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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से अमर गोस्वामी की कहानी— कैलेंडर


मेरे कमरे में एक कैलेण्डर था। किसी तानाशाह की तरह दीवार पर अकेले डटा रहता। नये साल पर यह मुझे मिला था। इसे पाने के लिए काफी प्रयास करना पड़ा था। मैंने खाली दीवार पर उसे टाँग दिया। जो भी आता उसकी नजरें उस पर टिक जाती थीं।

कैलेण्डर में एक गोरी खड़ी थी। विश्वसुन्दरी की तरह।
गोरी के पीछे एक लाल कार थी। तय करना मुश्किल था कि दोनों में ज्यादा खुबसूरत कौन थी।
गोरी के सीने और कमर पर कपड़ेनुमा कुछ था। उसका तन तना हुआ था। उसके खुले बदन को देखकर सात्विक विचार संकोच में पड़ जाते थे। लगता था उस कार के कारण ही वह ऐसी दशा में पहुँच गयी थी। हालाँकि गोरी के सारे कपड़े लुट चुके थे, वह सर्वहारा की स्थिति को प्राप्त हो चुकी थी पर उसके चेहरे पर कोई गम नहीं था, उलटे वहाँ पर दम था जो उसकी आँखों में भी कम नहीं था। कुल मिलाकर सबकुछ बड़ा सरगम था।

गोरी कैलेण्डर में इस अदा से खड़ी थी कि समझदार भी एकाएक नासमझ बन जाता था। वह अपनी उम्र भूल जाता, अपनी हैसियत भूल जाता और कभी-कभी अपने को भी।

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