मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


चाय के साथ उसे एक कागज के टुकड़े पर रख कर दो लड्डू भी दिए गए। लड्डू कुछ दिन पहले ही हमारे गाँव से आए थे। खाते-खाते हम लोगों का मन भर गया था, अत: हम नहीं खा रहे थे। असगर को न दिए जाते तो शायद बाहर घूमते आवारा जानवरों को खिलाए जाते।

असगर बड़ी मासूमियत के साथ चाय के साथ लड्डू खा रहा था, तभी मेरे मन में एक शरारत सूझी। इसे शरारत ही कहूँगा, क्योंकि जिस तरह के सवाल मैंने उससे पूछने की चेष्टा की वे न तो उसके स्तर के थे और न ही उसके मतलब के। जिन लोगों से जिन सवालों का मतलब नहीं होता, उनसे बे-मतलब के सवाल पूछने के पीछे कभी हमारे जैसे इनसानों का अहम् और कभी दूसरों को छेड़ना, अर्थात परिचित्तानुरंजन करना उद्देश्य होता है। यह एक इनसानी फितरत है। असगर से सवाल पूछने के पीछे मेरा उद्देश्य भी चाय के साथ-साथ आफिस के बोझ से दिमाग को हल्का करना था, यानी के उसे छेड़ना। मैंने सोचा, उससे पूछा जाऐ, ''असगर, क्या जिहाद का मतलब आतंक फैलाना है? कश्मीर भारत में रहना चाहिए या पाकिस्तान में? तुम्हें पाकिस्तान अच्छा लगता है या भारत? क्रिकेट में भारत की विजय पर खुश होते हो या पाकिस्तान की विजय पर?'

असगर मेरे सवालों को सुनकर मुस्करा दिया। जवाब देना शायद उसने व्यर्थ की कवायद समझा होगा, इसलिए वह मौन था। मैंने उसके चेहरे की ओर देखा और एकाएक मुझे अहसास हुआ कि वह नहीं, उसका मासूम चेहरा मेरे सवालों के जवाब दे रहा है, ''बाबू जी का हमार सुझाव, बेवहार राऊर सवाल के उत्तर नाइरवे। ई इनसानी सवाल हा ऽ! कवनो इनसाने से पूछेब!

वह सुबह मुझे आज भी याद है। वही सुबह क्यों, उसके साथ गुजरी हर सुबह मेरे मन में पुरातत्व संग्रहालय में प्राचीन पांडुलिपियों की भांति सुरक्षित है। उस दिन की सुबह, मौसम कुछ मेहरबान सा था। कई दिनों के बाद सूरज ने कोहरे के बीच से मुँह चमका या था। कोहरे के झीने दुशाले के बीच से मंद-मंद मुस्कराता सा सूरज, ऐसा लग रहा था, मानों दुशाले की ओट से चोरी-चोरी प्रकृति के सौंदर्य को निहार रहा हो।

सुबह की गरम-गरम चाय की चुसकी लेकर मैं शरीर में ऊर्जा संचार करने की चेष्टा कर रहा था। तभी एक मासूम से चेहरे के साथ ठेकेदार कृष्णा सुबह के अखबार की तरह मेरे सामने था। हम कई दिन से उसका इंतजार कर रहे थे कि वह आए और कैसे ही मकान की ऊपर वाली मंजिल की चिनाई का काम शुरू हो। उसके साथ केवल एक अदद इनसान देख मेरे माथे में बल पड़ गए थे। गुस्सा जाहिर करते हुए मैंने उससे कहा था, ''कई दिन इंतजार कराने के बाद आज आए और आज भी इस मरियल छोकरे के साथ! क्या इसी तरह ऊपर की मंजिल खड़ी करोगे?''

कृष्णा ने मुझे आश्वस्त किया और मासूम से उस छोकरे को छत की मुँडेर तोड़ने पर लगा दिया था। छोकरा मशीन की तरह अपने काम पर जुट गया और अकेला ही जुटा रहा। मरियल से उस छोकरे ने एक दिन में ही इतना काम कर दिया कि कृष्णा को अगले दिन राज-मिस्त्री लाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वही मरियल सा छोकरा ही असगर था।

गाँव जाने से पहले लगभग एक-डेढ़ मास तक असगर हमारे यहाँ बेलदारी करता रहा। इस दौरान तकरीबन आधा दर्जन राज-मिस्त्री और बेलदार आए-गए हुए होंगे, मगर वह हमेशा ही समय से पहले बिना नागा काम पर मुस्तैद रहा। धरती में गड़ा-गड़ा सा वह मासूम चेहरा सुबह-सबेरे सबसे पहले दरवाजा खुलवाता और बिना किसी से पूछे जो कुछ करने को दीखता उसमें जुट जाता।

खुद तो काम में जुटा ही रहता, अनधिकार चेष्टा करता हुआ राज-मिस्त्री और दूसरे बेलदारों को भी निर्देश देता रहता, ''मिस्तरी जी मसाला मत खराब कर। ..अरे फैलाव मत!''

वह बेलदार था, मिस्त्री भला उसकी कहाँ सुनने वाले थे। असगर की नसीहत को अनसुना कर वे बेपरवाह दिहाढ़ी मजदूर की तरह 'माले मुफ्त बेरहम दिल' की तर्ज पर हाथ चलाता रहता।

किसी बेलदार को बीड़ी सुड़कते देखता, तो उस पर बरस जाता, ''सुन! मालिक से मजूरी त पूरी लेबा। रेत के चार गो कट्टा चढ़वले बानी। मसाला खतम हो जाई त मिस्तरी बइठ जाइहें। चल तू मसाला पकड़वा!'' वह बेलदार पर बरसता और उसके हाथ से कट्टा छीनकर खुद दूसरी मंजिल पर रेत ढोने लगता। दिन भर उसका यही क्रम रहता। कभी रेत ढोता, तो कभी मसाला पकड़ाता, मगर राज-मिस्त्रियों को बीड़ी सुड़कने का बहाना बनाने का मौका न देता।

दिन ढलते-ढलते राज-मिस्त्री औजार साफ कर अपने-अपने घरों की तरफ रुख करने की तैयारी करते और असगर की बक-बक शुरू हो जाती, ''फोकट के माल बुझ राखि लिए है कि! बनल-बनावल मसाला छोड़ के चल जईब जा! सबेरे तक मालिकार के सिरमिट खराब हो जाई! मिस्तरी जी एक तसला मसाला बचला बा! आव एक हाथ लगा द!''

मैं जब-कभी राज-मिस्त्रियों को काम समझाता, वह काम में लगा-लगा ही वह सारी बात ध्यान से सुनता। मेरे कहने के बावजूद परिवार के सदस्य जिस काम से कन्नी काट जाते, दिहाड़ी का काम पूरा कर वह उस काम में जुट जाता। यह उसकी ईमानदारी ही थी कि दिहाड़ी के समय वह केवल ठेकेदार का काम करता और दिहाड़ी-वक्त से पहले और बाद सुबह-शाम बाकी काम निपटाता। इस तरह सबसे पहले आता और सबके बाद अपनी झुग्गी की तरफ लौटता।

गाँव जाने से एक दिन पहले भी सुबह-सबेरे काम पर आ गया था, मगर उदास-उदास सा। दफ्तर जाते-जाते मैंने प्रेमलता से कहा था- ऊपर जाकर देख आओ राज-मिस्त्रियों को किसी समान की जरूरत तो नहीं है? प्रेमलता ऊपर पहुँची, तो एक मिस्त्री ने बताया कि पता नहीं असगर आज क्यों उदास है? प्रेमलता ने उसका चेहरा देखा, असगर की आँखें भरी हुई थी। प्रेमलता ने सहज भाव से ही उससे पूछ ही लिया, ''क्या बात है, उदास क्यों हैं, असगर?'' जवाब में असगर के आँखों से आँसू झरने लगे। प्रेमलता ने सांत्वना देते हुए फिर कहा, '' ठेकेदार ने कुछ कह दिया, क्या?''
''ना-ना अम्मी जी!'' इतना कहते ही असगर के झरते आँसुओं का बहाव तेज हो गया था। अप्रत्याशित इस व्यवहार से प्रेमलता हतप्रभ थी। सांत्वना देते हुए उसने फिर पूछा, ''अरे बता तो सही क्या हुआ?''
सुबकते-सुबकते असगर बोला, ''अम्मी जी काल्ह हम गाँव चले जाई।''
उसके रोने का कारण सुन प्रेमलता हतप्रभ थी। उसने असगर को दिलासा देने का प्रयास किया, ''अरे! इसमें रोने की क्या बात है। माँ के पास जा रहा है, अच्छी बात है। खुशी-खुशी जाना चाहिए।''

प्रेमलता के मुँह से निकले सांत्वना के कृत्रिम बोल शायद असगर पर असर नहीं कर पाए और पलकों के बांध तोड़ उसके आँसू फिर बहने लगी।
''कोई बात नहीं, रो मत। अच्छा! गाँव से कब लौटेगा?'' प्रेमलता ने बात बदलने की मंशा से पूछा।
''एक महीना बाद।'' उसने जवाब दिया।
असगर का स्नेह देख प्रेमलता की आँखें भी भर आई थी। आँखें पोंछती-पोंछती तेज कदमों के साथ वह भूतल की तरफ चली आई। और, आँखों में स्नेह के बूंदे लिए असगर फिर अपने काम में जुट गया।

पल्लू से अपनी आँखें पोंछते-पोंछते प्रेमलता ने पूरा किस्सा परिवार के बाकी सदस्यों को सुनाया और फिर मिस्त्री-बेलदारों के लिए चाय ले जाने के लिए पुत्रवधू सुमन से कहा। जग में चाय भर कर सुमन ऊपर गई। उसे देख, असगर की आँखें फिर झरने लगी।
''भोजी! काल्ह हम अपने गाँव चले जाई।''
''इसमें रोने की क्या बात है? घर जाते समय रोया नहीं करते, भइया! ..गाँव से लौटकर फिर काम पर आजाना!'' सुमन ने उसे दिलासा दी।
''नहीं, भौजी! हमने ठेकेदार से कहलें रहीं कि हमार आठ तारीख के टिकट बा। काम फुर्दी से करद। लेकिन वा देर कर देन। हम चाहत रहीं के काम पूरा करके ही गाँव जाई। पता नहीं दूसरा बेलदार कइसे आ गईल।''

रोने के कारण के पीछे नि:स्पृह मूल कारण सुन, सुमन की भी आँखें भर आर्ई थी। उस दिन असगर रह-रह का पूरे दिन आँसू बहाता रहा और हमारे परिवार का जो सभी सदस्य उसे मिलता उसे ही अबोध किसी बालक की तरह सुबक-सुबक कर बताता-
'बड़का भइया, काल्ह हम गाँव चले जाई।'
'छोटका भइया, काल्ह हम गाँव चले जाई।'
'छुटकी भोजी, काल्ह हम गाँव चले जाई।'

दोपहर का भोजन करने मैं घर आया। सीधा ऊपर गया जहाँ काम चल रहा था। रोज़ की तरह सभी का हालचाल पूछा। सभी ने कुछ न कुछ जवाब दिया। मगर असगर का उदास चेहरा देख कर कुछ असहज सा लगा। प्रेमलता से पूछा, ''क्या बात है? आज असगर नाराज है क्या, ..क्यों?''

चुप रहने का रहस्यमयी इशारा करते हुए प्रेमलता ने होंठों पर उँगली रख ली। मैं उसके साथ नीचे उतर आया। नीचे आकर पूरा किस्सा सुनाया। मेरे मुँह से निकला, ''पागल!''

भोजन करने के बाद जब मैं दफ्तर जाने के लिए कार में सवार हुआ, तो असगर खिड़की के पास खड़ा था और उसके मुँह से वही वाक्य फूट रहा था, ''काल्ह हम गाँव चले जाई।''
मेरी निगाह असगर की तरफ उठी। उसकी आँखें बरसाती पतनारे की तरह बह रहीं थी। मैं उससे बात करने की हिम्मत न जुटा पाया। उसका सामना नहीं कर पाया। मैं कमजोर निकला और सांत्वना के बोल मुँह में दबाए-दबाए कार का एक्सिलेटर दबाया और भाग खड़ा हुआ।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।