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निगाहें लौटती हैं पीछे की ओर, तो भटकती ही रह जाती है।
अभी पिछले हफ़्ते की ही तो बात है। भैया को खोजते उनके अपार्टमेंट तक पहुँच गया। वह मिले नहीं, केवल भाभी थीं।
मुझे देखती ही बोली, ''निर्मल! खूब आए तुम, मेरी वॉशिंग मशीन खराब हो गई हैं। ये कपड़े लॉन्ड्रोमैट तक ले आने हैं। ज़रा ले तो जाओ।''

मैं मुरादाबाद होता, और भाभी, सरला, कुंती या मधूलिका होतीं, तो मैं झटपट कपड़ों की गठरी उठा, लपककर चल दिया होता, और चलते-चलते कहा होता, ''देखो भाभी, मेरे लौटने तक प्याज़ के पकौड़े तैयार रखना, यदि लौटते ही सामने प्लेट न मिली तो...''
भाभी हँस पड़ी होतीं, और उस हँसी की डोर से, गैस के गुब्बारे-सा बँधा, मैं फूला-फूला कदम बढ़ाता जाता।
किंतु यह मुरादाबाद नहीं, शिकागो है। और भाभी, कुंती, सरला या मधूलिका नहीं, पमेला हैं। प्याज़ के पकौड़े तो दूर की बात है, इनके हाथ से एक प्याला चाय भी बड़े भाग्य से मिलती हैं। और जब मिलती है तब सभ्यता के अनुसार, चेहरे पर एक लंबी-चौड़ी मुस्कान लाकर कहना होता है, ''थैंक यू!''
अतः झटपट कहा, ''आई एम सॉरी, पमेला! आज तो मुझे ज़रा भी छुट्टी नहीं। भैया कहाँ है? उनसे कुछ पूछना हैं।''
लगा कि पमेला बुरा मान गई हैं।

लगा कि उसकी आँखें साफ़ कह रही हैं- बड़ी हिंदुस्तान की कहानियाँ सुनाया करते हो कि कैसे मौसी, चाची और रिश्ते की भाभी की फ़रमाइशें पूरी करने के लिए, भरी धूप में भी साइकिल लेकर बाज़ार दौड़ा करते थे। मैं भूले-भटके कभी कोई ज़रूरी काम भी कह देती हूँ, तो झट से कह देते हो- आई एम सॉरी। यही तुम्हारी भारतीय सभ्यता है?
किंतु उस अनकहे अभियोग का मुझ पर ज़रा भी असर नहीं हुआ। अपनी भारतीय सभ्यता के अनुसार, एक दिन भूल से उन्हें 'भाभी' कहकर पुकार बैठा था। वह तुरंत बोली थी, ''तुम हिंदुस्तानियों के नाम ही मुश्किल होते हैं। मेरा तो बड़ा आसान नाम है, पमेला। कहो, पमेला। याद रहेगा न अब?''

मैंने स्वीकृति में ज़ोर से सिर हिला दिया था- हाँ, खूब याद रहेगा।
मुझे चुप देख, यह बोलीं. ''इन दो कमरों में रहना मुझे ज़रा भी पसंद नहीं। तुम्हारे भैया कोई आरामदेह फ्लैट खोजने गए हैं। न जाने कब तक लौटेंगे।''
सुनकर याद आ गया- जिस दिन भैया ने पमेला के हाथ से सगाई की अंगूठी पहनाई थी, उसी रात मुझसे कहा था, ''निर्मल, यह फ्लैट तो अब हमें छोड़ना पड़ेगा।''
मैं चौंक गया था, ''क्यों, भैया?''
सुनकर भैया चुप रहे थे। फिर हारे-थके से, धीरे से बोले थे, ''मैंने तुम्हें बताया है। अगले महीने की नौ तारीख को मैं पमेला से विवाह कर रहा हूँ।''
मैं लज्जित हो उठा था, 'क्यों' शब्द का प्रयोग कर, मुझे भैया को दुःखी नहीं करना चाहिए था। मेरी बुद्धि कहाँ चली गई थी, जो मैं पहले ही यह नहीं सोच सका कि एक अमरीकी लड़की, पति के भाई को अपने घर में बसाना पसंद नहीं करेगी।
मुझे चुप देख, भैया बोले थे, ''निर्मल...आई एम सॉरी।''
मैंने अपने मन की सारी शक्ति बटोर, मुख पर हर्ष और उत्साह लाकर कहा था, ''वाह! इसमें अफ़सोस प्रकट करने की क्या बाद है, भैया? मैं तो केवल यह सोच रहा था कि 'फ्लैट' के लिए हमने जो काँट्रैक्ट साइन किया था, उसका क्या होगा?''

बहुत वाद-विवाद के बाद, हाउसिंग-कोऑपरेटिव को पाँच सौ डॉलर जुर्माना देकर हम उस फ्लैट के मालिक बनने से छुटकारा पा सके थे।
फ्लैट खाली करते समय, एक बार मेरे मन में बात उठी थी- कमल के यहाँ आ जाने पर, किराये आदि में बचत होगी। इस विचार से यह फ्लैट ख़रीदा था। कमल यहाँ आ भी नहीं पाया, और...
और आज कमल की एक और चिट्ठी मेरी जेब में पड़ी है।
मार्गरेट मुझे बड़ी अच्छी लगती है। मुझे लगता है- उससे विवाह कर मैं सुखी रहूँगा। किंतु कमल...और माँ...और बाबू जी...
कंधे पर किसी का हाथ पड़ा। मैंने चौंककर देखा- मार्गरेट थी।
''यहाँ क्यों खड़े हो? नाराज़ हो गए?''
''नहीं, नाराजी की तो कोई बात नहीं, बस की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।''
''मैं तो सिर्फ़ पाँच मिनट के लिए गई थी। पीटर को अपनी गर्ल-फ्रेंड के लिए एक उपहार ख़रीदना था।'' वह सफ़ाई देते हुए बोली।
मैंने अपना हाथ उसकी कमर में डाल दिया, ''मैं क्या भला तुमसे नाराज़ हो सकता हूँ, डार्लिंग! एक ज़रूरी काम याद आ गया, इसलिए जा रहा हूँ।''
''ऐसा ज़रूरी काम है! दस मिनट भी नहीं रुक सकते? और मुझसे कहा करते हो कि मैं घड़ी की सुइयों के साथ चलती हूँ?''

हँसी आ गई। उसके साथ वापस कॉफी की मेज़ पर लौट आया।
कॉफी के घूँट भरते, दो-चार बातों के बाद, मार्गरेट ऐसे बोली, जैसे कोई भूली बात याद आ गई हो, ''निर्मल, जब कभी कोई परिचित मिलता है, मेरी खाली उँगली देखकर पूछता है, इसमें अंगूठी कब पड़ेगी?''

मैंने प्याला धीरे से प्लेट पर रख दिया।
जिस प्रश्न की मैं प्रतीक्षा कर रहा था, मन-ही-मन जिससे डर रहा था, वह आखिर सामने आ ही गया।
मेरे सामने जो सुंदर लड़की बैठी है, यह विवाह के लिए तैयार है। जिस दिन मैं इसकी उँगली में अंगूठी पहनाऊँगा, यह मुझसे विवाह करना स्वीकार कर लेगी। विवाह हो जाने पर, अपने उस 'मैरिज काँट्रैक्ट' को बड़े यत्न से, कोहिनूर जड़े किसी दस्तावेज़ की तरह सँभालकर रखेगी।
अपना 'मैरिज काँट्रैक्ट' सयत्न सूटकेस में रखते हुए एक दिन पमेला ने कहा था, ''हम लोगों के लिए यह काँट्रैक्ट बड़ा कीमती है निर्मल! हमारे समाज के कुँवारे रहने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा माना जाता है कि किसी लड़की का विवाह होकर तलाक हो जाए। यदि विवाह सफल न हो तो हम लोगों को तलाक़ की पूरी सुविधाएँ हैं।''

पमेला की उँगली में उसके विवाह की अंगूठी थी। वह किसी सिक्के की तरह चमक रही थी- उस सिक्के की तरह, जिसे किसी मशीन में डालते ही, उसका मशीन से कांटैक्ट हो जाता है। जब तक सिक्का अपनी जगह रहता है, मशीन चलती रहती है। जब तक सिक्का फिसलने लगता है, मशीन बंद हो जाती है।

मैंने दृष्टि उठा, उसकी ओर देखा। कहा, ''मार्जी, तुम्हें मालूम है मेरे ऊपर बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं (घर पर तीन अविवाहित बहनें हैं), एक छोटा भाई है, जिसकी सारी पढ़ाई बाकी है। मैं इस काबिल नहीं कि तुमसे विवाह कर सकूँ...आई एम सॉरी, मार्ज!''
उसकी निगाहें झुक गईं।
दो पल बाद ही, उसने सिर उठा मेरी ओर देखा। कहा, ''निर्मल, आई एम ऑलसो सॉरी।''
धीर, स्वस्थ भाव से उसने कॉफी का प्याला खतम किया नैपकिन मेज़ पर रखा और उठ खड़ी हुई। अपना हाथ बढ़ाकर बोली, ''बाई, बाई!''
मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया, ''मार्गरेट, क्या मैं आशा करूँ कि हमारी मैत्री में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा और हम कभी-कभी मिलते रहेंगे?''
''क्यों नहीं, निर्मल! लेकिन तुम जानते हो, जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं, उमर बढ़ती जाती है। मैं भी जवान तो नहीं हो रही हूँ। मैं अपना समय बरबाद नहीं कर सकती।''
''मैं समझता हूँ, मार्जी!''
''बाई, बाई!''

वह चल दी। मैं देखता रहा, दरवाज़े के निकट वह रुकी नहीं। एक बार मुड़कर देखा नहीं। हाथ हिलाकर विदा नहीं ली।
खिड़की से मैं उसे सड़क पार करते देखता रहा- अभी वह लांड्रोमेट में घुसेगी, कपड़े निकालने को मशीन का ढक्कन उठाएगी, तो मशीन भी कुछ नहीं कहेगी। निःशब्द रहेगी।
फिर कोई आएगा, और 'स्लॉट' में एक सिक्का डाल देगा। और मशीन फिर से चलने लगेगी- घुर्र..घुर्र...
मशीन की आवाज़ इन बंद आवाज़ों के बीच, ज़िंदगी के अंतराल का अंतिम छोर क्या मैंने पा लिया है?

या फिर कोई 'मार्गरेट' आएगी? और उसकी आँखों में बंद, घुटे प्रश्नों की चौंध ऐसी तीखी होगी कि मैं कमल को भूल जाऊँगा...अपनी बहनों को भूल जाऊँगा...माता-पिता और संबंधियों को भूल जाऊँगा।
नहीं-नहीं।
मैं ऐसा नहीं होने दूँगा...नहीं होने दूँगा...होने दूँगा...नही...उफ़!
मैं देख रहा हूँ- मेरी आँखें देख रही हैं- पीटर लॉन्ड्रोमैट में प्रवेश कर रहा है। उसकी आँखों में ज़रूरत है। जेब में सिक्के हैं और मशीन खाली है। और मेरे मन में ईर्ष्या का लेश भी नहीं है।

किंतु मेरा मस्तिष्क क्यों बेचैन है? अवचेतन में घुटी वह आवाज़ क्यों फिर से कसक रही है- तेरी एक ज़िंदगी पीछे है, एक कहीं आगे है और उन दोनों के बीच यह जो आज की ज़िंदगी है...

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८ सितंबर २००८

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