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मैं बोला, ''वहाँ हर आदमी आज़ादी चाहता है। मेरी बेटी दिव्या तो अमरीका जाने का जुगाड़ बना रही है। वहीं घर भी बसा लेगी। कंप्यूटर इंजीनियर है। अम्मा, आज के बच्चे अपने मन के हैं। उनके रास्ते में कोई रुकावट नहीं डाल सकते हम लोग, नहीं तो परिणाम और भी बुरे हो सकते हैं।''

दो अलग-अलग संस्कृतियों के बीच झूलता हूँ मैं, जब गाँव में प्रवेश करता हूँ। जिस परिवेश में मैं पैदा हुआ, बड़ा हुआ, अब वही सब कितना तुच्छ, सुविधाविहीन और पिछड़ा हुआ लगता है। यहाँ रुककर अब ऐसा लगता है कि कुछ दिन और रह लिया तो दुनिया से बहुत पीछे रह जाऊँगा मैं! कुछ देर तक गाँव आकर्षित करता है। लगता है, इस जगह सब समान हैं। बुल्लेशाही की कविता की तरह जो हम बचपन में गुनगुनाते थे- 'चल बुल्लियाँ, चल ओथे चलिए, जित्थे रहदें अन्ने, ना कोई साड़ी जात पछाने, ना कोई सानूं मन्ने।' यानी वहाँ चलकर रहें जहाँ सब अंधे बसते हों जो हमारी जाति न पहचान सकें! कितनी समता और बरकत है यहाँ की आबोहवा में। किसी में कोई महत्वाकांक्षा नहीं। कोई होड़ नहीं। ज़्यादा से ज़्यादा कमाने की  लालसा नहीं। बस, जो हो जाए, वही काफी है।

अपनी नियति के सामने सिर झुकाकर जीने की कला है इन लोगों में। जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ किस्मत, भगवान, रिश्ते, भरोसा, कुनबा जैसी संकल्पनाएँ नहीं हैं। वहाँ चूहा-दौड़, एंबीशन, जुगाड़, पर्सनेलिटी ज़्यादा महत्व रखते हैं।

अम्मा से साल में एक बार मिलने के लिए आता हूँ मैं। भाई कब के रिटायर हो चुके हैं। अब गली की तरफ़ तीन दूकानें निकाली हैं उन्होंने। मेरे हिस्से के प्लॉट पर भी मकान बन चुका है। एक हिस्से में उनका बड़ा बेटा सपरिवार रहता है और एक हिस्से में ढोर-डंगरों के लिए खपरैल डाली है।

कई बार अम्मा कहती, ''देव, तू पढ़-लिखकर शहर में इतनी तरक्की कर गया, कोठी बना ली। तेरे बड़े भाई मनोहर का इतना बड़ा टब्बर! उसके किसी बेटे की ढंग की नौकरी नहीं, दो लड़कों को तो खेती का ही आसरा है। गाँव की जायदाद में जो भी तेरा हिस्सा है, मनोहर के नाम कर जा। दुआएँ देगा वह। उसने हमेशा मेरा ख़याल रखा है। उसकी बहू सुधा से मेरी सारी उम्र नहीं बनी। आज भी मैं अपने हिस्से के मकान में बैठी अपने हाथों से बनी रोटी खाती हूँ, मगर मनोहर हर वक्त मेरा ख़याल रखता है। कभी कुबोल नहीं बोला उसने। कभी-कभी ज़रूर तेरे बारे में कसैली बातें करता है कि देव ने कभी चार पैसे भेजे हैं तुझे या उसके परिवार का भी फर्ज़ बनता है कि तेरी देखभाल करें। अब मैं कुबड़ी हो गई हूँ। घर का राशन वही लाकर देता है। हर महीने पाँच सौ रुपए अपनी पेंशन में से देता है। पत्नी मना नहीं करती उसे। अब जैसा भी है, मेरे चुग्गे का इंतज़ाम करता है वह। तुझसे खर्च के लिए क्या कहूँ! तू हमेशा तंग ही रहा। कभी मकान की किस्तें तो कभी बच्चों की पढ़ाई का खर्च। अब कुछ अरसे से तू रुपए दे जाता है, वो मैं अपने किरिया-करम के लिए जमा करती जा रही हूँ ताकि खर्च को लेकर तुम दोनों भाइयों में 'फिक' न पड़े। तू तो बहुत दूर रहता है। मैं मर गई तो सारा बोझ मनोहर पर ही पड़ेगा। बेटे, मनोहर के बारे में कुछ सोचना। मेरे जीते-जी पुश्तैनी जायदाद का निबटारा हो जाता तो...।''

अम्मा के बार-बार कहने के बावजूद, पता नहीं क्यों, मेरे खून ने कभी ज़ोर नहीं मारा कि मैं अपने हिस्से की ज़मीन व मकान मनोहर के नाम कर दूँ। सुना है कि आजकल तो गाँवो में भी ज़मीन लाखों के भाव में बिकती है। मैं यहाँ जोश में आकर कुर्बानी दे जाऊँ और उधर मेरी श्रीमती मुझे सारी उम्र कोसती रहे।

मनोहर और मेरे बीच लेन-देन की बात बीस साल पहले उठी थी। यहाँ शहर में किसी तरह मैंने तीन सौ गज का प्लॉट ख़रीद लिया था, मगर उसके ऊपर मकान खड़ा करने का कोई जुगाड़ नहीं था मेरे पास। जो लोन मिल रहा था वह काफी नहीं था क्यों कि मेरी श्रीमती आलीशान घर बनाना चाहती थीं। उधर बच्चों की पढ़ाई का खर्च!

मैं बड़े चाव से गाँव आया था कि भाई से पैसे लेकर मकान बनाऊँगा। अम्मा ने सुना तो वह बहुत खुश हुई कि चलो छोटे बेटे का शहर में ठिकाना बना। मगर भाई व भाभी को अच्छा नहीं लगा। कहने लगे, ''यहाँ से हज़ारों कोस दूर ठिकाना बनाने का क्या फ़ायदा? यहाँ तुम्हारे रिश्तेदार हैं, कुनबा है, टब्बर है। यहाँ जड़े हैं तुम्हारी। अनजान बिरादरी में कल बच्चों का शादी-ब्याह...।''

अगले दिन पता चला कि उनके बिसूरने का कारण कुछ और ही था। वे मेरे हिस्से की दबाई जायदाद से हाथ धोना नहीं चाहते थे। मैंने अम्मा से बात चलाई कि मेरे हिस्से का जो भी बनता है, चाहे थोड़ा कम ही सही, मुझे दिलवाया जाए, ताकि मैं भी अपने मकान को बनवाना शुरू कर सकूँ।

अम्मा चाहकर भी कुछ फ़ैसला न करवा पाई- मनोहर तो बिफर गया। बोला, ''तुझे पता नहीं कितना झंझट है इन ज़मीनों में! काग़ज़ों में हमारी तीनों बहनों और काकू चाचा का नाम भी है। काकू चाचा कुँवारा ही मरा मगर उसकी रखैल के घर पैदा हुआ लड़का भी बराबर का हिस्सेदार है। तू शहर में रहता है, सारे कानून जानता होगा। यहाँ कुछ दिन रुककर पटवारी व तहसीलदार से मिलकर कोशिश कर, शायद ज़मीन हम दोनों भाइयों और अम्मा के नाम हो जाए। फिर तीन हिस्से करके तेरा हिस्सा बेच देंगे। मैं तो एक लड़की की शादी कर चुका। रिटायरमेंट के आधे पैसे वहाँ लग गए। एक लड़की अभी भी दीवार की तरह सिर पर खड़ी है। बच्चे भी नौकरी नहीं करते कि उनसे पैसे पकड़कर तुझे दे दूँ। तू तो अफ़सर आदमी है। सौ जगह रसूख हैं तेरे। कहीं से कर्ज़ लेकर मकान बना ही लेगा...।''

मुझे इतना मुश्किल रास्ता बताया गया जितना उस राजकुमार को कहा गया था कि कई मुसीबतें झेलकर राक्षस को मारकर मणि लाएगा तब राजकुमारी उससे शादी करेगी। दो सप्ताह मैं वहाँ टिका रहा। टेनिस की गेंद की तरह इधर से उधर टप्पे खाता रहा। अम्मा तो अशक्त हो चुकी थी और भाई के घर की कमान सुधा भाभी के हाथ में थी। उसकी मजबूरियाँ भी साफ़ नज़र आ रही थीं मुझे। उनके पास पाँच-सात लाख का कोई जुगाड़ नहीं था कि वे मेरा हिस्सा ख़रीद लेते। भाई के बैंक में पैसा था मगर सुधा भाभी ने साफ़ मना कर दिया। मुझे साफ़ तौर पर बता दिया गया कि घर तो पुश्तैनी है जिसके एक हिस्से में अम्मा का डेरा था जहाँ मेरी बहनें न साझे रिश्तेदार आकर टिकते थे। अम्मा के जीते-जी वह हिस्सा तो बेचा नहीं जा सकता था। दूसरे बड़े हिस्से में भाई का टब्बर था। ज़मीन बेचकर अपना तीसरा हिस्सा ले जाने के लिए मुझसे कहा गया, मगर ज़मीन के काग़ज़ ठीक करवाने में बहुत सिरदर्दी थी।

पिता जी ने मरने से पहले यह सब ठीक करवाने की ज़रूरत नहीं समझी थी। उन्हें क्या पता कि लाखों का भाव होते ही ज़मीन पर सब की निगाहें हो जाएँगी। मास्टर थे वह। एक दिन दिल का दौरा पड़ा। मनोहर भाई ने अभी बी.एड. किया ही था। पिता जी का स्कूल प्राइवेट था सो अम्मा को कोई पेंशन नहीं मिली। बाद में भाई की नौकरी सरकारी स्कूल में लग गई थी।

पंद्रह-बीस दिन तहसील के चक्कर काटने के बाद मुझे पता चला कि ज़मीन को फौरन बेचने का काम इतनी आसानी से होने वाला नहीं है। पहले तो मैं तीनों बहनों को एक जगह इकट्ठा करूँ, वे भी मुझसे ख़ासी नाराज़ थीं। हमारे अविवाहित चाचा का नाम भी दावेदारों में था। उनकी एक रखैल और उनसे हुए बच्चों का भी पता चला मुझे। यानी पाँच-सात लाख का अपना हिस्सा लेने के लिए बहुत दौड़-धूप करनी पड़ती मुझे। उधर ऑफ़िस से पत्र आ गया था कि जल्दी पहुँचो।

अपना माथा पीटकर थक-हारकर मैं खाली हाथ वापस लौट आया। अम्मा खुद मनोहर के आसरे थी, मेरी कोई मदद क्या करती या मेरे लिए क्या ज़ोर लगाती! वह तो शुरू से ही कहती रही हैं कि मैं अपना हिस्सा मनोहर को दे दूँ तो कुनबे में मेरी अच्छी इज़्ज़त बनी रह सकती है। फिर भी आते समय अम्मा ने आश्वासन दिया था कि वह मनोहर को मनाएगी कि दोनों भाई जायदाद का बँटवारा कर लें, ज़मीन मनोहर रख ले और देव को उसके हिस्से के रुपए दे दे।

मेरे घर में सारी बात सुनकर मेरी श्रीमती का मूड भी बिगड़ गया। सारी उम्र यह फाँस उसके गले में अटकी रही। इसके चलते श्रीमती और हमारे बच्चों ने कभी गाँव का रुख नहीं किया। हाँ, लोकलाज के डर से और अम्मा व रिश्ते-नाते निबाहने की गरज से मुझे ही साल में गाँव का एकाध चक्कर लगाना पड़ता। भाई-बहन भी मेरे यहाँ कहाँ आ पाते थे!

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