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बड़ी-बड़ी आँखें पतली नाक, गोल मक्खन-सा चिकना चेहरा, भरे-भरे गुलाबी गाल, रंग मोतिया के फूल-सा उजला और उस उजलेपन को और भी रेखांकित करती खुली, घनी, लंबी और गहरी काली केशराशि। शायद अब वही रूप इश्वरीय तेज़ बन कर भक्तों को दीखता था। ख़ासकर अब उसमें ध्यानभाव की गरिमा भी तो घुलमिल गई थी। चालीस-पैंतालीस की उम्र में भी जवान दीखती थी गुरुमाई। शरीर भरा हुआ ज़रूर था पर मोटी कहने में हिचकिचाएँगे आप। बस इतना मोटापा जो आपके व्यक्तित्व में गुरु-गंभीरता ले आए।

उसका आत्मविश्वास देख कर मैं हैरान थी। क्या वह सचमुच अपने आपको इतनी गंभीरता से लेती है। मुझे इस सारे नाटक के बाद उससे अकेले मिलना ही था। मैं तो आई ही इसलिए थी। कल जब अमरनाथ जी ने कहा कि आपकी सखी राजीमा आई हुई है और कल यू.एन. के हाल में उनका आशीर्वचन है तो मैं हैरान हुई थी। मुझसे तो उसने कुछ संपर्क नहीं किया इस बारे में। एक बार बेटे के इलाज के लिए अमरीका आई थी तो मेरे पास ही ठहरी थी। इस बार सूचना तक नहीं।

अमरनाथ जी ने मेरे चेहरे का भाव पढ़ लिया होगा। आपकी सहेली होगी। अब तो वे गुरुमाई है। बहुत फालोविंग हैं उनके। चेलों ने ही बुलाया है। न्यूयार्क के इस हाल में भक्तों के बीच बैठी सोच रही हूँ कि यह लड़की मेरी सहेली थी। हज़ारों बार इसके आँसुओं को पोंछा है मैंने। सच! कितने कष्ट पाए हैं इसने। इसकी पीड़ाओं, इसके पति की ज़्यादतियों, उसकी कटूक्तियों और अवहेलनाओं की कैसे करीब से साक्षी रही हूँ मैं। आज वह मुझे दोस्त की तरह देखना नहीं चाहती। मुझसे एक दूरी बनाकर ही बैठे रहना चाहती है जैसे कि मेरे साथ कोई पुरानी पहचान ही नहीं। अगर थी भी तो नाममात्र की। देखती क्यों नहीं मेरी ओर! सामने तो बैठी हूँ। ख़ैर लाईन ख़ासी लंबी है। शायद मैं दिख न पा रही होऊँ। यही तसल्ली का तरीका था। वर्ना भीतर कितना कुछ खदबदा रहा था।

मैं काफी देर इंतज़ार के बाद उसके पास जा पाई। मुझे कोई चरण वरण नहीं छूने थे उसके। मुस्कुराकर हॅलो कहा। वह बिना किसी तरह की मुस्कान लाए सीधी निर्विकार-सी दृष्टि किसी शून्य बिंदु पर टिकाए रही। शायद उसने मेरा हॅलो कहना सुना नहीं या फिर अनदेखा कर दिया। मैंने धीमे से उसे जल्दी-जल्दी करके कहा, ''पहचाना मुझे? बतलाया तक नहीं कि अमरीका आ रहा है। तुझसे अलग से मिलना है। मिल सकेगी?''
उसने हैरानी से मेरी ओर देखा जैसे कोई नींद से जागता है। आँखें नीचे कर ली जैसे ध्यान कर रही हो। फिर मेरी ओर आँख उठाकर ऐसे देखा जैसे कोई आशीर्वचन देते हुए देखता है।
शांत भाव में ही हल्के से फुसफुसाई, ''नौ बजे मेरे होटल के कमरे में आना। मेरा विश्राम का समय होता है।''
मन में दुविधा होती रही। यह तो सचमुच गुरुमाई की तरह ही मुझसे व्यवहार कर रही है। कहीं कोई पागलपन तो सँवार नहीं हो गया इस पर। क्या ठीक से पहचाना भी था मुझे! छह सात साल से तो मिले नहीं हम। क्या पता इस बीच कोई कायाकल्प ही हो गया हो!

होटल वक्त से पहले ही पहुँच गई थी मैं पर उसके चेले चपाटों ने ४५ मिनट इंतज़ार करवाया मुझसे। फिर उसने सब चेलों को बाहर निकाल दिया और कमरे में बस हम दोनों ही थे।
वह काफी देर तक गुरुमाई का खोल चढ़ाए मुझसे बात करती रही। एक तरफ़ वह सहेलीपना भी दर्शा रही थी वहीं दूसरी ओर मुझे यह कन्विंस करने की कोशिश कर रही थी कि उसमें कुछ है जो मैं नहीं देख पा रही हूँ। मैंने कहा कि तू अपने को क्या सचमुच गुरुमाई मानने लग गई है। कहाँ है वह राजी। कहाँ है वह लड़की जो मुझसे घुलमिल कर अपने रोने  रोती थी, पति को कोसती और मजबूरी के आँसू बहाते मेरे कंधे भिगो डालती थी।

मैं भूल भी कैसे सकती थी कि मैंने किस हालत से उसे गुज़रते देखा था। ओह! खूबसूरती एक अमीर पति तो दिलवा देती है पर एक बार घर की हो जाने के बाद अपेक्षाएँ और होने लगती है। यानि कि सबसे बड़ा सवाल घर का हो जाता है। यह नहीं कि घर की सिर्फ़ देखभाल की जाए बल्कि घर का ही बन कर रहना होता है यानि कि आप नौकरी करें तो मंज़ूर नहीं क्यों कि अमीर पति को आपकी साधारण नौकरी से यानि कि आपकी अपनी अभिव्यक्ति की ज़रूरत से तो कुछ फ़ायदा होनेवाला नहीं सो अंततः आपका सजधज कर पति के इंतज़ार में बैठा रहना, उसकी मनपसंद का पहनना, फिर शामों को पार्टियों में उसकी गुड़िया बनी दीखना, रातों को बिस्तर पर उसकी हसरतों की रुहानी जिस्मानी प्यास बुझानेवाला मनभावन खिलौना बन जाना, यही सब सुहाता है। जब पत्नी यही सब करने की आदी हो जाती है तो फिर उससे भी ऊब जाता है पति और इधर उधर आँख मारनी शुरू कर देता है। अब तक आप दो बच्चों की माँ बन चुकी है। घर से बँध चुकी है। पति को तो तफरीह के लिए कोई न कोई चाहिए ही।

राजी के भीतर भी अंगारे फूटते रहते थे। बच्चे बड़े हो रहे थे और छोटा बेटा भी तो सामान्य नहीं था। नर्सरी स्कूल भेजा तो स्कूलवालों ने बताया कि उसकी जगह मानसिक रुप से विकलांगों के स्कूल में है। उसी का इलाज करवाने ही तो घर से बाहर निकली थी। कई तरह के इलाज करवाए। यही सब भागदौड़ लगी रहती। पति ने तो कभी हिस्सेदारी नहीं बटाई इन कामों में। वह बेटे के साथ होती और पति व्यापार की दुनिया में। कभी विदेश कभी जाने कहाँ, किसके साथ। उसे तो उड़ती उड़ती बातों के परचे ही मिलते। पति तो साफ़ नकार ही देता। वह मन मसोस कर खामोश हो जाती। कभी लड़ती तो खुद ही कुढ़ना पड़ता। अपना ही दिन बेस्वाद! ओह कितनी घुटन होती थी उसे अपने घर में।

वह बच्चों से फारिग होती और अपनी ओर ध्यान जाता तो निराशा और हीनता का ऐसा बगूला भीतर से उठता कि मन होता सारी बनी बनाई गृहस्थी को तहस-नहस कर दे।
पर अब वह बात भी उसके बस में नहीं थी। बच्चे तो अपने ही जिस्म टुकड़े थे। उनसे कैसे मुँह मोड़ती।
कुछ न कुछ उसे दायित्वों के बंधन में कसे रहता। छोटे-बड़े का इलाज। मानसिक रूप से विकलांग बेटे की ज़िम्मेदारी से कभी मुक्त नहीं हो पाएगी। वह बड़ा भी होता रहे पर उसका मानसिक विकास तो छोटी उम्र के बच्चे तक ही रुक जाएगा। कभी बड़ा होगा ही नहीं। माँ को दायित्वों से कब फ़ुरसत मिलेगी? पति की तो उसे पालने में कोई भागीदारी है भी नहीं। पर वह कहता है कि वह पैसा जो कमा लाता है। गृहस्थी का खर्चा तो उसी के ज़िम्मे है न। उसकी ज़िम्मेदारी तो उतनी ही है न।

राजी की परेशानियों से हमदर्दी थी मेरी। पर मैं तो अमरीका चली आई थी जब जाती तभी पता लगता कि बेचारी बेटे की परवरिश और घर की ज़िम्मेदारी में किस तरह लिबड़ी हुई है। वह कहती रहती है कि मैं कुछ करना चाहती हूँ पर यह मुझे कुछ करने ही नहीं देता। बाहर जाऊँ तो एक्स्प्लेनेशन माँगता है। जाना भी कहाँ होता है। कभी उसे स्कूल लेकर जाती हूँ या डॉक्टरों के पास। मेरी अपनी ज़िंदगी तो खत्म ही हो गई है। मुझे लगा कि वह खुद मानसिक रूप से रोगी हो रही थी जिसे अपने इलाज की ज़रूरत थी।

लगा कि सचमुच उसके चेहरे का खोल उतर गया। अब तू तो जानती ही है... और कहते हुए अचानक मुझे लगा कि उसकी आँखें गीली हो आईं। मुझे लगा कि अभी जैसे आँसू उसके गले में ही अटके हों। पर बहुत जल्द ही सँभाल लिया उसने खुद को। वह खूब प्यार से मुझे गले मिली।
मुझे कहना ही था- यह सब क्या है यार?
वह सहसा बहुत गंभीरर हो गई। बोली, ''यह सब जो तू देख रही है न, यही मेरा सच है। आज का सच जिसे मैं खुद नहीं जानती थी। देख वह सब मेरा पास्ट था। अब नहीं है। सच, मेरे हाथ में कुछ है। लोगों की तकलीफ़ दूर हो जाती है। मेरी इन्ट्यून बहुत स्ट्रांग है, व्यक्ति को देखते ही पता चल जाता है कि उसकी क्या तकलीफ़ है। तभी तो इतने लोग आते हैं। सब ऐसे ही एक दूसरे से सुनकर ही तो। मैं कोई विज्ञापन तो नहीं छपवाती।

वह बोलती रही, ''यों मैं बहुत देर तक अपनी इस ताक़त से अनजान रही। फिर संदिग्ध, और अंततः आश्वस्त! बस ऐसी आश्वस्त कि मुझे लगने लगा कि अपने आप ही, बिना किसी आयास के मेरे मुख से अलौकिक वचन ही निकलते हैं। अगर पता होता तो बहुत पहले ही लोगों का भला शुरू कर देती। यह सब तो होते होते ही हुआ। अब तो लगता है कि बहुत लोगों का मेरे हाथों भला होना है। मुझे लगा कि वचन बोलते-बोलते ही वह भीतर से कहीं खाली हो गई है। जैसे भीतर कभी कुछ था ही नहीं। उसके चेहरे पर उभरने लगे थे फिर से वही घाव, दर्द, चोट, थकान और ऊब!

पर वह मेरी ओर मुखातिब हो कर कह रही थी- देख अपना ध्यान रखना। तेरे चेहरे से मुझे लग रहा है कि तेरी सेहत खराब होगी। कल दिन में आना तो मैं तेरी हीलिंग कर दूँगी। फिर बची रहेगी किसी बड़े अटैक से।
यों तो तब मैं भारत में ही थी जब उसने प्राणिक हीलिंग सीखनी शुरू की थी। मैंने इसे ज़्यादा कुछ माना नहीं था। मुझे लगता कि बेचारी दुखी है। कोई न कोई शीशा तो चाहिए ही।

राजी ने ही तब मुझे बतलाया था कि उसकी सहेली, उसके जैसी ही एक अभिशप्त माँ ले गई थी प्राणिक हीलिंग के लिए। फिर जापानी रेखी सीखी। पूरा कोर्स किया। अपने आप को हील करती। तकलीफ़ कम होती। मन को बहुत सुकून मिलता।
ऐसे ही एक बार उसकी सहेली ने सख्त सिरदर्द की शिकायत की तो राजी ने अपनी नई सीखी विद्या के इस्तेमाल से उसे ठीक कर दिया। फिर तो सभी सहेलियाँ, सहेलियों की सहेलियाँ, उनके परिवार के सदस्य राजी की राय लेते, इलाज करवाते।

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