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ठीक साढ़े पाँच जब जानकी आई तो जिज्जी की आँख उसकी आहट से ही खुलीं। दोनों बच्चों से थकी जिज्जी ऐसा सोईं कि वक्त का पता ही नहीं चला।
माँ अलग आवाज़ पर आवाज़ दिए जा रही थीं, "शाम को प्रभा के यहाँ खाने पर चलना है। कब उठोगी, कब तैयार होगी? यह आजकल के बच्चे? सोने से ही फुरसत नहीं इन्हें।"
इसके पहले गोलू उठकर माँ के सुर में सुर मिलाए और माँ कोई और नया तूफान उठाएँ, जिज्जी घबराकर फँसे गले से बोलीं, "सुन जानकी तू अभी जा। कल फिर आ जाना। सुबह ले जाना। मैं स्वेटर निकालकर तैयार रक्खूँगी। अभी ज़रा जल्दी में हूँ।"

जानकी जैसे आई थी वैसे ही चुपचाप चली गई। गुमसुम और उदास। जिज्जी की आँखों में उसका उदास और छोटू का बीमार चेहरा बार-बार घूमता रहा। जब सोना बिल्कुल ही नामुमकिन हो गया तो अपने आलस को धिक्कारती जिज्जी उठीं और गोलू के दर्जनों स्वेटरों में से चार छोटू के लिए निकाल लिए। वैसे भी जाड़ा तो खतम ही समझो और जिस रफ्तार से छोटू बढ़ रहा है इनमें से एक भी उसे अगले साल तो नहीं आने का। बल्कि जाते समय एक दो और जानकी को दे जाऊँगी। कितनी खुश होगी वह इतने सारे स्वेटर देखकर। अब कम से कम उसके बेटे को ठंड तो नहीं ही लगेगी और जिज्जी सुबह के इंतज़ार में, जानकी की मुस्कुराहट के इंतज़ार में कब सो गईं, कुछ पता ही नहीं चला।

आँख खुलीं तो सुबह के साढ़े पाँच बजे थे। दिन तो अच्छी तरह से चढ़ आया है वैसे भी जानकी के यहाँ तो सब चार बजे ही उठ जाते हैं। अब और इन्तज़ार नहीं कर पाईं जिज्जी। स्वैटरों का पुलंदा लिफ़ाफ़े में रखते समय थोड़े से रुपए भी डाल दिए। वक्त-बेवक्त काम आएँगे जानकी के और सर्वेन्ट क्वार्टर की तरफ़ चल पड़ीं वह। पर यह क्या? वहाँ से तो दबी-दबी रोने-सुबकने की आवाज़ें आ रही थीं। क्या हो गया-कहीं जानकी की माँ भी तो नहीं... कलेजा मुँह को आने लगा। कहीं सर्वेश को तो कुछ नहीं... नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता। जिज्जी सर्वेंट क्वाटर की तरफ़ दौड़ीं।

सामने जानकी छोटू को गोद में लिए बैठी, बुत-सी लग रही थी। बार-बार बेटे को चूमे जा रही थी। कसकर छाती से लगा रही थी जैसे डर गई हो कि कोई उसे उससे छीनकर ले जाएगा। बिल्कुल वैसे ही जैसे गाय मरे बछड़े को चाटती है... चिपकाए रखती है। यह क्या सोच रही हूँ मैं? भगवान सर्वेश्वर को खूब लंबी उमर दे, जीजी ने अपनी सोच को धिक्कारा।
कसकर पकड़े बच्चे को उससे छुड़ाने में असमर्थ रामसखी खड़ी-खड़ी रोए जा रही थी। कभी अपनी बीमारी को कोसती तो कभी जानकी को डाँटने लग जाती, "अब इसे क्यों लड़िया रही है। यह तो छलिया था...छलिया। मोह माया में हमें डालकर, मुँह मोड़ गया। छोड़ गया हमें यों ही रोने और बिलखने को। आप ही समझाइए जिज्जी इसे। अब तो बस पिंजरा रह गया है। पंछी तो कब का जाने कहाँ उड़ गया।"
हवा में हाथ नचाती पूरी पागल-सी लग रही थी रामसखी। मन ही मन में जाने क्या-क्या बुदबुदाए जा रही थी वह।

जिज्जी क्या समझातीं जानकी को, उनकी समझ में तो खुद ही कुछ नहीं आ रहा था अब। अभी कल ही तो उन्होंने उसे गोदी में लेकर जी भर खिलाया था। माना कि थोड़े से आलस में स्वेटर नहीं निकाल पाईं थीं वह कल, पर इतनी छोटी-सी भूल की इतनी बड़ी सजा तो कोई भी नहीं दे सकता... भगवान भी नहीं। जिज्जी ने अविश्वास में हाथ बढ़ाए तो जानकी ने चुपचाप बेटे को उनकी गोद में दे दिया। उसे उन पर पूरा भरोसा जो था। शायद जिज्जी की गोद में ही जाकर सर्वेश ठीक हो जाए, मुसकुराने लग जाए। उसकी गोदी में तो दूध के लिए भी नहीं रोता।

किंकर्तव्य-विमूढ़ जिज्जी को छोटू गुड़िया जैसा लगा। शिथिल, ठंडा और बेजान। पश्चाताप और ग्लानि में डूबी जिज्जी के हाथ से पैकेट छूटकर ज़मीन पर गिर गया। अब इसे किसी स्वेटर की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। कोई पैसे इसके कभी काम नहीं आएँगे। हाँ उनके दिए पैसे जानकी के बुरे वक्त में ही काम आएँगे। यही तो सोचा था उन्होंने रुपए डालते समय। काश घड़ी की सूई पीछे जा पाती और उनके मन में आता यह रुपए छोटू की पढ़ाई के काम आएँगे। उसकी शादी में काम आएँगे।

बुत-सी खड़ी जिज्जी के हाथ से सर्वेश को जब कोई नहीं छुड़ा पाया तो जानकी की माँ मुझे बुलाकर ले गईं। कैसे मैं जिज्जी को वहाँ से ला पाया मुझे खुद याद नहीं। बस इतना मालूम है कि सात आठ घंटे हो गए हैं जिज्जी को यों ही चुपचाप यहीं बैठे-बैठे। अंगूठे से ज़मीन को कुरेदते और बारबार कुछ लिख-लिख कर बिगाड़ते हुए। रह रहकर एक गहरी काली दर्द की लपट उनके चेहरे को झुलसा जाती है। आज तो उनका वह खामोश आँसुओं का झरना भी नहीं बह रहा है जिसके नीचे बैठकर जिज्जी अपना बड़े से बड़ा घावतक धो लेती थीं। मानो सब चुक गया हो। आत्म-संताप में जलकर भस्म हो चुका हो। चारों तरफ़ एक बर्फ़-सी सिहरा देने वाली खामोशी छाई हुई है। मानो हर तरह की आवाज़ों ने इस दमघोटू सन्नाटे से घबराकर आत्महत्या कर ली है।

माँ आती हैं और गोलू को जिज्जी की गोदी में डाल देती हैं, "ले संभाल अपने बेटे को, ऐसी छोटी-छोटी बातों को मन से लगाएगी तो कैसे जी पाएगी तू। यह तो दुनिया है दुनिया... यहाँ तो यह सब चलता ही रहता है। इन छोटे-छोटे लोगों के यहाँ तो हर साल ही बच्चे पैदा होते हैं और हर साल ही..." इसके पहले माँ अपना वाक्य पूरा कर पाएँ...एक भयानक विस्फोट होता है। खामोश गुनगुने पानी के सोतों की तरह आँसू बहाने वाली जिज्जी एक लंबी अनियंत्रित दहाड़ के साथ, बिफर-बिफर कर रोने लग जाती हैं। मानो बरसों का दबा ज्वालामुखी फट पड़ा हो।

दर्द दरिया बनकर बह रहा था और उनके काँपते शरीर में एक जलजला-सा आ गया था। कसाई-खाने की तरफ़ घसीटे जाने वाली गाय की तरह मैं चुपचाप सब देखे जा रहा था।
"ऐसा मैंने क्या कह दिया?" माँ सहमकर पीछे हट गईं।
"ले, तू ही सँभाल अपनी बहन को। तेरे से ही सँभलेगी अब तो यह," कहती माँ तो चली गईं पर गोलू को गोदी में लिए खड़ा-खड़ा मैं सोच रहा हूँ कैसे चुप कराऊँ अपनी जिज्जी को, कैसे रोकूँ, दर्द की इस उमड़ती बाढ़ को? बाढ़ें कब भला रोके रुकती हैं? आज तो मुझे अच्छी तरह से पता है वह हल्दी और सोंठ वाला दूध भी काम नहीं आएगा। वैसे भी वक्त उन दिनों से बहुत आगे आ चुका है। हम बदल गए हैं। पर ऐसे बिलखता भी तो नहीं छोड़ सकता अब इन्हें। शायद समय ही दवा हो इनकी दुखती रगों की और जिज्जी के चेहरे को खरोंचती वह दर्द की लकीरें मेरी आत्मा को खुरेचती, रग-रग में धँसती चली गईं।
एक बात बताऊँ... आज मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा... यह घर, माँ, जानकी, मेरी अपनी जिज्जी, कुछ भी नहीं।
अपने-अपने दुख और ग्लानि के टीलों में दबे हम सब कितने दूर-दूर और अजनबी से नज़र आ रहे हैं। किसी के लिए कोई भी कुछ नहीं कर पा रहा। इस आज और अभी की रिसती सरहदों में मेरा दम घुटने लगा। नन्हीं बच्ची-सी असहाय और कमज़ोर जिज्जी को मैं कहीं छुपा लेना चाहता हूँ। हरदम बचाना जो चाहता था उन्हें हर दुख से। पर आज... कुछ भी तो नहीं कर पा रहा...
न सर्वेश को ज़िंदा कर सकता हूँ न वक्त की घड़ी में कल वापस ला सकता हूँ। वैसे भी तो अपने-अपने दुखों की गठरी सर पर उठाए हम कभी न कभी तो, ज़रूर ही, उबर ही आते हैं दुख की नदी के दूसरे किनारे पर। शायद मेरी जिज्जी भी कभी फिर से ठीक हो जाएँ क्योंकि वह तो बचपन से ही सिर्फ़ एक फाइटर ही नहीं, सरवाइवर भी हैं।

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१० नवंबर २००८

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© सर्वाधिका सुरक्षित
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