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फिर भी उनकी नजरों में कुछ प्यार या स्नेह जैसा कुछ ऐसा जरूर होता है जो बरबस आकर्षित करता है या कहूँ अपनी तरफ ध्यान खींचता है। बिल्ली की नजरें लालच से भरी, मौके की तलाश में रहती हैं कि कब झपटें कब छीनें वे सतर्क होने का समय भी नहीं देतीं। मेरी माँ की आँखें बिल्ली जैसी ही बिल्लौरी थीं और भाई की भी। मेरी माँ चालाक तो बिल्कुल ही नहीं थी पर गुस्सा बहुत भरा रहता था उनकी आँखों में। मेरा बिल्ली आँखों वाला मुझसे तुरंत बड़ा भाई बहुत ही चालाक-चतुर और परले दर्जे का शैतान था। उसे मैं छोटा भाई कहा करती थी हालाँकि वह मुझसे बड़ा था।

मुझे अपनी माँ से बहुत डर लगता था। वे जब अपनी बिल्ली जैसी आँखों से गुस्से में भरकर मुझे या मेरे भाई बहनों को घूरती थीं तब हम सबकी तो जान ही निकल जाती थी। बिल्ली भी तो ऐसे ही घूरती है ना। इसलिए मुझे बिल्लियों से बचपन से ही बहुत डर लगता है। मैंने कभी अपने घर में बिल्ली या कुत्ता पालने का शौक ही नहीं पाला। आज नीली आँखें देखकर मेरे मुँह से अकस्मात निकल गया 'ओह ये नीली आँखें!` और इस बिल्ली की भूरी-भूरी हरी-हरी और कभी नीली-नीली लगती आँखें देखकर मैं अतीत के गलियारों में 'घूरने` लगी।

आलोक का स्थानांतरण बंबई से मद्रास हो गया था। उन दिनों रेल में एयर कंडीशन्ड डिब्बे नहीं लगा करते थे। ये सन् ५७ की बात है। अगर होते भी तो हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि हम उनमें सफर करते। फर्स्ट क्लास में भी हम इसलिए सफर कर रहे थे चूंकि आलोक को सरकार की तरफ से स्थानान्तरण होने पर, परिवार के लिए फर्स्ट क्लास का रेल भाड़ा मिलता था। सो हम फर्स्ट क्लास के डिब्बे में सफर कर रहे थे। हमें चार बर्थों वाले डिब्बे में तीन बर्थ मिली थीं। ऊपर की एक बर्थ पर वह नीली आँखों वाला अजनबी देसी पिता और जर्मन माँ का बेटा, मद्रास से पहले स्टेशन तक जाने के लिए सफर कर रहा था। उसे अपने बाप से अपनी संपत्ति का हिसाब-किताब करना था। बहुत ही मधुरभाषी, गोरा, छरहरा बदन, लंबा वह अलबेला-सा युवक बार-बार मुझे अपनी तरफ आकर्षित कर ले रहा था। मैंने महसूस
किया कि मुझे सायास अपनी आँखें उसकी तरफ से हटानी पड़ रही थीं।

हमने शाम को ट्रेन पकड़ी थी, इसलिए हम घर से खाना बनाकर अपने साथ बांध लाये थे। दरअसल पेन्ट्री कार का खाना हमें बहुत महँगा लगता था इसलिए हम साथ में पराठे आलू की सूखी सब्जी, अचार यहाँ तक कि हरी मिर्च और प्याज भी अलग से साथ में ले आये थे। उसी नीली आँखों वाले ने भी हमारा खाना बड़े चटखारे लेकर, बड़े ही चाव से खाया था। आलोक भी उससे खासा घुल-मिल गया था। न जाने क्यों घूम फिर क्यों उसकी नीली नजरें मुझ पर गड़ जाती थीं, जैसे
कि वे आह्वान कर रही हों उनमें समा जाने के लिए।

खाने के बाद वह अजनबी मेरे सामने वाली बर्थ पर जा लेटा। वह अपनी आँखों पर बांह धर कर सतत मुझे देख रहा था। आलोक ठीक मेरे ऊपर वाले बर्थ पर थे। वे मुझे देख नहीं पा रहे थे। मेरी बच्ची मेरे सामने वालीनिचली बर्थ पर सो रही थी। रात हो गयी, बत्ती बुझा दी गयी। बस, एक नीला बल्ब जाग रहा था और जाग रही थीं उसकी नीली आँखें। लगा जैसे कोई आक्टोपस मुझे जकड़ रहा है। लगा नीले समुद्र की नीली लहरें मुझे समेट रही हैं। लगा जैसे आकाश ने अपनी खिड़कियाँ खोल दी हैं और वह कह रहा है, 'आओ, आ जाओ मेरी खिड़कियाँ खुली हैं।` जैसे नीले आकाश की नीले परदों वाली खिड़कियाँ धड़ाम से खुल गईं! वे मुझे बुला रही थीं। रेल की खिड़की के बाहर अँधेरा जैसे सकपका कर सरपट भाग रहा था! रेल के भीतर नीली रोशनी भोर की किरणों की तरह भरती जा रही थी। एक अजनबी! उसकी आँखों की इतनी ज
बर जकड़।

मैंने अपनी देह चादर से ढक ली। लगा चादर भी नीली हो गयी है। मैंने वर्जनाओं की साँकल लगानी चाही, अपनी बेतहाशा भागती-हाँफती इच्छाओं पर, भावनाओं पर! मैंने अपनी सांसें रोक लीं! मैं अपनी भावनाओं के दरवाजे बंद करने की कोशिश करने लगी! पर, उत्तेजित उखड़ी-उखड़ी साँसें बेकाबू हो दरवाजों की कीलें निकालकर पार कर गईं! और वे नीली आँखें संभवत: मुझसे भी ज्यादा उद्दंडता की हद तक बेकाबू हो रही थीं। उन आँखों की नीलिमा सभी वर्जनाओं को पर कर मेरी देह के अंतरंग हिस्सों तक जा पहुंची थीं। आलोक ऊपर वाली बर्थ पर हैं इस अहसास की रेखा भी उस तरल पर ठंडी नीलिमा में खुलकर तिरोहित होने लगी थी। डिब्बे के खालीपन में मेरी बच्ची के होने का अहसास भी उन नीली आँखों की कोरों ने लील लिया था। नज़र आ रही थी तो बस आँखों से झरती वह नीलिमा, जो आलोक की किरणों से भिन्न थी। नीलिमा की वह फुहार सुन्दर थी। रोशन तो नहीं कर रही थी पर उसका नीलापन एक सुकून दे रहा था। उसके सौंदर्य से
उत्तेजित हुई जा रही थी मेरी देह!

मैं उन नजरों में समा जाना चाहती थी। कंपार्टमेंट में अंधेरा था। उस अंधेरे को चीरकर उसकी नीली पुतलियाँ मेरी देह को भेद रही थीं। मैंने बहुत कोशिश की उन्हें नकारने की। करवट बदल कर सो गयी मैं पर वह मेरी रीढ़ की हड्डी में घुस आयी थी उस नीलिमा की वह तीखी धार! मैं ज्यादा देर करवट बदल कर सो ना सकी।

करवट बदली, तो लगा जैसे मेरी देह इकतारे की तार बनी इंतजार कर रही है इन नीली आँखों की अंगुलियों का! इंतजार... कि वह आये... बजाए मेरा इकतारा कि बज उठे नीली आवाज़ में कोई गीत कोई धुन... नीलिमा से सराबोर!

'तुम इतनी सुंदर क्यों हो?` मैंने बिन बोले ही उन आँखों से पूछा था। नीलिमा मुस्कुरा उठी चुपचाप और झर गई उन आँखों की कोरों से।
मुझे लगा शायद उन्होंने प्रतिप्रश्न किया था 'क्या सचमुच?`
'हाँ!` न जाने मेरे भीतर बैठी एक दीवानी स्त्री कब बोल पड़ी थी... क्यों बोल पड़ी थी।
'डरती क्यों हो? छुओ न इन्हें। पी जाओ न मेरी नीलिमा को अपने होंठों से।`
'पर...` मैं हकलाई थी।
'पर क्यों?` उन आँखों ने ढीठ बनकर पूछा।
'ओ, अजनबी क्यों जकड़ लिया तुमने मुझे...? मेरा पति साथ में है। मैं एक पत्नी हूँ।`
'तो
? तो क्या हुआ? सौंदर्य किसी की संपत्ति नहीं होता! तुम सौंदर्य की पारखी हो। परखोगी नहीं उसे?`

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