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''मुझे कुछ मत कहिए, सर......मुझे कुछ मत कहिए। इस समय मैं कुछ भी सुनने की स्थिति में नहीं हूँ।`` तरुण अश्रुविह्वल बेचैनी के साथ उसके कमरे से बाहर निकल आया और स्टील ट्रांस्फर कार के पास, जिस पर संदीप की चिता बना हुआ वह लैडेल रखा था, जाकर खड़ा हो गया। उसकी आँखें ठहर गईं खौलते हुए लाल द्रव पर। देह-दहन की एक तेज गंध अब भी बाल्टी से बाहर निकल रही थी। उसका क्रन्दन कर रहा अन्त:करण पूछने लगा -
संदीप, मेरे दोस्त! मरने की यह कौन-सी शैली हुई यार? लोग बड़े-बड़े हादसों में दबकर, कुचलकर, कटकर मर जाते हैं.....लाशें विकृत हो जाती हैं.....टुकड़ों में बँट जाती हैं.....लेकिन तुम्हारी यह मौत तो ऐसी मौत है जिसमें लाश निकली ही नहीं.....कहीं है ही नहीं तुम्हारा पार्थिव शरीर। ऐसी मौत तो कभी नहीं देखी-सुनी गई यार। सबकी आँखों के सामने तुम मौत के मुँह में गए.....फिर भी सबको असहाय कर गए.....कुछ भी करने की किसी के पास कोई युक्ति नहीं। सबके सामने निकले तुम्हारे प्राण.....फिर भी किसी को पता नहीं कि तुम्हारी अस्थि कहाँ है....तुम्हारा धड़ कहाँ है.....तुम्हारा शारीरिक ढाँचा कहाँ है? ऐसा लगता है तुम कभी थे ही नहीं....कभी हो ही नहीं।

तुम थे इसका प्रमाण तो है....लेकिन अब तुम नहीं हो, इसे हम कैसे प्रमाणित करें, संदीप? कई दिनों से तुम यही कर रहे थे। मैंने पिछले सप्ताह ही तुम्हें टोका था, ''संदीप, कोई छोटा-मोटा नुक्स भी हो तो बिजली ऐसी खतरनाक चीज है जिससे इतना ऊपर चढ़कर अकेले कभी छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। मेंटेनेंस के लिए दो आदमी के एक साथ रहने का चलन यों ही नहीं बना दिया गया है।``

तुमने कहा था, ''सिर्फ पैनल में कोई ओवरलोड स्विच ट्रिप कर जाता है यार। फोरमैन घोचूँ मुझे इस काम के लिए अकेले हाँक देता है.....तुम तो जानते हो कि वह मुझसे कुछ ज्यादा ही मोहब्बत करता है....मैं ऐसा लल्लू हूँ कि मुझे इनकार करना आता ही नहीं।``

अब मैं किससे पूछूँ संदीप कि आज डी एम तुम्हारी मौत की खबर देने से मना कर रहा है, मैं इनकार कैसे करूँ?``

तरुण गहरे अन्तर्द्वन्द्व में निमग्न था तभी अचानक उसे कंधे पर एक सांत्वना भरा स्पर्श महसूस हुआ। वह उसका एक करीबी दोस्त केतन था। उसने कहा, ''आओ, चलें तरुण। रुककर भी कुछ पा न सकोगे, यार।``

पीछे विभाग के अन्य अधिकारी प्रबंधकीय रौब में उसे घूर रहे थे। उनकी मुद्रा सख्त और तनी हुई थी, जैसे वे धमका रहे हों कि बहुत नौटंकी हो गई.....शराफत से नहीं मानोगे तो हमें टेढ़ा बनना भी आता है।

कुछ ही देर बाद देखा गया कि स्टील ट्रांस्फर कार पर से लैडेल ओवरहेड क्रेन द्वारा उठाया जाने लगा। तरुण हैरानी से देखने लगा कि आखिर क्या करनेवाले हैं ये लोग इस चिता में बदले हुए अजूबे कैम्बिनेशन से बने इस मोल्टेन स्टील का? क्रेन ने उसे ले जाकर १६०० डिग्री सेंटीग्रेड पर गर्म वेसेल में दोबारा हीट करने के लिए उढ़ेल ढाला। अब संदीप के जिस्म की बची-खुची गाँठें भी पिघलकर तरल बन जाएँगी। इस चरम दुर्गति पर तरुण और भी कातर हो उठा। उसकी आत्मा चीत्कार उठी - हाय संदीप! तुम्हारा जिस्म अब पूरी तरह इस्पात में एकाकार हो गया। मतलब अब तुम पुल बन जाओगे....रेल की पटरी बन जाओगे....डब्बे बन जाओगे.....जहाज बन जाओगे....कूलर, फ्रिज, गैंता, कुदाल, पाइप, खंभे, छुरी, चाकू, बंदूक, रिवाल्वर, तोपखाना और पता नहीं किस-किस चीज में रूपांतरित हो जाओगे। लेकिन नहीं ढलोगे तो फिर से आदमी में....और आदमी में नहीं ढलोगे तो अपनी नवविवाहिता के सुहाग, बूढ़े कृशकाय पिता की लाठी और शादी की उम्र पार कर रही अपनी कुँवारी बहन की राखी से तुम्हारा कोई संबंध नहीं रह जाएगा। आज भले ही आदमी की कीमत इस्पात से सस्ती हो गई हो, लेकिन इस्पात बनानेवाली कंपनी आदमी नहीं बना सकती, मेरे दोस्त। जबकि आदमी ही हजारों-लाखों मिलियन टन इस्पात बनाता है और बनाता चला जाएगा।

केतन ने तरुण की पीठ थपथपाई, ''चलो तरुण, घर चलें.....अब संदीप कहीं नहीं है।``
''लेकिन केतन....संदीप यहाँ था सुबह से इसी जगह।``
''कोई साक्ष्य अब नहीं है उसके यहाँ होने का।``
''कम्प्यूटर है....यहाँ के दर्जनों लोग हैं....मैं हूँ....।``
''कम्प्यूटर में उसकी हाजिरी थी, अब नहीं है। लोगों ने उसे देखे थे, अब वे भी अनदेखे हो गए हैं। एक तुम हो, तुम्हें भी अब तय कर लेना है कि ज्यादा जरूरी क्या है....संदीप की मृत्यु का पर्दाफाश करना या अपनी नौकरी की सांस कायम रखना।``

संदीप के पिता इसी कारखाने से एक रिटायर वर्कर थे। कई दिनों तक वे संदीप के लापता होने की टोह लेते रहे, तरुण से भी कई बार मिले। सबके चेहरे पर चढ़े मुखौटे की परख कर लेने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई। तरुण अपने झूठ पर एक मर्मांतक तकलीफ से जूझता रहा। अंतत: उसने कुछ तय किया और एक शाम उसके कदम संदीप के घर की तरफ बढ़ते चले गए। रास्ते में ही संदीप के पिता मिल गए.....एक मातम से घिरे हुए हताश, उदास। तरुण ने कहा, ''मैं आपके ही घर जा रहा था।``

बूढ़े ने ताज्जुब से निहारा, ''तुम क्यों तकलीफ कर रहे थे.....मैं तो आ ही रहा था तुम्हारे घर.....तुम्हारी चुप्पी को सुनने....तुम्हारी बदहवासी को पढ़ने।`` उसकी बेचारगी को भाँपते हुए उन्होंने आगे कहा, ''आज से बीस-पच्चीस साल पहले मजदूरों में इतनी आग और एकता हुआ करती थी कि किसी भी बेईमानी एवं नाइंसाफी के खिलाफ लोग एक साथ आन्दोलन करने पर उतारू हो जाते थे, जबकि उस समय प्राय: लोग गहन अभावों और मुश्किलों में जीने को बाध्य थे।``

तनिक रुककर उन्होंने तरुण की खामोशी की नब्ज टटोली, फिर कहा, ''आज लोगों के पास साधन हैं, सुविधाएँ हैं, फिर भी इनकी मानसिकता इतनी तटस्थ और नपुंसक हो गई है कि कंपनी के अंदर या बाहर किसी भी नाजायज बात पर होंठ फड़फड़ाने की भी हिम्मत नहीं रह गई।``

वे जरा रुके और अपनी लय फिर पकड़ ली, ''मेरे एक साथी का हाथ कट गया था। प्रबंधन उसकी असावधानी बताकर मुआवजा देने से आनाकानी करने लगा था। उसे हक दिलाने के लिए विभाग के सारे कामगारों ने काम बंद कर दिया था। विकास के रास्ते में असहमति का होना बहुत जरूरी है.....और इस असहमति को व्यक्त करने का माद्दा न हो तो समझ लेना चाहिए कि बहुत बुरे दिन आने वाले हैं।``

तरुण की आँखें संदीप के पिता के तात्पर्य टटोलती हुई विस्फारित होती जा रही थीं। वे कुछ देर के लिए चुप हो गए और फिर उनका गला भर आया। आँखों से आँसू की कई बूँदे टप-टप चू पड़ीं। लरजते स्वर में उन्होंने कहा, ''तरुण, सात दिन हो गए, तुम्हारे होठों से एक लफ्ज तक नहीं फिसला। तुम्हारे भीतर जो एक द्वन्द्व चल रहा है, उसे मैं समझ सकता हूँ बेटे। संदीप तुम्हारा जिगरी दोस्त था.....इसलिए पुष्टि तो तुम्हें ही करनी होगी....तुम बोलोगे तभी मैं इसे अंतिम सच मानूँगा। लैडेल में जो आदमी गिरकर पूरी तरह खत्म हो गया, वह मेरा बेटा संदीप ही था न.....बोलो तरुण, बोलो.....संदीप ही था न वह?``

तरुण रोक न सका खुद को और उनके गले से लिपटकर फफक पड़ा, ''हाँ अंकल, हाँ....वह अभागा संदीप था....आपका बेटा संदीप.....मेरा दोस्त संदीप। मुझे माफ कर दीजिए अंकल....मैं तो संदीप से भी अभागा हूँ और उससे भी ज्यादा मरा हुआ कि उसके मरने की खबर तक देने की प्राणशक्ति जुटा नहीं सका.....।``

संदीप के पिता उसकी पीठ थपथपाते रहे.....वह जार-जार रोता रहा....।

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२३ मार्च २००९

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