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अगले दिन मैंने माँ से बाज़ार घूम आने की बात कही तो उन्होंने फागुनी को मेरे साथ कर दिया। फागुनी बड़े ध्यान से सब बातें सुनती रही होगी। घर से बाहर निकलते ही बोली, "दीदी आप यह सब अपने दिल पर न लो। यहाँ तो घर-घर यह ही हाल है।"
मैंनें उसकी बात सुन ज़रा-सी हामी भरी पर कहा कुछ नहीं।
वो कब चुप रहने वाली थी, "दीदी आपके अमरीका में तो ऐसे नहीं होता न?"
"मैं तो यहीं की हूँ न। अमरीका रहने का यह मतलब नहीं कि वहाँ कुछ फ़र्क है। इंसान तो सब जगह वही के वही। वही सोच वही स्वभाव मोह, माया, द्वेष, क्रोध।
"तो क्या सोच रही हो आप?"
"कुछ नहीं।"
"हमने तो कई दफे कहा अम्मा से कि आप ही सुलह करा दो।"
"हाँ हाँ सब ठीक हो जाएगा। तुझे मालूम है कि वह लोग कहाँ रहते हैं।"
"बस उस दिन जब मंदिर में मिली थीं, अम्मा जी ने मुझे उनका सामान उनके घर पहुँचाने साथ कर दिया था। उनकी मम्मी बहुत थकी लग रहीं थी बहुत दुखी थीं बेचारी। लड़की को न घर मिला न घर वालों का प्यार। सिविल लाईन्स वाले मंदिर के पीछे वाली कालोनी में ही रहते हैं।"

उसकी बकबक सुन कर घर लौटने का मन हुआ। पर एक वही तो डोर थी जिसके ज़रिए मैं वहाँ पहुँच सकती थी।
"अच्छा चल फिर! चल कर देखते हैं कि कोई घर पर मिल जाए।"
हमने गाड़ी रोक कर नाम से उनके घर का पता पूछा तो पहले ही व्यक्त्ति ने इशारे से विवेक का घर दिखा दिया।
घर के सामने दरवाज़े पर खड़ी मैं घंटी बजाने का उपक्रम ही कर रही थी कि दरवाज़ा खुला और मधुर स्वर ने मुझे पहली ही नज़र में अपना लिया।
"कौन दीदी?"
"अरे तुम्हें कैसे मालूम मैं कौन हूँ?"
"विवेक ही कह रहे थे कि दीदी आते ही ज़रूर मिलने आएँगी। हमें तो पिछले सप्ताह ही मालूम पड़ गया था कि आप आने वाली हैं।"
कहते कहते उसने अपना माथा ठोका जैसे अपने को होश दिला रही हो।
"मैं भी कितनी एक्साइटिड थी आपसे मिलने को, और अब अंदर बुलाना ही भूल गई।"
"आइए दीदी आप यहाँ बैठिए मेरे सामने।" मुझे एक कुर्सी पर बैठा कर वो उसके सामने वाली कुर्सी पर जा बैठी।
"कितनी बार याद करते हैं वो आपको।"
"अच्छा और कभी कोई खोज ख़बर नहीं लेता मेरी।"
"हमें तो सब पता रहता है दीदी। तभी तो देखो आपकी सब पसंदीदा नाश्ते की चीज़ें ला कर रखी हैं इन्होंने।"

हर बार मैं उसी को तो कह-कह कर चीजें मँगाती रही हूँ। घर आते ही उल्टे पाँव जाकर मेरी फ़रमाइश पूरी करने चल देता।
पल भर को मेरे मन में ख़याल आया भी कि यह कहीं मेरे विदेश से आने के कारण तो नहीं कर रही। अगले ही कुछ पलों में मेरा यह भरम दूर हो गया। इसे तो घर के एक-एक सदस्य के बारे में जानकारी थी। यह समझते देर न लगी।
माँ को दो बार देख कर समझ गई थी कि माँ की पसंद के रंग फूल फल मिठाई कौन से हैं। उसकी बातों से लगता था कि वह माँ को मुझसे ज़्यादा जानती है।

लगता है दोनों परिवार के बारे में काफ़ी बातें करते रहे हैं। मुझे तस्सली हो चली थी कि दोनों ने सोच समझ कर ही जीवन का इतना बड़ा कदम उठाया होगा।
क्या इस मुकाम पर परिवार वालों को भूल जाना नहीं चाहिए कि विवाह भले ही सबकी उपस्थिति में नहीं हुआ परंतु आज इनकी एक नन्हीं बिटिया भी है जिसे परिवार के लाड़ प्यार पर पूरा अधिकार है।
कुछ समय उसके साथ बिताने के बाद मैंने अनु को आग्रहपूर्ण न्यौता दिया कि तीज पर हमारे साथ झूला झूलने ज़रूर आना। किसी तरह विवेक को मना लेना।
मेरे अधिक कहने से पहले ही वह मुस्कुरा कर सुर्ख हो रही थी। बोली दीदी, "अब और कहने पूछने की आवश्यकता नहीं हम ज़रूर आएँगें।" उसका विवेक में विश्वास और अधिकार बहुत अच्छा लगा और मैं संतुष्ट हो घर लौटी।
फागुनी को मेंहदी और अन्य त्यौहारी सामान लाने भेज कर मैं थोड़ी देर और अनु के साथ बतियाती रही फिर घर लौटी तो मेरे लिए प्रश्नों की झड़ी थी।
क्यों इतनी देर लगा दी? जेटलेग अभी ख़त्म नहीं हुआ अब तीज के दिन सोती रहोगी, गई कहाँ थी? वगैरह वगैरह
तीज वाले दिन सुबह से तैयारियाँ शुरू हो गईं। स्नान पूजा के बाद से ही मेंहदी कपड़े तरह-तरह के पकवान पेय चाय आदि की तैयारी चल रही थी। चाट पकौड़ी, मठरी, शक्कर पारे, काली मिर्च वाली मोटी-मोटी सेव, हलवा और गरम-गरम इमरती। माँ ने अपने हाथों से कुरकुरे गरम-गरम बड़े सब के लिए तले थे। घर के पीछे बाग में आम की सबसे मोटी डाल पर पड़ा झूला खोल दिया गया था। नई रंग बिरंगी हरिद्वार से लाई गई पटरियाँ झूले पर जमा दी गईं थीं। यह झूला साल में दो चार बार ही खुलता था। माँ बिना निगरानी यह ऊँचा लंबा झूला किसी को झूलने नहीं देतीं थी।

दोपहर के खाने के बाद से ही स्त्रियाँ घर आने लगीं थीं। माँ ने सबको चेता दिया था कि गाना गाने को तैयार लड़कियों को ही झूले पर पींग की प्राथमिकता मिलने वाली है। तीज के इस झूले पर दो-दो व्यक्ति एक साथ आमने सामने अपने पैर सामने वाले की पटड़ी पर सटा कर बैठ सकते हैं। दोनों तरफ़ एक-एक लड़की खड़ी हो कर सावन के गीत गाते हुए झुला देतीं। बाकी सभी मेहमान घेरे में खड़े हँसी ठिठोली करती गा रही थी और बीच-बीच में चाट भजिया शरबत और चाय का दौर चलता। कुछेक स्त्रियाँ गानों पर नाच रहीं थी। माँ को यह सब धूमधाम बहुत भाती है और वो खुद भी बढ़ चढ़ कर गीत गाने की इस रूमानी ऋतु का श्रीगणेश करतीं।
शिव शंकर चले कैलाश
बुँदियाँ पड़ने लगीं
धानी चुनर मोरी सर पे न ठहरे
चूड़ियाँ करें झनकार रे
सावन की आई बहार रे

जवान पीढ़ी द्वारा फ़िल्मी गीतों से चुन-चुन कर बरसाती सावन की गीत गाए गए और सचमुच ही हल्की-हल्की बूँदो की छुवन उन पेंगों व पलों को चुहल की खुशियों से सराबोर कर गई।
मेरी सहेलियाँ, भाभियाँ और छोटी बुआ सब मौजूद थे और भाभी बार-बार मेरा चेहरा पढ़ चुहल करते क्यों कि दीदी दरवाज़े पर नज़र गड़ाए रखने से जीजा जी नहीं आ जाएँगे। आप आ कर गाना शुरू करिए।
ढाई बजने में दो एक मिनट बाकी होंगे कि गेट के पार मुझे अनु आती दिखाई दी, मैंने बढ़ कर उसका स्वागत किया। नन्हीं मेघा को मैनें अपनी गोद में ले लिया और वो भी एक दिन की पहचान के बाद ही हाथ बढ़ा कर मेरे पास आ गई थी।
आम के नीचे झूले की ओर ले जाने से पहले मैं उन दोनों को घर के भीतरी हिस्से में ले गई जहाँ माँ और बुआ बैठे गुपचुप बातों में लगे हुए थे।
"देखो तो कौन आया है?"
"कौन है री बाहर बैठा लो हम उधर ही आ रही हैं।"

इससे पहले कि मैं आगे कुछ कहती अनु ने ही आगे बढ़कर बुआ और माँ दोनों को प्रणाम किया। दोंनों यों अचंभे में थीं कि मुँह से कोई बोल न निकले पर आँखों में कई प्रश्न आए और गए। बुआ ने बस आशीर्वाद में हाथ उठाए और अनु की गोद में मेघा की तरफ़ इशारा किया।
मेघा नन्हें-नन्हें हाथ फैला कर उन्हें बुला रही थी। हाथ बढ़ा कर उन्होंने बच्ची को गोद में ले लिया था। बिना कुछ बोले ही बुआ समझ गई थीं और मेरी तरफ़ देख कर बोलीं, "यह तेरी ही शरारत होगी, तू ही किसी का कहा नहीं मानती।"
बुआ के झूठे उल्हाने का मुझपर न असर होना था न हुआ।
इस बीच बुआ मेघा से उन्मुख हो चुकी थीं, "कैसे तरस गई थी इसे देखने को मैं। तू पहले क्यों न आई।" अब वह अनु से शिकायत कर रहीं थीं।
मेघा बुआ की गोद में ऐसे लिपट गई थी जैसे बरसों की पहचान हो। बुआ के चेहरे की तृप्ति बता रही थी कि सारे प्रश्न कहीं खो गए थे कुछ बचा था तो बस पेंग बढ़ाने और चढ़ाने की उमंग। वह अनु से बोलीं, "चल तो बाहर, देखूँ तुझे तीज गाते।" मैंने सजल आँखों से उस नेह के जुड़ती कड़ी को देखा था।
फ़ोन की घंटी बजी और मैं वर्तमान में लौट आई हूँ। अबकी तीज पर नया क्या होने वाला है कौन जाने। पर मैंने निश्चय कर लिया है इस बार यहीं पिछले बाग में पेड़ पर लंबा झूला लगवाना है।

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९ अगस्त २००५

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