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पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


सेमलिया को याद करते ही ऐसी ही ढिबरी या लालटेन की पीली-धुँधली रोशनी में कौंधता हुआ एक काला, दानेदार, मस्सों से भरा, डरावना चेहरा दिखाई देने लगता है। तरल हंसी में डूबी, मिचमिची आँखों वाला चेहरा।

'आ गया जमदूत!` बुआ सेमलिया को अदरक और तुलसी की चाय देते हुए कहतीं। सेमलिया अपनी हथेली को अंगौछे में लपेट कर टहटी का गर्म गिलास पकड़ता और रात के धुँधलके में धीरे-धीरे हँसता।

इस गाँव से दस मील दूर, एक दूसरे गाँव सिहाला में भी हमारे खेत थे। सिहाला पहाड़ी के ऊपर, जंगल के पार बसा हुआ एक छोटा-सा गाँव था। हमारे इस गाँव की मिट्टी बलुहन थी, जिससे यहाँ धान, कोदो, कुटकी, तिल जैसी फसलें ही होती थीं। जब कि सिहाला में काली चिकनी मिट्टी वाले खेत थे, जहाँ सब कुछ पैदा होता था। गेहूँ, चना, अलसी और धनिया भी।

सेमलिया ही हमारी खेती देखने महीने-पंद्रह दिन में सिहाला जाता था। जब सेमलिया वहाँ से लौटता तो हमेशा रात ही क्यों होती थी, यह मैं नहीं समझ पाता था। शायद पैदल उतनी दूर चलने, और फिर जैसा लोग कहते थे, जंगल एक ऐसा चुंबक था, जो सेमलिया को अपने अंदर खींच लेता था और फिर जंगल के भीतर यहाँ-वहाँ भटकने की वजह से सेमलिया को गाँव लौटने में देर हो जाती होगी। मैं इसीलिए उसका चेहरा लालटेन या ढिबरी की पीली रोशनी में ही देख पाता था।

सिहाला तक पहुँचने के लिए कई पहाड़ी-जंगली नाले और लगभग साढ़े चार मील लंबा, एक घना जंगल पार करना पड़ता था। इसे रिछहाई जंगल कहते थे। इसमें जानवर रहते थे। तेंदुए, हिरण, चीतल, साँभर, रोझ। लेकिन सबसे ज़्यादा रीछ। जब महुए जंगल में पक कर टपकते, तो गाँव की औरतें उन्हें बीनने से डरतीं क्यों कि रीछ औरतों को ही सबसे ज्यादा पकड़ता था। एक बार पड़ोस के गाँव छिलपा की एक औरत को रीछ ने जंगल में पकड़ा तो उसने उसे पहचान लिया। वह
फौज से भाग कर आया फुनगा गाँव का बिजराज सिंह था।

वैसे कहते हैं एक बार एक डाकिये की लाश रिछहाई जंगल में मिली थी, जिसका सिर किसी रीछ ने ढक्कन की तरह खोल कर उसका भेजा निकाल लिया था। और मनीऑर्डर के रुपये भी ले गया था।

अब तो उस रास्ते के सारे नाले सूख गये हैं। जंगल भी उतना घना नहीं रहा। सरकारी फॉरेस्ट ऑफिसर और ठेकेदारों ने मिलकर काट डाला। जानवर भी नहीं बचे। बस इक्का-दुक्का सियार कभी-कभार ज़रूर दिख जाते हैं।

अब तो हमारे गाँव में लालटेन और दीये भी नहीं जलते। बिजली आ गई है।

सेमलिया अब नहीं है।

लेकिन लालटेन की धुँधली-कमजोर रोशनी में, मिचमिची आँखों में मुस्कराता उसका काला, दानेदार, मस्सों से भरा डरावना चेहरा अब भी दिखने लगता है।

ऐसा डरावना , जिससे कभी डर नहीं लगता।

'जमदूत!` बुआ की आवाज़ उभरती है।

बुआ भी अब नहीं हैं। उनकी किडनी फेल हो गई थी। और मृत्यु के पहले उनकी देह सूज गई थी। जैसे किसी ने पंप से उनके भीतर हवा भर दी हो।

'मेरे भीतर पानी भर गया है।` उन दिनों वे कहा करती थीं।


सेमलिया जब रात में हमारे दूसरे गाँव सिहाला से लौट कर आता, तो लालटेन की रोशनी में बाँस के अपने टोकरे में से तरह-तरह की चीज़ें निकाल कर, आँगन में फैलाता जाता।

हरे-रोयेंदार जंगली पड़ोरे, पहाड़ी बेर, शेर की मुखारी, चार-चिरौंजी, कठजमुनी, अमरुक, काँदा, छतनी, पूटू, छींदकाँद, जंगली करौंदे।

.... और सिहाला के तालाब से पकड़ी गई स्वादिष्ट सौर मछली, सरसों के तेल में जिसके तले हुए कोरौरा खाते हुए पिता
जी गाँव के दूसरे लोगों के साथ रात में महुए की रासी पीते। और सब लोग ज़ोर-ज़ोर से बोलते।

या फिर जाल में फाँसे गये तीतर, लावा, गुड़रू, पोंडकी।

सेमलिया हर महीने-पंद्रह दिन में यह करिश्मा करता। और उसके डरावने, दानेदार, काले, बीहड़ चेहरे की छोटी-छोटी आँखें ढिबरी या लालटेन की रोशनी में कौंधती रहतीं।

सेमलिया मेरे बचपन का जादूगर था।

सेमलिया ने एक बार मुझे जंगली खरगोश के दो छौने लाकर दिये थे। जंगली खरगोश को हम 'खरहा` कहते थे। उस रात कत्थई-भूरे रंग के दोनों छौने उसने मेरी गोद में डाल दिये थे। पहले मैं डरा। फिर मेरा डर तुरत ही दूर हो गया। वे दोनों बहुत ही छोटे थे।

मेरी उम्र तब छह-सात साल की थी।

नर्म, मुलायम, भूरी पीठ। मैंने अपनी डरती हुई उँगलियों से उन्हें छुआ। उनके कान खड़े हो गये। उन्होंने चेहरा उठा कर मुझे चौंकते हुए देखा। मेरी उँगलियों के स्पर्श से उनके शरीर में एक सिहरन पैदा हो गई थी।

वे धीरे-धीरे काँप रहे थे।

....और उनके भूरे-कत्थई, नर्म रोयों में से एक अपरिचित-सी तेज़ गंध निकल कर आँगन के अँधेरे में फैल रही थी। लालटेन की मद्धिम रोशनी उस गंध में डूब गई थी और धीरे-धीरे मेरी साँस के साथ मेरे भीतर तक उतर रही थी। मैं हर तरफ से उस गंध से घिर गया था, जैसे कोई पानी के भीतर की गहराई में चारों ओर पानी से घिरता है।

यह कितना रोमांचकारी था। कितना अजब। वे ज़िंदा थे। बिल्कुल जीवित। वे दूसरे खिलौनों की तरह नहीं थे। वे साँस ले रहे थे। उनके शरीर धीरे-धीरे काँप रहे थे। और जहाँ वे ले आये गये थे, वहाँ की हर चीज़ को वे चौंकते हुए, आश्चर्य और उत्सुकता के साथ चुपचाप देख रहे थे।

'उन्हें भूख लगी है।` सेमलिया ने कहा। 'अभी वे इतने छोटे हैं कि दूब या साग-भाजी नहीं खाएँगे।`
'तो ?` मैं चिंतित था।
'अभी तो पाँच-सात रोज़ उन्हें दूध पिलाना। फाहे से। फिर वे बड़े हो जाएँगे तो अपने आप पत्तियाँ खाने लगेंगे।`
'फिर ?`
'फिर तुम्हारे साथ ये खेलेंगे। फिर तो इन्हें अपने कंधे पर बिठाकर घूमना।`

'ये तू क्या ले आया, जमदूत!` बुआ ने सेमलिया को तुलसी और अदरक की चाय देते हुए कहा। वे सेमलिया को हमेशा यही कहती थीं -'जमदूत!`
'नन्हें को घर में बाँधने के लिए जंगल से दो खूँटे ले आया हूँ। अब ये कभी खाना-पीना, किताब-कापी छोड़कर ढोर-डाँगर के साथ जंगल-पतेरा नहीं फिरेंगे।` सेमलिया हँसते हुए चाय सुड़कता रहा।

उस रात बारह-एक बज गये होंगे मेरी आँखों में नींद के कहीं लक्षण नहीं थे। नींद अगर आती भी तो उसे मैं हरगिज न आने देता।

जंगली खरगोश के वे दोनों बच्चे हर पल मेरे भीतर अपने प्रति एक नयी उत्सुकता जगाते। हर पल कोई न कोई उनकी एक नयी हरकत होती। हर बार वे कुछ नया करते। लालटेन के धुँधले उजाले में उन्होंने अपना एक बिल्कुल अलग संसार बना डाला था। और उनके साथ, उस संसार में मैं भी था।

वे इधर-उधर निरुद्देश्य रेंगते, फिर वापस अपनी पुरानी जगह को खोजते हुए उस ओर लौटते।

कई बार अपने नन्हें-से कोमल शरीर को सिकोड़ कर वे कूदने या छलाँग लगाने की कोशिश करते और हर बार आँगन की ज़मीन पर रुई के ढेले की तरह असफल लुढ़क जाते। अभी गति या छलाँग को सँभाल पाने की ताकत उनकी नन्हीं कमज़ोर देह में पैदा नहीं हो पाई थी।

वे वास्तव में बच्चे हैं। मुझसे भी छोटे। यह अनुभव वे हर पल मुझे अपनी हरकतों से कराते। और हर पल उनके प्रति मेरा प्यार और गहरा होता जाता। मैं उनके सामने खुद को बड़ा और समझदार अनुभव करता।

वे एक छोटी-सी हरकत करते और मेरे भीतर उमंग और प्यार का एक नया विद्युत पैदा हो जाता। वे इतने अच्छे क्यों थे ? मैंने उनमें से एक, जो ज्यादा छोटा और कुछ अधिक चंचल था, उसको अपनी हथेली में रखकर उठा लिया और अपने होठों को उसकी नाक पर धीरे से छुआया। लेकिन अम्मां ने इसे देख लिया और डांटा। 'क्या करते हो ? कीड़े चले जाएँगे
नाक के भीतर से।`

वे कटोरे में में थोड़ा-सा गाय का दूध और रुई का फाहा ले कर आईं थीं।

मैंने रुई के फाहे को दूध में डुबा कर उन्हें दूध पिलाना शुरू किया। वे सचमुच भूखे थे। उनकी लगातार हिलती और कुछ न कुछ सूँघती-सी नाक के नीचे आखिर मुँह कहाँ है, यह पता ही चलता था। लेकिन देखते ही देखते रुई के फाहे का दूध वे चूस जाते।

जब वे दूध पीते तो मेरे पूरे शरीर में एक अजीब-सी सिहरन होती। जब अम्मां मुझे दूध पीते देखते होंगी, तो क्या उनको भी ऐसा ही लगता होता। मैं सोचता।

मुझे यह भी लगता जैसे मैं उनकी मां हूँ।

दोनों में दूध पहले कौन पियेगा, इसके लिए वे एक दूसरे के शरीर को धक्का भी देते। यह हद थी। इतने वे छोटे थे लेकिन यहाँ भी एक-दूसरे से होड़ थी। ये नन्हें छौने, जिन्होंने अभी कुछ ही दिन पहले अपनी आँखें खोली होंगी, उनके बीच भी पेट के लिए ऐसा मुकाबला शुरू हो गया था।

'
ये ठीक बात नहीं। पारी-पारी से दोनों लोग पियेंगे। अच्छे बच्चे लड़ते-झगड़ते नहीं, मिल-जुल के दूध पीते हैं।` मैंने फुसफुसा कर उन्हें समझाया।

बड़े वाले का पेट भर चुका था। उसकी रुचि समाप्त हो चुकी थी और वह अब सुस्त हो चुका था। जब कि छोटा अभी भी फाहे को चूसने में लगा था।

'अरेबा` और 'परेबा`। उस रात यही नाम उन दोनों के मैंने रखे। बड़ा वाला, जो थोड़ा काहिल और सुस्त था, वह अरेबा। और छोटा वाला, फुर्तीला और चंचल - परेबा।

परेबा हमारी भाषा में कबूतर को कहते हैं। लेकिन पालतू, घरेलू या शहरातू कबूतर को नहीं। वो तो बेचारे मामूली कबूतर ही होते हैं। परेबा तो होता है जंगली। बिल्कुल बेदाग, अछूता और वनैला। पहाड़ों के ऊपर चट्टानों की संध में बसेरा करता है और दानों की खोज में दुनिया भर भटकता-उड़ता फिरता है। वह परेबा ही था, जिसका एक कहानी में गिद्ध से मुकाबला हुआ था। किसकी नज़र कितनी तेज़ है। यानी किसकी आँख कितनी दूर तक देख सकती है। गिद्ध ने सौ मील दूर किसी
खेत में मरे हुए एक बैल को देखा। तो परेबा ने उस बैल की लाश से दो हाथ, एक बीता, चार अंगुल दूर खेत में गिरे गेहूँ के सात दानों को देख लिया।

सबकी आँखें अपने अपने पेट में जाने वाली चीज़ों को देख ही लेती हैं। चाहे वे जहाँ और जितनी दूर हों। चाहे बैल जितनी बड़ी हों, या राई या तिल जितनी छोटी।

जब ये दोनों, अरेबा और परेबा, बड़े हो जाएँगे तो ये भी यहाँ से सौ मील दूर किसी खेत की मेड़, जंगल के मैदान या किसी आँगन के कोने में उगी दूब को देख लेंगे। और जैसे गिद्ध के पेट में बैल, कबूतर के पेट में गेहूँ का दाना और मेरे पेट में रोटी का कौर जाता है, वैसे ही इनके पेट में दूब जाएगी।

आँखें तो दरअसल पेट की ही होती हैं। भूख ही है, जो सब कुछ देखती है। पेट ही दुनिया को भूख की आँख से देखता हुआ अपना दाना-पानी खोजता है। वह पेट है, जो सब के शरीर को यहाँ-वहाँ दौड़ाता या उड़ाता रहता है।

अचानक ही मैंने ध्यान दिया। अरेबा यानी बड़ा वाला, दूध पीकर अघाया हुआ और आलसी बन चुका छौना, लालटेन की रोशनी में बने उस छोटे से संसार से फरार था। जब कि छोटा वाला परेबा अभी भी फाहे से दूध पीने में लगा हुआ था। हालाँकि उसकी घूंट भरने की रफ्त़ार अब काफी धीमी पड़ चुकी थी।

कहाँ चला गया अरेबा ? मैं डर गया। हमारे घर में तीन बिल्लियाँ आती थीं। और एक बिल्ला भी। हम उसे बग्घा कहते थे। वह दिखता भी बाघ जैसा ही था। मोटा, बड़ा, डरावना, घमंडी, क्रूर और षड्यंत्रकारी। वह अपने ही बच्चों का गला काटकर उन्हें मार डालता था। कुछ लोग कहते थे कि बग्घा दरअसल एक वन-बिलाड़ था, जो जंगल से आता
था।

अगर बग्घा ने अरेबा को देख लिया तो ?

मैं लालटेन लेकर उसे आँगन में खोजने लगा। परेबा को मैंने बायें हाथ से अपनी छाती में चिपका रखा था। मैंने पूरे आँगन को छान मारा। तुलसी के चौरा के पास बेले और गेंदे के पौधे उगे हुए थे। वहाँ भी वह नहीं था। रसोई के दरवाजे की दायीं ओर, जहाँ केवड़ा था और जिसमें साँप आकर रहते थे, वहाँ भी वह नहीं था।

सेमलिया को याद करते ही ऐसी ही ढिबरी या लालटेन की पीली-धुँधली रोशनी में कौंधता हुआ एक काला, दानेदार, मस्सों से भरा, डरावना चेहरा दिखाई देने लगता है। तरल हंसी में डूबी, मिचमिची आँखों वाला चेहरा।

'आ गया जमदूत!` बुआ सेमलिया को अदरक और तुलसी की चाय देते हुए कहतीं। सेमलिया अपनी हथेली को अंगौछे में लपेट कर टहटी का गर्म गिलास पकड़ता और रात के धुँधलके में धीरे-धीरे हँसता।

इस गाँव से दस मील दूर, एक दूसरे गाँव सिहाला में भी हमारे खेत थे। सिहाला पहाड़ी के ऊपर, जंगल के पार बसा हुआ एक छोटा-सा गाँव था। हमारे इस गाँव की मिट्टी बलुहन थी, जिससे यहाँ धान, कोदो, कुटकी, तिल जैसी फसलें ही होती थीं। जब कि सिहाला में काली चिकनी मिट्टी वाले खेत थे, जहाँ सब कुछ पैदा होता था। गेहूँ, चना, अलसी और धनिया भी।

सेमलिया ही हमारी खेती देखने महीने-पंद्रह दिन में सिहाला जाता था। जब सेमलिया वहाँ से लौटता तो हमेशा रात ही क्यों होती थी, यह मैं नहीं समझ पाता था। शायद पैदल उतनी दूर चलने, और फिर जैसा लोग कहते थे, जंगल एक ऐसा चुंबक था, जो सेमलिया को अपने अंदर खींच लेता था और फिर जंगल के भीतर यहाँ-वहाँ भटकने की वजह से सेमलिया को गाँव लौटने में देर हो जाती होगी। मैं इसीलिए उसका चेहरा लालटेन या ढिबरी की पीली रोशनी में ही देख पाता था।

सिहाला तक पहुँचने के लिए कई पहाड़ी-जंगली नाले और लगभग साढ़े चार मील लंबा, एक घना जंगल पार करना पड़ता था। इसे रिछहाई जंगल कहते थे। इसमें जानवर रहते थे। तेंदुए, हिरण, चीतल, साँभर, रोझ। लेकिन सबसे ज़्यादा रीछ। जब महुए जंगल में पक कर टपकते, तो गाँव की औरतें उन्हें बीनने से डरतीं क्यों कि रीछ औरतों को ही सबसे ज्यादा पकड़ता था। एक बार पड़ोस के गाँव छिलपा की एक औरत को रीछ ने जंगल में पकड़ा तो उसने उसे पहचान लिया। वह फौज से भाग कर आया फुनगा गाँव का बिजराज सिंह था।

वैसे कहते हैं एक बार एक डाकिये की लाश रिछहाई जंगल में मिली थी, जिसका सिर किसी रीछ ने ढक्कन की तरह खोल कर उसका भेजा निकाल लिया था। और मनीऑर्डर के रुपये भी ले गया था।

अब तो उस रास्ते के सारे नाले सूख गये हैं। जंगल भी उतना घना नहीं रहा। सरकारी फॉरेस्ट ऑफिसर और ठेकेदारों ने मिलकर काट डाला। जानवर भी नहीं बचे। बस इक्का-दुक्का सियार कभी-कभार ज़रूर दिख जाते हैं।

अब तो हमारे गाँव में लालटेन और दीये भी नहीं जलते। बिजली आ गई है।

सेमलिया अब नहीं है।

लेकिन लालटेन की धुँधली-कमजोर रोशनी में, मिचमिची आँखों में मुस्कराता उसका काला, दानेदार, मस्सों से भरा डरावना चेहरा अब भी दिखने लगता है।

ऐसा डरावना , जिससे कभी डर नहीं लगता।

'जमदूत!` बुआ की आवाज़ उभरती है।

बुआ भी अब नहीं हैं। उनकी किडनी फेल हो गई थी। और मृत्यु के पहले उनकी देह सूज गई थी। जैसे किसी ने पंप से उनके भीतर हवा भर दी हो। 'मेरे भीतर पानी भर गया है।` उन दिनों वे कहा करती थीं।

सेमलिया जब रात में हमारे दूसरे गाँव सिहाला से लौट कर आता, तो लालटेन की रोशनी में बाँस के अपने टोकरे में से तरह-तरह की चीज़ें निकाल कर, आँगन में फैलाता जाता।

हरे-रोयेंदार जंगली पड़ोरे, पहाड़ी बेर, शेर की मुखारी, चार-चिरौंजी, कठजमुनी, अमरुक, काँदा, छतनी, पूटू, छींदकाँद, जंगली करौंदे। .... और सिहाला के तालाब से पकड़ी गई स्वादिष्ट सौर मछली, सरसों के तेल में जिसके तले हुए कोरौरा खाते हुए पिता जी गाँव के दूसरे लोगों के साथ रात में महुए की रासी पीते। और सब लोग ज़ोर-ज़ोर से बोलते।

या फिर जाल में फाँसे गये तीतर, लावा, गुड़रू, पोंडकी।
सेमलिया हर महीने-पंद्रह दिन में यह करिश्मा करता। और उसके डरावने, दानेदार, काले, बीहड़ चेहरे की छोटी-छोटी आँखें ढिबरी या लालटेन की रोशनी में कौंधती रहतीं।

सेमलिया मेरे बचपन का जादूगर था। सेमलिया ने एक बार मुझे जंगली खरगोश के दो छौने लाकर दिये थे। जंगली खरगोश को हम 'खरहा` कहते थे। उस रात कत्थई-भूरे रंग के दोनों छौने उसने मेरी गोद में डाल दिये थे। पहले मैं डरा। फिर मेरा डर तुरत ही दूर हो गया। वे दोनों बहुत ही छोटे थे।

मेरी उम्र तब छह-सात साल की थी। नर्म, मुलायम, भूरी पीठ। मैंने अपनी डरती हुई उँगलियों से उन्हें छुआ। उनके कान खड़े हो गये। उन्होंने चेहरा उठा कर मुझे चौंकते हुए देखा। मेरी उँगलियों के स्पर्श से उनके शरीर में एक सिहरन पैदा हो गई थी।

वे धीरे-धीरे काँप रहे थे।

....और उनके भूरे-कत्थई, नर्म रोयों में से एक अपरिचित-सी तेज़ गंध निकल कर आँगन के अँधेरे में फैल रही थी। लालटेन की मद्धिम रोशनी उस गंध में डूब गई थी और धीरे-धीरे मेरी साँस के साथ मेरे भीतर तक उतर रही थी। मैं हर तरफ से उस गंध से घिर गया था, जैसे कोई पानी के भीतर की गहराई में चारों ओर पानी से घिरता है।

यह कितना रोमांचकारी था। कितना अजब। वे ज़िंदा थे। बिल्कुल जीवित। वे दूसरे खिलौनों की तरह नहीं थे। वे साँस ले रहे थे। उनके शरीर धीरे-धीरे काँप रहे थे। और जहाँ वे ले आये गये थे, वहाँ की हर चीज़ को वे चौंकते हुए, आश्चर्य और उत्सुकता के साथ चुपचाप देख रहे थे।

'उन्हें भूख लगी है।` सेमलिया ने कहा। 'अभी वे इतने छोटे हैं कि दूब या साग-भाजी नहीं खाएँगे।`
'तो ?` मैं चिंतित था।
'अभी तो पाँच-सात रोज़ उन्हें दूध पिलाना। फाहे से। फिर वे बड़े हो जाएँगे तो अपने आप पत्तियाँ खाने लगेंगे।`
'फिर ?`
'फिर तुम्हारे साथ ये खेलेंगे। फिर तो इन्हें अपने कंधे पर बिठाकर घूमना।`

'ये तू क्या ले आया, जमदूत!` बुआ ने सेमलिया को तुलसी और अदरक की चाय देते हुए कहा। वे सेमलिया को हमेशा यही कहती थीं -'जमदूत!`
'नन्हें को घर में बाँधने के लिए जंगल से दो खूँटे ले आया हूँ। अब ये कभी खाना-पीना, किताब-कापी छोड़कर ढोर-डाँगर के साथ जंगल-पतेरा नहीं फिरेंगे।` सेमलिया हँसते हुए चाय सुड़कता रहा।

उस रात बारह-एक बज गये होंगे मेरी आँखों में नींद के कहीं लक्षण नहीं थे। नींद अगर आती भी तो उसे मैं हरगिज न आने देता।

जंगली खरगोश के वे दोनों बच्चे हर पल मेरे भीतर अपने प्रति एक नयी उत्सुकता जगाते। हर पल कोई न कोई उनकी एक नयी हरकत होती। हर बार वे कुछ नया करते। लालटेन के धुँधले उजाले में उन्होंने अपना एक बिल्कुल अलग संसार बना डाला था। और उनके साथ, उस संसार में मैं भी था।

वे इधर-उधर निरुद्देश्य रेंगते, फिर वापस अपनी पुरानी जगह को खोजते हुए उस ओर लौटते।

कई बार अपने नन्हें-से कोमल शरीर को सिकोड़ कर वे कूदने या छलाँग लगाने की कोशिश करते और हर बार आँगन की ज़मीन पर रुई के ढेले की तरह असफल लुढ़क जाते। अभी गति या छलाँग को सँभाल पाने की ताकत उनकी नन्हीं कमज़ोर देह में पैदा नहीं हो पाई थी।

वे वास्तव में बच्चे हैं। मुझसे भी छोटे। यह अनुभव वे हर पल मुझे अपनी हरकतों से कराते। और हर पल उनके प्रति मेरा प्यार और गहरा होता जाता। मैं उनके सामने खुद को बड़ा और समझदार अनुभव करता।

वे एक छोटी-सी हरकत करते और मेरे भीतर उमंग और प्यार का एक नया विद्युत पैदा हो जाता। वे इतने अच्छे क्यों थे ? मैंने उनमें से एक, जो ज्यादा छोटा और कुछ अधिक चंचल था, उसको अपनी हथेली में रखकर उठा लिया और अपने होठों को उसकी नाक पर धीरे से छुआया। लेकिन अम्मां ने इसे देख लिया और डांटा। 'क्या करते हो ? कीड़े चले जाएँगे नाक के भीतर से।`

वे कटोरे में में थोड़ा-सा गाय का दूध और रुई का फाहा ले कर आईं थीं।

मैंने रुई के फाहे को दूध में डुबा कर उन्हें दूध पिलाना शुरू किया। वे सचमुच भूखे थे। उनकी लगातार हिलती और कुछ न कुछ सूँघती-सी नाक के नीचे आखिर मुँह कहाँ है, यह पता ही चलता था। लेकिन देखते ही देखते रुई के फाहे का दूध वे चूस जाते।

जब वे दूध पीते तो मेरे पूरे शरीर में एक अजीब-सी सिहरन होती। जब अम्मां मुझे दूध पीते देखते होंगी, तो क्या उनको भी ऐसा ही लगता होता। मैं सोचता।

मुझे यह भी लगता जैसे मैं उनकी मां हूँ।

दोनों में दूध पहले कौन पियेगा, इसके लिए वे एक दूसरे के शरीर को धक्का भी देते। यह हद थी। इतने वे छोटे थे लेकिन यहाँ भी एक-दूसरे से होड़ थी। ये नन्हें छौने, जिन्होंने अभी कुछ ही दिन पहले अपनी आँखें खोली होंगी, उनके बीच भी पेट के लिए ऐसा मुकाबला शुरू हो गया था।

'ये ठीक बात नहीं। पारी-पारी से दोनों लोग पियेंगे। अच्छे बच्चे लड़ते-झगड़ते नहीं, मिल-जुल के दूध पीते हैं।` मैंने फुसफुसा कर उन्हें समझाया।

बड़े वाले का पेट भर चुका था। उसकी रुचि समाप्त हो चुकी थी और वह अब सुस्त हो चुका था। जब कि छोटा अभी भी फाहे को चूसने में लगा था।

'अरेबा` और 'परेबा`। उस रात यही नाम उन दोनों के मैंने रखे। बड़ा वाला, जो थोड़ा काहिल और सुस्त था, वह अरेबा। और छोटा वाला, फुर्तीला और चंचल - परेबा।

परेबा हमारी भाषा में कबूतर को कहते हैं। लेकिन पालतू, घरेलू या शहरातू कबूतर को नहीं। वो तो बेचारे मामूली कबूतर ही होते हैं। परेबा तो होता है जंगली। बिल्कुल बेदाग, अछूता और वनैला। पहाड़ों के ऊपर चट्टानों की संध में बसेरा करता है और दानों की खोज में दुनिया भर भटकता-उड़ता फिरता है। वह परेबा ही था, जिसका एक कहानी में गिद्ध से मुकाबला हुआ था। किसकी नज़र कितनी तेज़ है। यानी किसकी आँख कितनी दूर तक देख सकती है। गिद्ध ने सौ मील दूर किसी खेत में मरे हुए एक बैल को देखा। तो परेबा ने उस बैल की लाश से दो हाथ, एक बीता, चार अंगुल दूर खेत में गिरे गेहूँ के सात दानों को देख लिया।

सबकी आँखें अपने अपने पेट में जाने वाली चीज़ों को देख ही लेती हैं। चाहे वे जहाँ और जितनी दूर हों। चाहे बैल जितनी बड़ी हों, या राई या तिल जितनी छोटी।

जब ये दोनों, अरेबा और परेबा, बड़े हो जाएँगे तो ये भी यहाँ से सौ मील दूर किसी खेत की मेड़, जंगल के मैदान या किसी आँगन के कोने में उगी दूब को देख लेंगे। और जैसे गिद्ध के पेट में बैल, कबूतर के पेट में गेहूँ का दाना और मेरे पेट में रोटी का कौर जाता है, वैसे ही इनके पेट में दूब जाएगी।

आँखें तो दरअसल पेट की ही होती हैं। भूख ही है, जो सब कुछ देखती है। पेट ही दुनिया को भूख की आँख से देखता हुआ अपना दाना-पानी खोजता है। वह पेट है, जो सब के शरीर को यहाँ-वहाँ दौड़ाता या उड़ाता रहता है।

अचानक ही मैंने ध्यान दिया। अरेबा यानी बड़ा वाला, दूध पीकर अघाया हुआ और आलसी बन चुका छौना, लालटेन की रोशनी में बने उस छोटे से संसार से फरार था। जब कि छोटा वाला परेबा अभी भी फाहे से दूध पीने में लगा हुआ था। हालाँकि उसकी घूंट भरने की रफ्त़ार अब काफी धीमी पड़ चुकी थी।

कहाँ चला गया अरेबा ? मैं डर गया। हमारे घर में तीन बिल्लियाँ आती थीं। और एक बिल्ला भी। हम उसे बग्घा कहते थे। वह दिखता भी बाघ जैसा ही था। मोटा, बड़ा, डरावना, घमंडी, क्रूर और षड्यंत्रकारी। वह अपने ही बच्चों का गला काटकर उन्हें मार डालता था। कुछ लोग कहते थे कि बग्घा दरअसल एक वन-बिलाड़ था, जो जंगल से आता
था।

अगर बग्घा ने अरेबा को देख लिया तो ?

मैं लालटेन लेकर उसे आँगन में खोजने लगा। परेबा को मैंने बायें हाथ से अपनी छाती में चिपका रखा था। मैंने पूरे आँगन को छान मारा। तुलसी के चौरा के पास बेले और गेंदे के पौधे उगे हुए थे। वहाँ भी वह नहीं था। रसोई के दरवाजे की दायीं ओर, जहाँ केवड़ा था और जिसमें साँप आकर रहते थे, वहाँ भी वह नहीं था।

'वो इधर खड़-खड़ कर रहा है।` अम्मां की आवाज़ आई। मैंने जाकर देखा। परछी के एक कोने में, जहाँ चावल के बोरे रखे हुए थे और सूपा, दौरी, छलनी, कुरई-वहीं वह चुपचाप पसरा हुआ था। उसकी आँखें नींद में मुंद रही थीं।

'अभी बग्घा देख लेता तो तुम अब तक उसकी पेट में पहुँच चुके होते, बच्चू!` मैंने उसकी पीठ को हथेलियों से सहलाया।

'अब तुम भी सोओ और उसे भी सोने दो!` अम्मां की थकी हुई आवाज़ आई। 'मैंने देखो, उनके लिए यहाँ एक घर बना दिया है।`

मैंने देखा, परछी के कोने में, जहाँ परछी और भंडार की दीवारों के बीच एक संकरी-सी जगह छूट गई थी, वहाँ अरेबा-परेबा के लिए अम्मां ने एक घर बना डाला था।

तो इसका मतलब यह हुआ कि मैं जब तक आँगन में रुई के फाहे से अरेबा-परेबा को दूध पिलाने में लगा था, अम्मां इधर अँधेरे में चुपचाप उनका घर बना रही थीं। बिना मुझे बताए।

कितनी अच्छी थीं अम्मां! .......और क्या वह अरेबा-परेबा की भी मां बन गई थीं ?

लेकिन अगर ऐसा था तो घर बनाते हुए अम्मां अरेबा और परेबा के बारे में सोच रही थीं, या मेरे बारे में ? क्या अम्मां के अलावा कोई और अपने जीवन में मेरे बारे में इतना कभी सोचेगा ?

मैंने देखा, अम्मां ने पुरानी रजाई के टुकड़ों और कई सूती चीथड़ों को उस संकरी जगह में डाल दिया था। मेरी फटी-पुरानी कमीज़ें भी उनमें शामिल थीं। अम्मां ने उस दरार में पीछे की ओर थोड़ी-सी खाली जगह भी छोड़ दी थी, जिससे अरेबा-परेबा रजाई और कपड़ों को गीला-गंदा न करें।

'छुच्छू आये तो उधर जाना, समझे! और गुग्गू भी। नहीं तो अम्मां बड़ी जोर से पीटेंगी। समझे!` मैंने दोनों को निर्देश देते हुए, उन्हें उनके घर में रख दिया।

अम्मां ने उस संध को बंद करने के लिए तार की जाली का एक किवाड़ भी बना डाला था। दोनों तरफ ठोंकी गई दो कीलों में वह जाली का टुकड़ा फंस कर उस संध को बाहर से बंद कर देता था।

अम्मां ने जब इन कीलों को ठोंका होगा तो आवाज़ क्यों नहीं हुई ? शायद मैं उस वक्त अरेबा को खोजने में लगा था और इतना चिंतित हो चुका था कि मेरे कान दुनिया की कोई भी आवाज़ सुनना बंद कर चुके थे।

लेकिन अम्मां ने तो कोई ढिबरी या दीया भी नहीं ले रखा था। अँधेरे में उन्होंने घर कैसे बनाया? सबसे बड़ी बात कि उन्होंने दीवाल पर कील कैसे ठोंकी ? अँधेरे में कील न दिखने पर हथौड़े या पत्थर से अंगूठा कुचल जाता है।

'अब तो बग्घा भी कुछ नहीं कर सकता।` अम्मां की आवाज़ में निश्चिंतता और अपनी सफलता की खुशी मिली हुई थी। 'चलो तुम भी सोओ! दो बज रहे हैं। सुबह चार बजे तुम्हारे बाबू जी उठ जाएँगे। कल सोमवार है।`

बाबू, यानी पिता जी रविवार को उपवास रखते थे और सोमवार को सुबह चार बजे उठ कर नहाते और पूजा करते थे। अम्मां इतनी सुबह उठकर उनके लिए पूरियाँ बनाती थीं। साथ में आलू परवल की सब्जी। या फिर बेसन का मसालेदार मींजा। मींजा को हम शाकाहारी कीमा कहते थे। पूरी के साथ वह बहुत स्वादिष्ट लगता था। इसके अलावा सेवईं या हलुवे, दोनों में से कोई एक मीठी चीज़।

'खरगोश क्या पूरी खाते हैं, अम्मां ?` मैंने नींद में जाने के ठीक पहले अम्मां से पूछा।

'जब बड़े हो जाएँगे, तो जो-जो तुम खाओगे, वे भी खाएँगे। लेकिन अभी तो तुम सो जाओ। वे भी सो गये हैं।` अम्मां ने कहा।


'मैंने उनका नाम रखा है -अरेबा-परेबा!` यह मैं शायद नींद के भीतर से बोला था। मैं आँखें मूंद कर अभी भी चुपचाप अरेबा और परेबा को देख रहा था। मैंने अपनी नींद के भीतर लालटेन की मद्धिम-पीली रोशनी का वही संसार रच लिया था, जिसमें उनके साथ मैं भी मौज़ूद था। लेकिन यहाँ मैं सो नहीं रहा था, बल्कि उन्हें सोते हुए देख रहा था।

'अरेबा-परेबा!` अम्मां ने गहरी साँस छोड़ी। वह साँस मेरी नींद के भीतर तक पहुँची। अपने घर में, रजाई के टुकड़ों और मेरी फटी-पुरानी कमीज़ पर सोते अरेबा-परेबा के कत्थई-भूरे, नर्म-मुलायम रोयें अम्मां की साँस से काँप गये। 'बहुत अच्छे नाम हैं!` अम्मां ने कहा। 'मां......मतलब तुम्हारी नानी पहले गाया करती थीं -
एहंकी से गइन हैं अरेबा-परेबा,
मारिन हैं मोहिनियाँ बान रे!`

अम्मां नींद के पार से बोल रही थीं और गा रही थीं। मैं अपनी रजाई के भीतर एक बहुत गहरी नींद के अँधेरे और कोहरे में धीरे-धीरे डूब रहा था। अरेबा-परेबा की कहानी मुझे अम्मां ने ही सुनाई थी। वे दोनों शायद ढोला-मारू की कहानी में होते थे और मोहिनी बान चलाया करते थे। क्या वह बान मुझ पर भी उन्होंने चला दिया था ?

लेकिन अम्मां कितनी अच्छी हैं, दुनिया में! यह मैं उस नींद के भीतर भी जान रहा था। यह बात मैं अम्मां को बोलना भी चाहता था, लेकिन अब मेरी आवाज़ ही पैदा नहीं हो सकती थी। क्योंकि जहाँ से आवाज़ पैदा होती है, वहाँ तो नींद पैदा होकर मेरे मस्तिष्क के भीतर के पूरे आकाश में किसी बादल की तरह फैल गई थी।

उस रात वह नींद पता नहीं कितनी गहरी थी। सुबह मैं देर से उसमें से जाग कर निकल पाया।

बाबू नहाकर पूजा कर चुके थे। पूरी, मींजा और सेवईं खा चुके थे। शेविंग कर चुके थे। अपनी गाल पर ब्रश से साबुन का झाग बना चुके थे। फट्....फट्...फट्....!

जब कि इसके पहले मैं हमेशा बाबू के नहाते वक्त, गुस्लखाने में से आती बाल्टी, लोटे और पानी की आवाज़ से ही जाग जाया करता था। या अम्मां द्वारा कड़ाही के कड़कते हुए घी में गोल-गोल पूरियाँ डालते ही पैदा होने वाली छन्न्...छन्न् की आवाज़ से। हद से हद देर हुई, तो पिता जी की पूजा की आवाज़ से।

नमामी शमीशां निर्वाण रूपं....विभुं व्यापकम् ब्रह्म वेद स्वरूपं....

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