|  
                    एक शाम स्कूल से लौटी तो अजीब सी 
                    महक का अहसास हुआ। कमरे में पहुँची तो महक कुछ तेज़ लगी। लगा 
                    खिड़की खोलकर देखूँ कि माजरा क्या है। माली ठीक से सफ़ाई कर 
                    रहा है या नहीं। सिटकनी गिराकर खिड़की खोली तो खमीरी गंध का 
                    तेज़ झोंका भीतर घुस आया। यह समझने के लिए कि आखिर ये है 
                    क्या,  नीचे झाँका तो लाखों की तादात में बड़ी वाली मक्खियाँ 
                    ज़मीन पे बिछे नन्हें-नन्हें सड़े हुए फलों पर भिनभिना रहीं 
                    थीं। इन गले हुए फलों के प्रताप से पूरा कम्पाउंड खमीरी-खमीरी 
                    महक रहा था। शः मैंने नाक और खिड़की दोनों 
                    बंद की अगले दिन माली पर बरसी, ''कितने दिन से पीछे वाले आँगन 
                    में झाड़ू नहीं लगाई है?''''रोज़ ही लगाता हूँ भाभी जी।''
 ''रोज़ लगाते हो तो इतना कचरा कैसे इकट्ठा हो गया यहाँ?''
 ''कदंब में तो कचरा होता ही है भाभी जी।''
 ''माना कचरा होता है, पर ये तो सड़े 
                    हुए हैं। कितने दिन से सड़ रहे हैं यहाँ?' 
                    गिरते ही सड़ गए बारह घंटे के 'भीतर?''
 ''भाभी जी, आप बेकार नाराज़ हो रही हैं, ये तो डाल पर 
                    ही सड़ने लगते हैं, फिर नीचे गिरते हैं तो इस बरसाती उमस में 
                    बहुत खमीरी महक छोड़ते हैं।''
 समझ में नहीं आ रहा था कि 
                    क्या कहूँ। मुझे कदंब का स्वभाव नहीं मालूम था। उससे मेरा कोई 
                    पुराना परिचय भी तो नहीं था। मैं तो यहाँ माली से ही उसके बारे 
                    में समझ बूझ रही थी। ''तो फिर क्या करूँ?' यहाँ तो 
                    मक्खियाँ भरी पड़ी हैं।''
 ''कर तो कुछ नहीं सकते भाभी जी, दिन में दो बार सफ़ाई कर 
                    देंगे। इतनी जगह तो नहीं है कि फलों को मिट्टी में दबा दिया 
                    जाय।''
 ''हत् तेरे की तो क्या फलों का सारा मौसम यही गंध सूँघते जाएगा?''
 ''मैं तीन बार साफ़ कर दूँगा भाभी जी।'' माली ने सहयोग 
                    प्रदर्शित करते हुए कहा।
 कदंब से मेरी दोस्ती लगभग खतम 
                    हो चुकी थी। हर प्यारी दोस्ती का अंत ऐसा ही क्यों होता है?' 
                    पिछले दो तीन महीनों से मैं पीछे वाले बरामदे में भी नहीं गई 
                    थी। एक तो समय की कमी फिर बदबू और भिन्नाहट। अब मुझे पता चला 
                    कि इस घर में हमसे पहले रहनेवाले लोग बरामदे की वह खूबसूरत 
                    झूलने वाली बेंत की कुर्सी इतने विरक्त भाव से क्यों छोड़ गए 
                    थे।  इस बार दशहरे दीवाली की 
                    मिलाकर लंबी छुट्टियाँ हुई थीं। हमने भी घूमने का कार्यक्रम 
                    बनाया। छोटी बहन की शादी भी थी। तैयारियों, मेहमानों, 
                    भीड़-भाड़ और काम के बीच मुझे न घर याद आया न पीछे का बरामदा। 
                    वापस लौटे तो नवंबर का अंत हो रहा था। जमशेदपुर का मौसम 
                    सुहावना हो चला था। गमलों में गेंदे की नन्ही पौध रोप दी थी 
                    माली ने। नरेन बोले, ''अपनी प्रिय 
                    जगह नहीं देखोगी'-' तुम्हारा वह पीछे 
                    वाला बरामदा?'''सुनते ही मेरी नाक मे उस खमीरी महक का एक तेज़ झोंका 
                    आया और चला गया।
 न... वह झोंका नहीं था, कोई याद थी। अब वहाँ कोई पककर सड़ते 
                    हुए फल नहीं थे। मक्खियाँ अपने घर को लौट गई थीं। सारी सफ़ाई 
                    करके माली ने नए गमले लगा दिए थे। घास बिना कच्ची ज़मीन साफ़ 
                    रहे इसलिए नरेन ने कंकरीट बिछवाकर ईंटें चुनवा दी थीं। कदंब 
                    साफ़ सुथरा शांत खड़ा था। जैसे अपनी गलती पर पछता रहा हो। मुझे 
                    अपना साफ़-सुथरा बैकयार्ड देखकर बड़ी राहत मिली।
 आज रविवार था, सबकी छुट्टी का 
                    दिन। दोपहर के खाने का इंतज़ाम पीछे के बरामदे में ही किया। 
                    मटर-पुलाव और खीर। अपने घर में अपने परिवेश को अपनेपन से महसूस 
                    करते हम देर तक वहाँ बैठे। पिछले तीन चार महीनों में कदंब की 
                    डालें खूब फैल गई थीं। कुछ डालें तो हमारी छत की बालकनी को 
                    छूने लगी थीं। माली बोला, ''भाभी जी किसी को बुलाकर इन्हें कटाना पड़ेगा।''
 ''अच्छा ये दो डालियाँ?''
 ''नहीं, दूसरी तरफ़ भी कुछ कटवानी होंगी। वे लोग ठीक से 
                    समझकर काट देंगे संतुलन बराबर बनाना पड़ता है।''
 फिर हम देर तक घूम घूम कर देखते रहे कि कौन-कौन-सी डाल कहाँ 
                    कहाँ से कटवानी है।
 ''एक ही बार में जितना कटवाना है कटवा दो,  नरेन ने कहा, 
                    एक बार कटवाने के पाँच छे सौ रुपये लगेंगे।''
 ''क्या कटवाना ज़रूरी है?'' मैंने धीरे से माली से पूछा।
 ''जी भाभी जी, वर्ना दिसंबर जनवरी तक तो आपका पूरा घर घेर 
                    लेगा। सर्दियों में एक टुकड़ा धूप तक नहीं आएगी घर में।''
 ''अच्छा...''
 ''हाँ हर साल ही काटते हैं।''
 न जाने क्यों यह वार्तालाप 
                    सुखद नहीं लगा। ऐसा हृष्ट-पुष्ट सुंदर अचल अविचल पेड़, जिससे 
                    अनायास ही दोस्ती करने को मन करे काट-पीटकर बराबर कर देंगे?
                    'माना बीच के कुछ दिन अच्छे नहीं रहे थे तो भी क्या 
                    हुआ... मुझे तो उसका यह साफ़ सुथरा रूप देखकर फिर से दिनभर 
                    पीछे के बरामदे में बैठने का मोह जागने लगा था।'
                    'उदास मन से मैंने जूठे बर्तन समेटकर रसोई के सिंक में 
                    रखे, बचे हुए खाने को फ़्रिज में डाल, सीढ़ियों के पास तिपाई 
                    पर रखी एक पत्रिका उठाकर ऊपर' 'आगई। 
                    खिड़की खोली तो कदंब आसमान से गले मिल रहा था। उसकी लंबी 
                    कलात्मक बाहों का अंतहीन विस्तार अकथनीय आकर्षण अपने में समेटे 
                    था जिस पर झूला डाल कोई भी बांके बिहारी और राधा की छवि के 
                    दर्शन कर सकता था। मैं देर तक उसे देखती ही रही- वह स्वस्थ था, हरा भरा था, 
                    लगातार छँटाई की मार सहता दो ऊँची इमारतों के बीच अपने 
                    अस्तित्व के ताने बानों को जोड़ता कंकरीट से दबाए जाते अपने 
                    सीने के दर्द को टटोलता, कार्बन डाई आक्साइड का ज़हर बुझाता 
                    आक्सीजन के नन्हें गुबार छोड़ता चुप गर्दन झुकाए खड़ा था। जैसे 
                    किसी मासूम बच्चे को उसकी माँ ने शरारतों से तंग आकर कोने में 
                    खड़ा कर दिया हो और उसे वहाँ से हिलने डुलने की इजाज़त न हो। |