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आखिर एक साँस में चढ़ने की क्या जरूरत थी उसे? उसने सोचा, वह अब एक अधेड़ महिला है, छोकरी नहीं। जरूर शान्ति बहन जी से मिलने की उत्सुकता थी, जो अपने-आपको भी इस तरह भूल गई। पूरी तरह से अपने पर काबू पा लेने के बाद उसने गोलू से पूछा, ''शान्ति बहन जी कहाँ हैं?''

''वे सब तो नीचे ही हैं, मौसी। शान्ति मौसी को तो आग से बहुत डर लगता है। वह तो ऊपर आई ही नहीं। आपको नीचे छोड़ आऊँ ?'' गोलू ने पूछा।

''नहीं-नहीं, मैं चली जाऊँगी।'' उसने कहा। दो मिनट वहीं और बैठकर वह नीचे उतरी। ड्राइंग रूम इनका फर्स्ट फ्लोर पर
है—दोतल्ले उसे उतरने थे, पर उतरना इतना मुश्किल नहीं, जितना चढ़ना होता है।

ड्राइंग रूम का दरवाजा खुला ही था, पर ड्राइंग रूम में कोई दिखाई नहीं दे रहा था। भीतर जाकर अच्छी तरह से देखने पर कोने में एक महिला बैठी दिखाई दी।

'इन्हें तो कहीं देखा लगता है।' उसे ऐसा लग रहा था—'कहाँ?' और अचानक उसके दिमाग में कौंधा—'अरे, यही तो पिछले रविवार लेखिका संघ की बैठक में 'महिलाओं की अस्मिता' पर बोल रही थीं। वह थोड़ी देर से बैठक (गोष्ठी) में पहुँची थी। उनका नाम नहीं सुना था उसने। तो क्या यह शान्ति बहन जी ही हैं?' उसने तो सोचा था, 'कोई गोरी-चिट्टी, मोटी, लटकी हुई काया वाली मुसलमानी बुढ़िया होगी, पर यह तो पतली-दुबली नफासत में भरी, आत्मलीन, बौद्धिक प्रभाव डालतीं, कमनीय, शान्त-सी महिला हैं...' उन्हें देखते हुए वह वहीं-की-वहीं खड़ी रह गई। उन्होंने भी उसे वहाँ खड़ी देख लिया था, इसलिए बोलीं—''आइए, आइए! पुष्पा शायद किचन में कुछ काम कर रही है... मैं उसकी मौसेरी बहिन हूँ शान्ति।''

'
शान्ति' सुन शान्ति-सी पड़ गई उसे, नाम सुनने के लिए उसकी सारी काया ही कर्णमय हो रही थी।
''महिला संघ में आप...?'' उसने अधूरा ही वाक्य छोड़ा।
''हाँ, मैं ही थी।''
''पर निमन्त्रण-पत्र में तो आपका नाम...?'' उसे दो नाम याद आ रहे थे—फहमीदा रियाज या तसलीमा नसरीन जैसे।
पर शान्ति बहनजी उसकी जिज्ञासा को भाँप गई थीं। उन्होंने अत्यन्त सहजता से कहा, ''एस. अहमद—वहाँ पाकिस्तान में यानी लाहौर में यही हूँ न मैं।''
''शान्ति बहनजी,'' कहते हुए वह आगे बढ़ी पर उसकी सम्भावना के अनुकूल न तो उन्होंने उसे गले लगाया, न मुसलमानी बुढ़िया की तरह उसे 'मेरी जिंद (जान), मेरी चन्न (चाँदनी)' कहा, बस अपने हाथ में उसका हाथ पकड़ लिया। बहुत देर तक वह ऐसे ही हाथ पकड़े बैठी रहीं।

वर्षों पहले, शायद पूर्वजन्म में, ऐसे ही एक दिन वह उसका हाथ पकड़कर उसे थड़े (चबूतरे) से अन्दर ले गई थीं। गली की सबसे बड़ी हवेली की मालकिन की बेटी थी वह—विधवा का अर्थ न समझते हुए भी हमें यह मालूम था कि वह बाल-
विधवा हैं।

सफेद मकराने के पत्थर की ऊँची हवेली थी उनकी, जिसके फर्शों को वह अपने हाथों से चमकाया करती थीं। शायद गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ती थीं। एकदम भक्क सफेद कपड़े पहने, लेस वाला सफेद दुपट्टा सिर पर ओढ़े वह गम्भीर मुद्रा में उनको गली में से निकलते देखती थी...गली के बाहर पर्देवाला ताँगा आता था, जिसमें बैठकर कॉलेज जाते हुए उन्हें हम देखते थे। उनको देखना हमें अच्छा लगता था, पर उनकी हवेली के पास जाते डर लगता था। ताईजी से सारे गलीवाले, जिसे भी जरूरत होती, सुबह लस्सी लेने जाते थे। अकसर लोग अपने बच्चों को ही भेजते थे, पर उसे हमेशा वहाँ जाते
संकोच होता था।

आज भी याद है उसे, उस दिन घर पर कोई सब्जी नहीं थी। माँ ने उसे उनके घर लस्सी लेने भेजा था, ताकि वह कढ़ी बना ले। डोल लेकर वह हवेली के थड़े की सीढ़ियों पर तो पहुँच गई थी, पर उसके साथ कोई और नहीं था, जिसके सहारे वह अन्दर चली जाती—पता नहीं, वह कितनी देर वहीं खड़ी रहती कि शान्ति बहनजी ने उसे देख लिया था। उसका हाथ पकड़कर वह उसे अन्दर ले गई थीं। 'पूरा भरकर डोल लस्सी नहीं चाहिए' कहने के बावजूद उन्होंने उसका डोल भर दिया था। उसे पुष्पा से मिलवाया था—पुष्पा शान्ति बहनजी की मौसी की लड़की थी और गुजरात से छुट्टियाँ बिताने अपनी माँ के साथ उनके यहाँ आई हुई थी। उन्होंने उससे कहा था कि वह रोज हवेली में आकर पुष्पा के साथ खेला करे। पुष्पा को
उन्होंने उसके साथ भेज दिया था, ताकि घर लस्सी पहुँचा कर वे दोनों फिर वापस हवेली जा जाएँ।

बचपन में दोस्तियों के पक्के होते देर ही कितनी लगती है? हम इकट्ठे गिट्टे खेलते, गेंद खेलते! उनके सुन्दर फर्श पर कोयले से लाइन खींचते हमें डर लगता था।

इसलिए 'शटापू' खेलने हम छत पर चले जाते थे। वहीं पर एक दिन हमने शान्ति बहनजी के 'उसको' देखा था। किताब देने और वापस लेने के बहाने वह घर की दीवारी के 'बन्ने' (छोटी रेलिंगनुमा मुण्डेर) पर आता था। शान्ति बहनजी अकसर हमें माउंटी पर चढ़ा देती थीं। हमें खाने की चीजें देती थीं, कॉपी में 'कीटी काटे' बना लेने के लिए देतीं और कहतीं, 'खेलो, मैं देखूँगी कि तुम में से कौन ज्यादा जीतता है।' वहीं पर खेलते हुए हमने 'उसको' देखा था। वह शान्ति बहनजी का हाथ पकड़े हुए था। शान्ति बहनजी ने हमें देखते हुए देख लिया था, पर उस दिन के बाद उन्होंने हमें ओट में करना या छिपाना भी बन्द कर दिया था। यह हमारी आन्तरिक सूझ-बूझ ही रही होगी कि बिना उनके कहे ही हम समझ गए थे कि 'बन्ने' वाली बात हमें नीचे ताईजी को नहीं बतानी है।

उस दिन हम नीचे पहुँचे, तो ताईजी और मौसीजी ने बहुत डाँटा था, ''मोई मरजानियाँ, कहाँ थीं तुम? शानो कहाँ मर गई! हमने तो उसे तुम्हें ढूँढ़ने के लिए भेजा था, दंगों के दिन हैं, अग्गे लग रही है और ये सिरमुनियाँ ऊपर चली जाती हैं।''

फिर ताईजी खुद मुझे मेरे घर पहुँचा कर आई थीं। वह शायद सन २५ की मई या जून का कोई गर्म दिन था। हमारी बजाजोंवाली गली में हिन्दू-मुस्लिम दंगे में बड़ी जोर की आग लग गई थी। उस उम्र में हमें डर तो बहुत लगता था, पर भीषण वास्तविकता का अन्दाज हमें नहीं था—हाँ, इतनी-सी बात याद है कि गुरुद्वारे की मीटिंग में सारे मर्द गए थे और सबने यह फैसला लिया था—इससे पहले कि कुछ और फसाद हो, सब लोग अमृतसर, दिल्ली या जिस-जिसका जहाँ कोई
हो, वहाँ चला जाए।

पुष्पा के पिता को तार देकर बुलाया गया था। कौन कहाँ गया, किसी को पता नहीं। ये तो बरसों बाद कॉलेज में उसकी भेंट पुष्पा से हुई थी। उसकी नई-नई नौकरी लगी थी और उसने उत्साह में ऐडमिशन कमेटी में नाम दिया था। वहीं पुष्पा अपनी छोटी बहन का दांखिला करवाने के लिए आई थी...वहीं उसी से पता चला था—उसके पिताजी ने ताईजी को बहुत समझाया था कि वह इतने भयंकर दंगों में उन माँ-बेटी को अकेला छोड़कर नहीं जाएँगे, पर शान्ति बहनजी साथ चलने के लिए राजी ही नहीं हो रही थीं। पिताजी के गुस्सा करने पर ताईजी ने कुछ गहना-गट्टा तथा जरूरी सामान समेटना शुरू किया कि आँखें बचाकर शान्ति बहनजी वहाँ से ओझल हो गयीं और अचानक हवेली के पिछवाड़े आग लग गई! पुष्पा के घर के लोग तो यही कहते हैं कि शान्ति ने खुद ही आग लगाई थी। अगर शान्ति कहीं छिपी भी थी, तो ढूँढ़ने पर भी नहीं मिली। आग के बुझने तक खुद राख होने के डर से रोती-धोती शान्ति की माँ को जबर्दस्ती वे लेकर चले आए थे।
यह तो बहुत अर्से बाद किसी से पता चला था कि शान्ति बहनजी जिन्दा थीं और वहीं सेटल हो गईं थीं।

ड्राइंग रूम के उस कोने में शान्ति बहनजी का हाथ पकड़े जिस धूप-छाँही यात्रा में वह सफर कर रही थी, पुष्पा ने उसमें ब्रेक लगा दी, ''अरे निन्ना, तू आ गई। चल, अच्छा हुआ...वर्ना तेरी मुलाकात ही न होती। सुबह चार पचपन की फ्लाईट से जा रही हैं बहनजी...रात तीन बजे घर से निकलेंगी। घर तू फोन कर दे...लौटते हुए तुझे घर छोड़ देंगे...जल्दी से हम खाना खा लेते हैं...फिर तीनों गप्पें मारेंगे...फिर न जाने कब मिलना हो?''

ठीक ही तो कह रही थी पुष्पा, लम्बी-चौड़ी भूमिकाओं का वंक्त नहीं था—संकोच वाली उम्रें भी बीत गई थीं। पर मानवीय सहज जिज्ञासाओं पर अभी विजय नहीं पाई थी।

''शान्ति बहनजी, हमने तो आपको उन 'बन्नो', 'मुंडेरों' और आगों के फ्रेम में ही बाँध रखा है, अपनी आँखों में अब तक—उस दीवार को लांघने की बात हमें नहीं बताएँगी!'' उसने पूछा

शायद लोहड़ी का माहौल था या तथाकथित अपनों से सुख-दुख बाँटने की अन्तिम-सी घड़ियाँ कि बिना ज्यादा कहलवाए
शान्ति बहनजी ने बताना शुरू कर दिया था—

''हमारे पंजाब में एक कहावत है—'किसी नूँ माँह बादी, किसी नूँ नरोए'। यानी सापेक्ष दर्शन की बात है कि किसी को काली माश की दाल वातरोगकारक है और किसी अन्य को स्वादिष्ट रूप में पाचक एवं ग्राह्य! ऐसे ही उन दिनों जो आग मनुष्यता को जला रही थी मेरे लिए दीवाली बनकर आई। तुम लोग समझती होगी कि अहमद को पाने के लिए मैंने वह आग खुद लगाई होगी—नहीं, ऐसा नहीं हुआ। आग कैसे लगी मुझे भी पता नहीं, पर उसी की उठती लपट को देख मैं माँ के पास से उठी थी। पर मैं इस बात से इनकार नहीं करूँगी कि उस आग ने मेरे जीवन में रोशनी का त्योहार ला दिया था। बढ़ती लपटों को देख आग बुझाने के इरादे से सम्भवत: अहमद छत पर आया था—उसे छत पर देख आवेग में बिना आगा-पीछा सोचे बन्ने को टाप मैं उसके पास चली गई थी और फिर आग को भूल हम कुछ देर अहमद की सीढ़ियों में छिपे रहे थे। जब आस-पास का शोर आना बन्द हो गया तो हम अहमद के घर में थे। उन दिनों हिन्दू घरों की लड़कियों को घर ले आना मुस्लिम घरों में फख्र की बात समझी जाती थी। तुम्हें बताने में मुझे जरा संकोच नहीं कि मैं विधवा की वीरान जिन्दगी जीना नहीं चाहती थी। मेरे घर के लोगों ने तो मुझे आग में जलकर मर गई समझ लिया होगा और मैं
आग की दीवार को लाँघ स्वतन्त्र हो गई थी।

हिन्द-पाक विभाजन ने मुझे भी स्वतन्त्रता दी—मैं मन और शरीर की रूढ़ियों से मुक्त हो गई। मिथ्या रूढ़ संस्कारों से मैंने मुक्ति पा ली थी। संकोच तुम्हें अपने समाज से होता है—मेरा अपना कहा जाने वाला समाज तो वहाँ से विदा ले चुका था और अब जो मुझे मिला था वह था अहमद के साथ हुए ब्याह से नया वजूद, नया जीवन, नया घर। यूँ अहमद का अपनी फुफेरी बहन के साथ ब्याह हो चुका था पर उनमें दूसरा ब्याह कोई असाधारण चीज नहीं...पर अहमद इसके लिए मृत्यु के दिन तक शर्मसार रहे क्योंकि अपनी नंजर में वह मुझे अपने आपको पूरा न देने के अपराध बोध से ग्रस्त रहे—शायद इसी अपराध भाव का ही परिणाम था कि हमारा कोई बच्चा नहीं हुआ। नाम से जरूर मैं शान्ति से शान अहमद हो गई थी पर मुझे मेरा मुक्त परिवेश देने के लिए अहमद ने अपने परिवारवालों के सहयोग से मुझे गवर्नमेंट कॉलेज हॉस्टल में रखकर बी.ए. और एम. ए. करवाया। अँग्रेजी साहित्य में एम. ए. तो किया ही, साहित्य की अभिरुचि
से उर्दू और फारसी साहित्य का अध्ययन और तुलनात्मक धरातल पर शोध किया—वहीं मुझे प्रोफेसरशिप मिल गई।

आज सोचती हूँ कि वहाँ रहकर मैंने वजूद पाया, स्त्रीत्व की सार्थकता पाई। मेरी नंजर में भारत जैसे देश का कोई मतलब नहीं रहा—केवल माँ की याद जरूर आती थी। अभी भी अगर यहाँ के राइटर्स गिल्ड वालों ने न बुलाया होता तो सच कहूँगी कि शायद तुम लोगों से मिलने की भी कोई इच्छा न थी। अभाव आप उनका महसूस करते हैं जिनका लम्बा और गहरा साथ आपने पाया होता है। आपका संसार आपके छोटे-से घर में समाया होता है—यह तो आपकी संवदेनशीलता है जो आपको घर से इतर संसार से जोड़ती है। तुम्हें इसमें विरोधाभास लग सकता है पर मेरे लिए यह जीवन का सबसे बड़ा सच है। बुरा न मानना, मुझे तुम लोगों से मिलकर बहुत खुशी हुई है पर अहमद ने मुझे वजूद दिया, व्यक्तित्व दिया, दिमागी स्वतन्त्रता दी—आज अहमद नहीं पर वहाँ अहमद का घर है—वह मेरा घर है और अब मैं वहाँ पहुँचने के लिए बे
चैन हो रही हूँ।''

शान्ति बहनजी चुप हो गई थीं। वे तीनों ही चुप थीं। इस चुप्पी को तोड़ा पुष्पा ने—
''बहनजी आपको हमारी याद आती हो या न आती हो, हम तो कभी भूले ही नहीं आपको—हमारे तो बचपन की हीरोइन थीं आप। हमें क्या फर्क पड़ता है कि आपका नाम शान्ति मेहरा है या शान अहमद। देखो न, मैं अनपढ़ दो-दो प्रोफेसरों के बीच में सैंडविच बन गई—आप दोनों तो वहाँ और यहाँ शान और गरिमा का जीवन बिता रही हो—रह गई मैं बिचारी।'' हँसते-हँसते पुष्पा कह रही थी—''बाल-बच्चों के कोल्हू और मर्दों की जी-हजूरी में जिन्दगी गला रही हूँ। अब देखो न, बिछड़ने का वंक्त करीब आ गया—गँवार हूँ न, आँखों का रोना भी छिपाना नहीं आता मुझे। आप लोगों के पास बैठकर अपने को खास मान रही थी, मैं भी विशेष हो गई थी।'' फिर रोने को हँसी में बदलते हुए बोली—''देखो, क्या गर्मागरम
चाय आपके लिए लाती हूँ—आपको वक्त से भेजना भी है न।''

पुष्पा किचन की तरफ जा रही थी और उन दोनों ने देखा एक साथ कि घड़ी सवा दो बजा रही थी—शान्ति बहनजी ने उसका हाथ एक बार फिर अपने हाथ में ले लिया था।

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९ जनवरी २०१२

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