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					 चंदनी 
					में पहले जब भी आया बस दो दिनों से अधिक नहीं रुका था। इस बार 
					माँ औेर पिताजी की शिकायत दूर करने के लिये मैं लंबी छुट्टी ले 
					कर घर आया था। तीसरे दिन ही मुझे लगा कि चंदनी में समय बिताना 
					बहुत ही टेढ़ी खीर है। यहाँ आने से पहले समय कैसे बिताया जाता 
					है इसका बाकायदा प्रशिक्षण ले लेना चाहिये। पहला दिन तो 
					मातापिता से मिलने में बिताया। दूसरे दिन चंद्रिका के पिता 
					कृष्णकुमार जी आदि से मिला। तीसरे दिन बस सामने सड़क और पीछे 
					रेललाइन, इन दोनों को छोड़ कर मनोरंजन का और साधन नजर नहीं 
					आया। शाम को कृष्णकुमार जी ने बताया कि चंद्रिका भी चंदनी आने 
					वाली है तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उस घटना के बाद मुझे 
					चंद्रिका का सामना करने में थोड़ी झिझक होती है। हालाँकि शादी 
					के लिये मना चंद्रिका ने किया था पर मुझमें एक ऐसी अपराध भावना 
					आ गई है जो मुझे सहज नहीं होने देती है। तो आप पूछ सकते हें कि 
					चंद्रिका के आने का समाचार सुन कर मुझे प्रसन्नता क्यों हुई। 
					आप चंदनी में तीन चार दिन रहिये तो आपको उत्तर स्वयं मिल 
					जायेगा। इस बोरियत के सामने कोई भी अपराध भावना नहीं ठहर सकती। 
					फिर चंद्रिका के साथ वर्तमान जैसा भी हो बचपन तो उसी के साथ 
					कटा था। 
                    उसको लेने बस अड्डे मैं ही गया 
					था। मुझे देख कर उसने आश्चर्य प्रकट किया। मुस्कराई। पर 
					प्रसन्न हुई या नहीं मैं नहीं कह पाया। रास्ते में केवल 
					औपचारिक बातें ही हुईं। उसके घर की, मेरे घर की, बस। अगले दिन 
					सुबह सुबह ही मैं उसके घर पहुँच गया। वह कोई पत्रिका पढ़ रही 
					थी। मुझे देख कर उसने पत्रिका रख दी। 
 'अकेली हो ?' मैंने पूछा। घर में कोई नहीं दिख रहा था।
 'हाँ माँ पता नहीं कहाँ गई है। पिताजी हाट गये हैं। ' उसने 
					कहा।
 'क्या करने का इरादा है आज तुम्हारा। '
 'कुछ विशेष नहीं। '
 'बड़ी बोर जगह है यह। '
 'यहाँ शहर का वातावरण खोजना बेवकूफी है। मैं यहाँ अपने लिखने 
					पढ़ने का पूरा सामान ले कर आई हूँ।
 
 हर बात का उसके पास काट था, हमेशा की तरह। मजे की बात यह कि वह 
					बात बात में मुझे बेवकुफ भी कह गई। खैर मैंने उसकी बात का बुरा 
					नहीं माना। इस तरह की चोटें तो हमदोनों के बीच चलती रहती थीं। 
					और मैंने चाहा भी यही है कि हमदोनों के बीच का समीकरण न बदले।
 
 'मुझे नहीं मालूम था कि तुम यहाँ मिलोगे नहीं तो मैं तुम्हारे 
					लिये भी कुछ पुस्तकें उठा लाती। ' उसने कहा।
 'अच्छा किया नहीं लाई। तुम्हारी दी हुई पुस्तकें मेरे पास बहुत 
					हैं। उन्हें पढ़ने के लिये रुचि उत्पन्न करना मेरे लिये कठिन 
					कार्य है। '
 'मुझे तुम्हारी रुचि मालूम है। मैं सूरज के उपन्यासों की बात 
					कर रही थी। ' उसके होंठों में हल्की स्मित रेखा खिंची हुई थी। 
					मेरी और उसकी आँखें चार हुईं तो दोनों ठठा कर हँस पड़े।
 
 वह हँसी हम दोनों के बीच सहजता ले आई। थोड़ी देर और बैठ कर मैं 
					वहाँ से चला आया। शाम हुई तो मैंने छत पर एक बड़ा सा गद्दा और 
					गावतकिये लगा दिये। वहीं गद्दे में अधलेटा हो कर मैं आसपास के 
					दृश्य का आनंद उठाने लगा। चांदनी छिटक आई। दूर घरों में 
					बत्तियाँ टिमटिमाने लगीं। माँ ओर पिताजी भी वहीं चले आये और 
					हमलोग पारिवारिक बातचीत में व्यस्त हो गये। माँ ने मेरी शादी 
					का विषय उठाना चाहा पर मैंने उठाने नहीं दिया। नीचे आहट हुई। 
					माँ देखने के लिये नीचे उतरी और वहीं से आवाज दी कि चंद्रिका 
					आई है। मैंने कहा उसे ऊपर ही भेज दो। तुमलोग बैठो कह कर पिताजी 
					भी नीचे चले गये। मैं चंद्रिका के बारे में सोचने लगा। बड़ी 
					पढ़ाकू बनती है, कितना पढ़ेगी आखिर।
 
 चंद्रिका छत पर आई। सफेद सलवार कमीज में थी, डिटर्जेंट टिकिया 
					का विज्ञापन बनी हुई। भली लग रही थी। मैंने बैठने के लिये कहा। 
					वह पास ही एक गावतकिया लगा कर घुटने मोड़ कर बैठ गई। बहुत देर 
					तक न वह बोली और न मैं बोला। जब चुप्पी भारी पड़ने लगी तो 
					मैंने उसकी ओर देखा। वह मुझे ही निहार रही थी।
 
 जगह का नाम चंदनी हो, स्थान एकांत छत हो, चंद्रमा की चाँदनी 
					छिटकी हुई हो, लड़की का नाम भी चंद्रिका हो और वह चाँदनी से 
					उजले कपड़े पहने हुए हो, ऊपर से बचपन की मित्र भी हो तो किसी 
					घटन-अघटन की आशंका करनी चाहिये।
 पहले हम दोनों की टकटकी बँधी और फिर पलक झपकते ही हम एक दूसरे 
					की बाँहों में समा गये। आलिंगन के आवेश में साँसें अवरुद्ध 
					होने लगीं। भावावेश के बावजूद मैंने पाया कि मेरा चेतन 
					मस्तिष्क काम कर रहा है और इस प्रश्न का हल ढ़ूँढ़ रहा है कि 
					जब हम दोनों के बीच प्रणय नहीं है तो ऐसा क्या अव्यक्त रह गया 
					है जिसकी अभिव्यक्ति इस समय इस आलिंगनपाश से हो रही है। आवेश 
					की अवधि समाप्त हुई, चंद्रिका तीव्रता से उठ कर छत की मुँडेर 
					के पास चली गई। इसी समय अँधेरे को चीरती हुई रेल गाड़ी आई और 
					एक झाँकी दिखला कर चली गई। फिर चुप्पी। मैंने पुकारा 
					'चंद्रिका', पर वह बिना उत्तर दिये वहाँ से चली गई। मैं उठ कर 
					मुँडेर के पास गया ओर अपने घर की ओर जाते हुये उसे देखता रहा।
 
 मैं सोचने लगा कि यह मैंने क्या कर डाला। चंद्रिका को भावना 
					में बहने का अधिकार है। एक तो वह लड़की है, दूसरे वह यह धारणा 
					पाले हुई है कि शादी के लिये मना कर उसने मुझे बहुत दुख 
					पहुँचाया है, तीसरे अकेलेपन से शायद वह बहुत घबड़ा गई हो और 
					चौथे शायद बचपन का प्यार उमड़ आया हो। उसके लिये इनमें से कोई 
					भी एक कारण भावना में बहने के लिये पर्याप्त है। पर मुझे तो 
					होश में रहना चाहिये था। क्या पता यह क्षणिक आवेश मुझे महँगा 
					पड़े। अब यदि चंद्रिका शादी का प्रस्ताव रखे तो मैं कभी मना 
					नहीं कर पाऊँगा।
 
 देर रात तक मैं सो नहीं पाया। सुबह सुबह आँख लगी तो सपने में 
					क्या देखता हूँ कि चंद्रिका एक बेंत गोद में रखे आराम कुर्सी 
					में डोल रही है और मुझसे मनोविज्ञान की एक मोटी पुस्तक के 
					अध्याय तीन से प्रश्न पूछ रही है। उत्तर सही न होने पर दो बेंत 
					मार पड़ेगी। घबड़ा कर उठ बैठा। अपने सपने पर मुझे हँसी आ गई।
 
 आज मेरा मन नहीं किया कि मैं चंद्रिका का सामना करूँ। इसलिये 
					शारदा नदी में मछली पकड़ने का प्रोग्राम बनाया। इस उद्देश्य से 
					मैं पिताजी का फिशिंग राड निकाल कर ठीक कर रहा था कि वहीं 
					चंद्रिका आ पहुँची। उसकी बड़ी बड़ी आँखों में तैरते लाल डोरों 
					से पता चला कि वह रात में ठीक से सोई नहीं। आते ही उसने कहा,
 'प्रताप चलो कहीं बाहर चलते हैं। '
 'मैं शारदा में मछली पकड़ने जा रहा हूँ, वहाँ चलना है ?'
 चंद्रिका ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
 
 नदी किनारे उचित जगह देख कर मैंने दरी बिछाई। चंद्रिका को 
					बैठने के लिये कहा। मैंने काँटे में चारा फँसाया। लाइन पानी 
					में डाली और रॉड लेकर चंद्रिका के पास बैठ गया। मैं क्या देखता 
					हूँ कि चंद्रिका अनमनी सी बैठी है जैसे उसके मन में कोई बोझ 
					हो। उसके माथे में पसीने की बूँदें हैं। पैदल चलने के श्रम से 
					साँस थोड़ी तेज है। उसको उस हालत में देख कर मैंने निर्णय लिया 
					कि चाहे कुछ हो जाय मैं इस लड़की को कभी दुख नहीं पहुँचाऊँगा। 
					मेरे ऊपर इतना हक तो उसका बनता ही है।
 
 'प्रताप, कल के अपने व्यवहार के लिये मैं शर्मिन्दा हूँ। ' 
					उसने नदी की ओर देखते हुये कहा।
 'गलती मेरी भी है। ' मैंने कहा।
 
 इसके बाद हमदोनों बहुत देर तक चुप रहे। वह अपने ख्यालों में और 
					मैं अपने। एक छोटी मछली हाथ आई। मैंने चारा फँसा कर लाइन को 
					फिर पानी में डाल दिया।
 
 'प्रताप, इतना कष्ट करके मछली मिली भी तो इतनी छोटी। हाट से 
					क्यों नहीं खरीद लेते। पिता जी कह रहे थे कि मछलियाँ बहुत 
					सस्ती हैं यहाँ। '
 'तुम बोर हो रही हो ? '
 ' नहीं तो। '
 'बाजार से तो हर कोई खरीद लेता है पर अपनी पकड़ी हुई मछली का 
					स्वाद ही अलग होता है। कहने का अर्थ यह कि जो चीज बाजार में 
					आसानी से मिल जाती हो उसकी कद्र नहीं होती। फिर एकांत चाहिये 
					हो या अपने में ही डूबे रहने की इच्छा हो तो इससे अच्छी दूसरी 
					जगह नहीं हो सकती। '
 'शायद तुम ठीक कह रही हो। '
 'तुम्हें तो मालूम होना चाहिये। तुम मनोविज्ञान आदि का बहुत 
					अध्ययन करती हो। '
 उत्तर में चंद्रिका ने कुछ नहीं कहा। केवल पानी की ओर देखती 
					रही।
 'कल से तुम में कुछ परिवर्तन देख रहा हूँ। '
 'कैसा परिवर्तन ? कल की बात कर रहे हो?'
 'नहीं। '
 'फिर ? '
 'तुम्हें मालूम है मैं क्या कह रहा हूँ। '
 'शायद। तुम ठीक ही कह रहे हो। कल मेरे अंदर का छुपा हुआ कुछ 
					बाहर आ गया था। हर समय तो तन के नहीं खड़ा रहा जा सकता है न 
					प्रताप। '
 'हाँ यही बात है। मुझे कभी अच्छी नहीं लगी तुम्हारी यह बात। 
					मैं तुम्हारा बालसखा हूँ। मेरे सामने तनने की तुमको क्या 
					आवश्यकता आन पड़ी! अरे मेरे सामने ढीली नहीं होओगी तो किसके 
					सामने होओगी ? '
 फिर वही चुप्पी।
 
 'मुझसे शादी करोगी चंद्रिका?' अपने इस प्रश्न पर मैं स्वयं ही 
					चौंक पड़ा। पता नहीं मन के किस कोने में दबी हुई थी यह भावना 
					जो अभी चंद्रिका के सामने शब्दों में परिणत हुई।
 'हाँ प्रताप। ' चंद्रिका ने कहा। वह मेरे पास खिसक आई और मेरे 
					कंधे में सिर रख दिया।
 उसके उत्तर से अधिक आश्चर्य नहीं हुआ मुझे। प्रश्न पूछने के 
					बाद मैं जैसी आशा कर रहा था वैसा ही हुआ। मैंने चंद्रिका को 
					अपनी बाईं बॉह के घेरे में ले लिया।
 
                    हम मित्र से पति-पत्नी बने। 
					चंद्रिका अब भी अध्ययनशील है। अब भी मोटी मोटी किताबें पढ़ती 
					है और मेरे अध्ययनशील न होने पर मुझे टोकती रहती है। पर सब कुछ 
					ठीक ठाक है।  |