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कहानियाँ  

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस. से अमरेन्द्र कुमार की कहानी— चिड़िया


समय की रफ्तार कभी रुकती नहीं और हम खड़े भी नहीं रह पाते उसके आगे... बहे चले जाते हैं। कुछ पलों को मुठ्ठी में भींच कर रखना एक बच्चे की कातरता की तरह हैं जो जानता है कि अब चाहे जितनी कोशिश कर ले उसे रोक नहीं पाएगा और वह पल पल रिसता जाएगा जब तक कि उसकी अंतिम छुअन भर रह जाएगी, उस स्पर्श की बची खुची स्मृति की जगह।

जब तक कि आप उसे पहचान पाए मौसम बदल जाता था। धुंध भरी सर्दी एक उदास चेहरे की तरह होती थी। उसमें पता भी न चल पाता था कि कब वसंत चुपके से आकर किधर निकल गया कि अप्रैल में धूप एकदम से तेज़ हो जाती थी जैसे कि कोई किसी को आतंकित कर देता है। लेकिन यहां आप पहचान बना सकते हैं हर एक ऋतु से। हर मौसम इतने समय तक रहता है कि आप उसे तसल्ली से पहचान सके।

सर्दी पीछे छूट गई थी। वह वसंत का मौसम था, जब कि पत्ते भी फूल बनके खिल उठते हैं ...सड़क के दोनों तरफ फूलों के नन्हें जंगल देखकर लगता था कि जीवन जैसे उजाड़ से सर उठा कर झांक रहा हो। हवा में उनकी खुशबू एक ललक की तरह बसी रहती थी। धूप कभी इतनी चमकीली हो जाती थी कि कई बार लगता था जैसे धुंध से कभी वास्ता ही न रहा हो।

अमेरिका में हर ऋतु एक पहचान लिए आती है। हवा आकाश धूप और
पत्तों का

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