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                    ‘‘स्मृति हमारी आत्मा के उसी अंश 
					में वास करती है जिसमें कल्पना... अरस्तू हरिगुण को मैंने फिर देखा।
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 रश्मि के दाह-संस्कार के अन्तर्गत जैसे ही मैंने मुखाग्नि दी, 
					उसकी झलक मेरे सामने टपकी और लोप हो ली। पिछले पैंतीस वर्षों 
					से उसकी यह टपका-टपकी जारी रही थी। बिना चेतावनी दिए किसी भी 
					भीड़ में, किसी भी सिनेमा हॉल में, रेलवे स्टेशन के किसी भी 
					प्लेटफ़ार्म पर या फिर हवाई जहाज के किसी भी अड्डे पर, बल्कि 
					सर्वत्र ही, वह मेरे सामने प्रकट हो जाता।
 अनिश्चित लोपी- बिन्दु पर काफ़ूर होने के लिये।
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 अवसर मिलते ही मैंने आलोक को जा पकड़ा, “हरिगुण को सूचना तुमने 
					दी थी?”
 “हरिगुण कौन?” आलोक ने अपने कंधे उचकाए, मेरे साथ बात करने में 
					उसकी दिलचस्पी शुरू से ही न के बराबर रही है।
 ‘‘तुम्हारे कस्बापुर में रहता है। रश्मि ने मुझे उससे मिलवाया 
					था। उधर अमृतसर में।”
 ‘‘इतने साल पहले?”
 आलोक को अमृतसर का उल्लेख अच्छा नहीं लगता। मेरे परिवारजन को 
					भी नहीं भाता। हम दोनों ही के परिवारों के लिए अमृतसर उस ग्रह 
					का नाम है जहाँ रश्मि और मेरी ‘कोर्टशिप’ ने लम्बे डग भरे थे, 
					‘कोर्ट मैरिज’ में परिणित होने हेतु।
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