कनसुआ करना होता है, और सीधी-साधी सुसीला की जीभ को तुम्हारी चुनौटी का चूना और तुम्हारे रूमाल के एक कोने में बँधी तम्बाकू की कुछ पत्तियाँ खाने की छटपटाहट ले आती है।

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