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मखीजा जब शाम को आफिस से लौट कर आया तो अपनी उलझनों से काफी हद तक मुक्त-सा था। प्रतिदिन की ही तरह पुरानी हिन्दी फिल्म का गीत गुनगुनाते हुए सीढ़ियों से चलकर ऊपर अपने फ्लैट के सामने पहुँचकर ताले में चाबी डालने ही वाला था कि उसकी नज़र कैप्री की बाल्कनी की तरफ़ उठ गई। वह ठीक उसी मुद्रा में बैठी थीं, जैसे सुबह बैठी थी। गहरी निगाहों से देखते हुए वह ताला खोलकर अन्दर चला गया, लेकिन मन न जाने क्यों फिर अनमना हो गया। मन में आया कि जाकर उनसे बात करे। लेकिन क्या? और क्यों? यहाँ रहते हुए इतने दिन हो गए, तक़रीबन पाँच वर्ष! इतने दिनों में उनका आमना-सामना बमुश्किल तीन-चार बार ही हुआ। तब भी औपचारिकता वश उनसे हाय हेलो ही हुई,  ज्यादा बातचीत के लिए न उन्होंने ही कोशिश की, न ही उसने कुछ अपनी ओर से कहा फिर भी उसे लगता कि वे हमेशा ही उसकी तरफ़ देखती रहती हैं। न जाने क्यों उसे यह भी एहसास होता कि वे सिर्फ़ देखती ही नहीं बल्कि उसकी गतिविधियों पर ध्यान भी रखती हैं, हालाँकि इस बात से उसे कोई चिढ़ न होती बल्कि एक संतोष की अनुभूति ही होती।

आज कैप्री ने शायद उसके आने का कोई नोटिस नहीं लिया? हो सकता है कि किसी की याद आ रही हो या अतीत के सुनहरे सपनों में खोई हो! सपनों की बात मन में आते ही मखीजा ने उस ख़याल को बलात झटका। असल में आजकल जो सपने उसकी आँखों में आते थे, वह चाहे सोई आँखों के सपने हों या जागती आँखों के वह अपने पीछे अवसाद की एक लम्बी रेखा खींच जाते जो गहरी होती! इतनी कि उसे पार कर पाना सरल नहीं होता। भय के कारण उसने स्नान इत्यादि से निवृत्त होकर थोड़ी देर तक टेलीविजन देखकर वाइन की बड़ी खुराक ली और सो गया। दूसरे दिन काम की अधिकता के कारण मन इतना उलझा था कि उसको फ्लैट से निकलते समय कैप्री का ख़ास ध्यान नहीं रहा। संभवत: उसने उनकी बाल्कनी की तरफ़ एक सरसरी दृष्टि से देखा। वे उसी स्थान पर थी, जहाँ कल थी।

आज उसे न जाने यह क्यों लग रहा था कि वह समय से अपने क्लाइंट तक नहीं पहुँच पाएगा! उसने जब कार स्टार्ट कर दी, तभी जाकर उसकी हिम्मत बँधी। दरअसल आजकल उसे कभी-कभी लगने लगता कि जीवन ठहर-सा गया है, कभी लगता कि उसके पास समय बिल्कुल ही नहीं है। वह अजीब तरह से घबराया रहता। जब बहुत घबरा जाता तो न जाने क्यों कैप्री का ध्यान आते ही वह राहत महसूस करता। शांत, अविराम, निश्चल! या फिर एकाकी, उदास! ज़रूर सैकड़ा पूरा करने वाली होंगी? चेहरे की झुर्रियाँ तो यही कह रही हैं। वैसे भी अब यूरोप में सौ तक पहुँच जाना एक सहज बात है, लेकिन जैसे ही उम्र का ध्यान मन में आता उसे अपना वजूद लरजता सा लगता। हे भगवान! फिर उसके मन में जो उटपटांग से विचार आते वह खुद ही नहीं समझ पाता कि वह क्या हैं? वह इसी ऊहापोह में गाड़ी को सड़क के दोनों तरफ़ फैली हरियाली के बीच से बढ़ता जा रहा था। कई बार कोशिश की कि वह हरियाली में ध्यान लगाकर अपनी ऊहापोह से मुक्ति पा जाए, लेकिन, जिन विचारों से वह दूर जाना चाहता था, वे थे कि पीछा छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। उम्र बढ़ रही है। एक दिन मैं भी केप्री जैसा ही जीवन जीते हुए इसी या शायद फिर किसी दूसरी बिल्डिंग के एक फ्लैट में मौत की प्रतीक्षा करूँगा!

मौत की प्रतीक्षा! हे भगवान! यहाँ यूरोप में तो सभी यही करते हैं। चाहे किसी फ्लैट के वीराने में, किसी ओल्डहोम की सोई दीवारों के बीच! या फिर किसी भव्य विशाल भवन में! अच्छा यह हुआ कि जैसे ही उसके मन में यूरोप की जीवन शैली से सम्बन्धित विचार आने लगे उसकी बेचैनी कम होने लगी। वह शाम को देर से घर वापस आया। खाना बाहर ही खाया था। डेनिश बीयर का हल्का-सा सरूर था। जिस व्यापार की डील में वह उलझा था, वह पूरी हो गई थी। फिर अगला दिन भी छु्ट्टी का था। अगले दिन वह दूसरी छुटि्टयों के दिनों की तरह देर से सोकर उठा और देर से ही तैयार होकर बाहर निकला। हमेशा की तरह उसका ध्यान फिर केप्री की बाल्कनी की तरफ़ चला गया। वे अभी तक वैसे ही उसी स्थान पर उसी मुद्रा में बैठी थीं । उसका माथा ठनका। वह नीचे गया और जाकर उसके फ्लैट की कालबेल बजाई, बजाता रहा, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं। कोई फोन नम्बर भी नहीं था। यह बिल्डिंग न तो इतनी बड़ी ही थी कि कोई रिसेप्शन हो, न हीं इतने ख़ास इलाके में। फिर वापस लौट कर डिरेक्टरी से फ़ोन नम्बर तलाशने का प्रयत्न किया और वह कामयाब भी हो गया। बिल्डिंग के कैप्री वाले फ्लैट के पते से उनके नाम का जो नम्बर मिला, उसको बार-बार डायल करने पर भी जब कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई और केप्री उसी मुद्रा में दिखी जैसी वे पहले थीं तो उसकी आशंका विश्वास में बदल गई।
कैप्री मर गई।

कैप्री मर ही गई थी। फायर ब्रिगेड वालों को मखीजा ने फोन किया तो वह आए और काफी कोशिशों के बाद उनके शव को क्रेन से उतारा गया। हालाँकि डेनमार्क के लिए यह कोई अनहोनी या नई घटना नहीं थी। अक्सर अपार्टमेन्ट के फ्लैटों से हफ्तों, महीने पहले मर चुके लोगों के मिलने की ख़बरें अख़बारों में छपती ही रहतीं। लोग दूसरी तमाम ख़बरों की तरह इस तरह की घटनाओं को वहाँ के जीवन शैली का ही हिस्सा मान लेते, मखीजा वही मानने का प्रयत्न कर रहा था, लेकिन वह न तो डेनमार्क का था, न ही कैप्री की तरह मरना ही चाहता था।

कैप्री का पार्थिव शरीर कब का वहाँ से चला गया, लेकिन मखीजा का अवसाद था, कि कम होने का नाम नहीं ले रहा था। अजीब-अजीब-सी बातें मन में आ रही थीं। सुबह नाश्ते के बाद लंच के समय खाने का प्रयत्न भी किया, लेकिन एक ग्रास तक हलक से नीचे उतरने को तैयार नहीं था। डिनर में भी यही हाल था। सोने की काफी देर तक कोशिश की लेकिन नींद का कोसों तक नामों-निशान न था। पुराने कागज़ों के ढेर से घर का कोई फोन नम्बर तलाशने की भी काफी कोशिश की, लेकिन जो मिला अब उसमें से एक भी नम्बर काम नहीं कर रहा था। हालाँकि उसे अपने परिजनों के संबन्ध में जानकारी हासिल कर लेना बहुत कठिन कार्य नहीं था, लेकिन उसे लग रहा था कि उसके पास इतना समय नहीं। बिस्तर पर जाने के बाद बेचैनी और भी बढ़ने लगी। गहराती रात के साथ सर्दी बढ़ती ही जा रही थी। एकएक उसे लगने लगा कि अभी वह जैसे ही नींद में गया तो वह भी कैप्री की तरह इस दुनिया से कूच कर जाएगा। कैप्री तो बालकोनी में थीं, तीसरे या शायद चौथे दिन ही पता चल गया। उसकी लाश तो महीनों बाद ही लोगों को मिलेगी! यह भय इस कदर मखीजा के मन में बैठ गया कि वह कई बार जाकर बालकोनी में बैठा! बावजूद सर्दी के पसीना-पसीना होने लगता।

इसी स्थिति में रात अपनी यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक पहुँच गई। घड़ी में सुबह के तीन बज गए। जब उसकी दृष्टि घड़ी पर गई तो अचानक ख़याल आया कि जब तक घर से सम्बन्ध था तब तक इसी समय भैया या दीदी किसी का फोन आता तो मखीजा सोते से जागकर झुँझला जाता। अपने घर वालों पर ही नहीं, बल्कि सारे हिन्दुस्तानियों पर क्रोधित होता था। असल में फोन के आने का यह समय इसलिए होता कि तब भारत में रात के आठ या नौ बजे होते और आदतन मखीजा को कामों से फुरसत में मानकर उसे फोन किया जाता। वह कहता भी लेकिन एकाध बार के बाद फिर फोन आता तो उसी समय! इधर कई सालों से फोन आना कम हो गया था, लेकिन आज जैसे ही यह ख़याल मन में कौंधा तो न जाने कैसे मन के एक कोने में यह आशा भी जागी कि हो सकता है आज फिर फोन आ जाए।

हिन्दुस्तान में तो जब से मोबाइल का चलन हुआ है तब से अधिकांश लोगों ने लैंडलाइन का कनेक्शन ही कटवा दिया। लेकिन यहाँ तो अभी तक उस संकट ने पाँव नहीं पसारे थे। मेरा फ़ोन नंबर तो होगा ही। और अगर फ़ोन होगा तो आ भी सकता है। जैसे ही यह विचार आया तो मखीजा बैड पर बैठ गया। बगल में ही रसीवर को ऐसे ध्यान से देखने लगा जैसे फ़ोन के आने का समय निश्चित हो। भोर के साढ़े तीन बजे! हमेशा की तरह आश्चर्य जनक रूप से उत्तेजना तो समाप्त नहीं हुई, लेकिन अवसाद जाता रहा। शरीर का भरीपन हल्का हो गया। पलकें उसी तरह बोझिल होने लगीं जैसे पहले होती थीं।

पहले ऐसे हाल में उसे झुंझलाहट होती थी, लेकिन आज, इस समय-- वह सकून महसूस कर रहा था।

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७ सितंबर २००९

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