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अपने खेतों पर निगाह डालता है। कितने वर्ष बीत गए हैं कितने दशक!  उसके हालात क्यों नहीं बदलते?  इतने बड़े घर और इतनी ज़मीन का मालिक, इक ग़रीब की ज़िन्दगी जीने को क्यों अभिशप्त है?

अभिशप्त तो ये सारी प्रापर्टी ही लगती है। बस पैसे डाले जाओ, जितने चाहो डाले जाओ, लेकिन कहीं कोई बदलाव आऩे वाला नहीं। प्रापर्टी तो खंडहर बनती जा रही है अब तो ठाकुरों ने प्रापर्टी के भीतर आने का रास्ता तक बन्द कर दिया है। इस मुल्क में ग़रीब के साथ देने वाला कोई नहीं। फिर ऊपर से अगर ग़रीब मुसलमान भी हो तो!
''छोटी जान कितने वक़्त के लिए आ रही होंगी?  क्या उनको पहचान भी पाएगा मोहसिन?  उनका आज इस जायदाद से क्या रिश्ता हो सकता है? उनके बाक़ी भाई बहन तो यहाँ ज़्यादा रहे भी नहीं बस उनका बचपन ही तो बीता है इस घर में दरिया महल में। क्या छोटी जान को आज भी लगाव होगा इस घर से?  सकीना भी न जाने क्या क्या सोचती रहती है''

आवाज़ें पीछा नहीं छोड़ती हैं। आवाज़ें कभी कभी सवाल बन जाती हैं तो कभी आईना बन कर सामने खड़ी हो जाती हैं। मोहसिन को ये आवाज़ें कभी भी कहीं से भी सुनाई देने लगती हैं। क्या कारण है कि इतनी बड़ी जायदाद का अकेला रखवाला समाज में अपना कोई स्थान नहीं बना पाया? जबकि इसी प्रापर्टी के दूसरी तरफ़ रहने वाली संध्या ठाकुर सियासत में अहम् स्थान बनाए हुए है। उसका पति जनार्दन ठाकुर जाना माना डाक्टर है उनसे मुक़ाबला भी तो नहीं कर सकता। अगर सबकुछ बेच बाच दे तो कहीं तीन बेडरूम का सुन्दर-सा घर ले कर अपने परिवार को रख सकता है - सुख दे सकता है अपनी औलाद को, बीवी को और बूढ़ी माँ को। अचानक मेंढक टर्राने लगा है, झींगुर की आवाज़ भी साथ में शामिल हो गई है!
''नींद नहीं आ रही न?'' सकीना आ खड़ी हुई है।
''बस छोटी जान के बारे में सोच रहा था''
''आज तो अम्मा भी बहुत बेचैन है। उन्होंने ही तो छोटी जान को बचपन में पाला था। आज बहुत भावुक हो रही हैं। बस कहे जा रही हैं कि अल्लाह-ताला छोटी जान के आने तक उन्हें सेहत बख़्श दें। उनको देखे बिना तो जन्नत भी नहीं जाना चाहतीं''
''कल पता करता हूँ कि आख़िर आने का सबब क्या है। सोचता हूँ कि इम्तियाज़ भाई से कुवैत में बात कर लूँ। शायद उनसे कोई बातचीत हुई हो''
''मेरा ख़्याल है कि आप सीधे लन्दन फ़ोन घुमाइये। चाहें तो मोबाईल से ही कर लीजिए। इन लोगों के आने की ख़बर से मुझे न जाने क्यों बेचैनी हो रही है''
''बेचैनी किस बात की?'' मोहसिन के माथे पर भी विचारों की धार अपना घर बनाती जा रही थी।
''ये लोग, हमसे प्रापर्टी वापस तो नहीं माँग सकते न?'' सक़ीना की आवाज़ में भय ने अपना चेहरा दिखा ही दिया।
''अरे नहीं! हमारे पास पक्के काग़ज़ हैं। और फिर, अब तो ये लोग पाकिस्तानी हो गए हैं।  यहाँ भारत में इनका किसी चीज़ पर कोई हक़ नहीं रह गया। हमारे दादा हुज़ूर ने बाक़ायदा पेमेन्ट कर के ख़रीदा है दरिया महल! अब ये सिर्फ़ हमारा है''
''अम्मा तो कुछ और ही कहती हैं। वे तो इन लोगों का अहसान मानते नहीं थकतीं। अपनी फुफिया सास को हमेशा अपनी नमाज़ में दुआ देती हैं कि हमारे जीने और रहने का पक्का इन्तज़ाम कर गईं''
''अरे अम्मा की भली कही! वे बूढी हो चली हैं। उनकी याददाश्त भी उनकी तरह बुढ़ा रही है''
''फिर भी पता तो कीजिए कितने दिन के लिए आ रही हैं, उनका प्रोग्राम क्या है'' कहते-कहते सकीना मोहसिन के और निकट आ खड़ी होती है। गीली हवा में सकीना के बदन की महक मोहसिन की साँसों में तनाव उत्पन्न करना शुरू कर देती है।

मोहसिन के जीवन से रोमांस जैसे ग़ायब ही हो चुका है। एक बेटी और दो बेटों के जन्म के बाद से जीवन केवल ज़िम्मेदारियों का पुलिन्दा बन गया है। आज अचानक सकीना के बदन की महक को बाहों में भर लेने को जी चाहा है। चान्दनी रात में हल्की फुहारों के बीच सांवली सकीना ने दिल के तारों को झंकृत कर दिया है। मोहसिन अपने आपको रोक नहीं पा रहा। अपने टेन्शन को सकीना के बदन में गहरे उतार देने को बेचैन हो रहा है। सकीना कसमसा रही है, मोहसिन की बाहों की गर्मी में पिघलती जा रही है। कुछ ही पलों में पास पड़ी चारपाई पर दो बदन गुत्थमगुत्था होने लगते हैं, कुछ देर बाद सब शान्त हो जाता है।

सुबह अपने साथ एक बार फिर वही सवाल ले आई है। उलझनें सुलझाने का प्रयत्न करता है मोहसिन। काश! छोटी जान अपना सियासी सुलूक यहाँ इस्तेमाल कर सकें। क्या इंग्लैंड के सियासतदान के रुतबे से संध्या ठाकुर प्रभावित हो सकती है? संध्या ठाकुर की पहुँच तो यू.पी. की सत्ता के गलियारों में ख़ासी अन्दर तक है। स्थानीय बी.जे.पी. की बड़ी लीडर हैं। भला सीधा सादा मोहसिन उससे पार पाये भी तो कैसे? लड़ाई तो दादा हुज़ूर और संध्या ठाकुर के ससुर के ज़माने से चली आ रही है। अब्बा जान ने अगर ठाकुरों से सुलह कर ली होती, तो हमारी ज़िन्दगी तो बेहतर हो जाती! कोर्ट कचहरी भला किसी के सगे हुए हैं क्या? बड़े भाई तो ऐसे कुवैत गए कि मुड़ कर पीछे नहीं देखा!

मोहसिन अकेला ही कोर्ट कचहरी से जूझता फिर रहा है। ठाकुर परिवार से लोहा लेना कोई आसान काम भी तो नहीं रहा। छोटी अदालत से लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट तक मोहसिन अकेला ठाकुर परिवार से कानूनी लड़ाई लड़ रहा है। खगेन्द्र ठाकुर स्वयं अपने ज़माने के बड़े सर्जन थे और उनके बेटे जनार्दन और निरंजन भी डाक्टर ही हैं। बड़े लोगों से लड़ाई ने मोहसिन को बहुत छोटा बना दिया है। मुस्तफ़ा साहब ने तो बुलवा भी भेजा था,''क्यों मोहसिन मियाँ, कैसी छन रही है?''
''जी आप तो अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं। अब तो ठाकुरों ने दरिया महल तक पहुँचने के रास्ते तक बन्द करवा दिए हैं। भला कौन-सा कानून इस बात की इजाज़त देता है? लेकिन कानून भी तो अमीर आदमी की भैंस हैं, उसी के हिसाब से करवट लेता है''
''मियाँ दिल छोटा न करें। हम अगली मजलिस में आपका केस रखवा देते हैं। इन ठाकुरों से मुझे भी कई हिसाब तय करने हैं, संध्या ठाकुर चुनाव लड़ने के चक्कर में है। चलो छोड़ो, बात तुम्हारी प्रापर्टी में दाख़िल होने की हो रही थी। बोलो, अबकि ठाकुरों ने क्या नई चाल चली है?''
''अब तो उन्होंने शराफ़त की सभी हदें पार कर दी हैं। हमारी दिक्कत यह है कि कोर्ट से जब-जब हमारे हक़ में कोई फ़ैसला बनता है, ठाकुर कोई न कोई ऐसी चाल चल देते हैं कि लगता है जैसे फ़ैसला उनके हक़ में हुआ हो''
''पहेलियाँ तो बुझाइये मत मोहसिन मियाँ। अन्दर की बात बताइये''
''ठाकुरों ने हमारे घर में घुसने वाले रास्ते पर पक्की दीवार खड़ी कर दी है। हमें अपने ही घर में दाख़िल होने के लिए कच्चे रास्ते का दो मील का रास्ता तय करना पड़ता है। अब आपको तो मालूम है कि हमारी अम्मा कितनी बूढ़ी हैं। उन्हें आँखों से ठीक से दिखाई भी नहीं देता। हमारी बेग़म को भी परेशानी होती है और बच्चों को स्कूल जाने के लिए डेढ़ दो मील की एक्सट्रा दूरी तय करनी पड़ जाती है। हम तो अपने ही घर में क़ैदी हो गए हैं''
''यार तुम ये प्रापर्टी बेच क्यों नहीं देते? कहो तो हम ही ख़रीद लेते हैं''

मोहसिन ये सुन कर कुछ कसमसाया।
''अरे भाई अगर यह मंज़ूर नहीं तो मजलिस के नाम कर दो। ख़ुद किसी ठीक ठाक घर में रहो अपना परिवार पालो। यह खेती तुम्हारे बस का काम नहीं है''
मोहसिन अचानक खड़ा हो जाता है। मुस्तफ़ा साहब की तरफ़ देखता है,''भाई जान की मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं कर सकता। वे तो कुवैत में बैठे हैं'' मोहसिन ने अपने कुर्ते के कफ़ को कुछ यों कस कर पकड़ा लिया है जैसे प्रापर्टी उसी कफ़ के काज में से निकल कर मुस्तफ़ा साहब तक पहुँचने वाली है।
''एक बात बताइये मोहसिन मियाँ, आप ठाकुर से सीधे सीधे भिड़ क्यों नहीं जाते? बिना जेहाद किए कभी कुछ हासिल हुआ है क्या?''
''मालिक, हमारा उनसे क्या मुक़ाबला! संध्या ठाकुर बड़ी नेता हैं, औरतों की रहनुमा हैं, उनके ख़ाविन्द बड़े डाक्टर हैं, दबदबा है उन लोगों का। भला हमारी क्या औकात है?''
''सुनिये मोहसिन मियाँ, बस एक बार भिड़ जाइये! अल्लाह कसम आग लगा देंगे शहर में। समझ क्या रखा है इन ठाकुरों ने? रजवाड़ों वाले दिन लद गए। आज का मुसलमान दबने को तैयार नहीं है। माइनारिटी कमीशन हमारे साथ है आप शुरुआत करिये, हल्ला हम बोल देंगे''

डरा सहमा मोहसिन वापिस घर आ गया। जलते हुए शहर के बारे में सोच कर ही डर गया है। उसकी बीमारी हल्का-सा बुख़ार है और मुस्तफ़ा साहब आपरेशन की सलाह दे रहे हैं। अगले हफ़्ते फिर से कोर्ट के आर्डर आने की उम्मीद है। पिछली बार अम्मा को भी ले गया था कोर्ट में। उस बार तो जज भी मुसलमान था - क्या अच्छा-सा नाम था।  फ़ैसला मोहसिन ही के हक़ में हुआ था। यह कैसी व्यवस्था है?  कैसा निज़ाम है? ग़रीब की कोई सुनवाई ही नहीं!  जज तो मोहसिन को डाँट भी रहा था,''अरे क्या मार ही डालोगे अपनी अम्मा को? इतनी बूढ़ी औरत को कचहरी में लाने की ज़रूरत क्या थी?'' मन में कहीं उम्मीद थी कि शायद यही तरक़ीब काम कर जाए।
जज ने तो आर्डर भी कर दिया था कि रास्ता खोल देना चाहिए। दीवार तोड़ देनी चाहिए। लेकिन दीवारें तोड़ना क्या इतना ही आसान है? जज के आदेश को कार्यान्वित करने वाले भी तो होने चाहिए। वे सब तो संध्या ठाकुर की मुट्ठी में हैं।

संध्या ठाकुर कहने को तो महिलाओं की हिमायती हैं, उनके हक़ की लड़ाई लड़ती हैं, फिर मोहसिन की बूढ़ी अम्मा और पत्नी की दुर्दशा उनकी आँखों से कैसे छिपी रह पाती है?
भावज को छोटी जान के आने की सबसे अधिक प्रतीक्षा है। या यों कहा जाए कि उनकी प्रतीक्षा नि:स्वार्थ है। वे केवल अपनी बिट्टो की प्रतीक्षा कर रही हैं,''अरे मोहसिन, तेरी बात लंदन हुई क्या? कब आ रही है मेरी बिट्टो? क्या बताऊँ तुम्हें, मरी जब छोटी थी तो आम के पेड़ पर चढ़ जाया करे थी! कच्ची कैरी की तो चटोरी थी। बड़ बच्चे तो सभी होस्टलों में रह कर पढ़े, एक यही थी जो मेरे हाथ से पली! रोज़ाना डाँट खावे थी। आ री सकीना, तुझे एक बात बताती हूँ। यहाँ घर में शक्कर रखने का एक बहुत बड़ा-सा ड्रम हुआ करता था। आदमकद से भी बड़ा। बिट्टो को शक्कर खाने का बहुत शौक था। न जाने कैसे चढ़ी उस ड्रम पर और धड़ाम से अन्दर छलांग लगा गई। पहते तो मज़े मज़े से शक्कर खाती रही। जब जी भर गया तो बाहर निकलने की सोची। अब इतने ऊँचे ड्रम पर वापिस चढ़े कैसे? जितनी ऊपर चढ़ने की कोशिश करे उतने ही पाँव शक्कर में धँसे जाएँ। डर के मारे किसी को आवाज़ भी नहीं दे पा रही थी। घबरा गई। रुआँसी हो कर वहीं सो गई। घर में ढूँढ़ मच गई। सब उसे ढूँढ़ रहे थे. न कहीं दिखाई दे और न ही सुनाई। अचानक मुझे लगा कि मुझे कोई आवाज़ दे रहा है। भावज मुझे निकालो! मैं हैरान कि आवाज़ आ कहाँ से रही है। आवाज़ शर्तिया बिट्टो की ही थी। अरे कितनी मुश्किलों से मरी को उस ड्रम में से निकाला। फिर जो उसकी जम कर पिटाई हुई है। फूफी जान उसे मारे जाएँ और मैं उसके बदन को ढके जाऊँ। मुझे ही कितने थप्पड़ पड़ गए। मजाल है उसमें ज़रा भी बदलाव आ जाए। सारा सारा दिन ख़ुराफ़ातें सूझती थीं उसको। पता नहीं कहाँ कहाँ से घूमती बड़े पुल के नीचे जा छुपती थी मरी को सभी खेल लड़कों वाले पसन्द थे। उसके दोस्तों की फ़ेहरिस्त भी कमाल की थी रामदीन धोबी का बेटा, शंभुनाथ माली का बेटा, और रसोइये का बेटा तो उसका ख़ास दोस्त था। और फिर पढ़ी भी तो यहीं के सरकारी इस्कूल में। इसीलिए बाक़ी भाई बहनों की तरह अंग्रेज़ नहीं बन पाई। मगर मेरी बिट्टों पहुँच गई इंग्लिस्तान। कितनी चाह थी कि उसकी डोली दरिया महल से उठती इस घर की दीवारों तक से जुड़ी थी मेरी बिट्टो!  लेकिन शादी के लिए तो उसे सरहद पार जाना पड़ा''

सकीना को आजकल अम्मां की भावनाएँ रोज़ाना सुननी पड़ती हैं। उसने स्वयं तो छोटी जान को कभी देखा तक नहीं। भला उन्हें छोटी जान क्यों कहा जाता है, यह तक तो उसे मालूम नहीं। वह बस उतना ही जानती है जो उसकी सास उसे बता देती है। उसकी सास ने दरिया महल के शाही ठाठ भी देखे हैं और आज की ग़रीबी भी। छोटी जान के आने से उनके अपने जीवन में क्या बदलाव आ सकते हैं? बस यही सोचती रहती है। फिर अपने घर की तरफ़ देखती है। क्या छोटी जान इस घर में एक रात भी बिता पाएँगी? बिना एअरकंडीशन के कहाँ सो पाएँगी वे?

छोटी जान आकर रहेंगी कहाँ? उनका मेज़बान कौन होगा? क्या वे पहले हमें मिलने आएँगी या फिर कहीं ठहर कर हमें वहाँ बुलाएँगी? शहर में कोई बड़ा होटल तो है नहीं। शायद शिवली कालेज के प्रिंसिपल ने बुलवाया होगा। या फिर किसी राजनीतिक पार्टी की मेहमान भी हो सकती हैं... एक तो मोहसिन भी ठस के ठस बैठे रहते हैं अभी तक तो कुवैत भी फ़ोन नहीं किया। बस छोटी जान हमारा एक काम करवा दें तो हमारा जीवन सुधर जाएगा। बस हमारा रास्ता खुलवा दें दीवार में एक रास्ता बनवा दें संध्या ठाकुर शायद उनकी सुन ही लें।

मोहसिन स्वयं परेशान है। अगर छोटी जान दो चार दिन रुकती हैं, तो उनको रखा कहाँ जाए? दिक्कत तो ये है कि सलमान मियाँ भी साथ होंगे। अब छोटी जान तो फिर भी घर की हैं, मगर फूफा जान के सामने तो इज़्ज़त बचा कर रखनी ही होगी। वैसे अगर छोटी जान एक मीटिंग संध्या ठाकुर के साथ करवा दें तो मामला सुलट भी सकता है। अगर अब्बा हुज़ूर ने डॉ. खगेन्द्र ठाकुर से कोई समझौता कर लिया होता तो मामला इतना पेचीदा न बनता।

सकीना की अलग समस्या है,''अम्मा, ये छोटी जान का हमसे रिश्ता क्या लगता है? आप कहती हैं कि आपने इन्हें पाला है। मोहसिन कुछ और लम्बा सा रिश्ता बताते हैं। आख़िर वे हमारी लगती क्या हैं?''
''वो क्या है बहूरानी, ये जो दरिया महल है, इसके मालिक थे डॉ. अमानुल्लाह। उनकी बेग़म के जो सग़े भाई थे वे मोहसिन के दादा थे। छोटी जान डॉ. अमानुल्लाह की तेरहवीं औलाद हैं। उनकी मौत के वक्त छोटी जान बस दो साल की रही होंगी। अब फूफी जान के ज़िम्मे तो सारे काम आन पड़े। वे ही कचहरी सँभालती थीं और वे ही खेती। तो ऐसे में छोटी जान की सारी ज़िम्मेदारी मेरे सिर आन पड़ी। वह जब तक आज़मगढ़ में रही, उसकी हर छोटी बड़ी ज़रूरत का ख़्याल मैं ही रखती थी। बिट्टो को दूध पीने में बहुत दिक्कत होती थी। दूध पीने के बाद हमेशा उसके पेट में दर्द होता था... बहुत चिल्लाती थी... फूफी जान को कभी समझ नहीं आता था कि उसे दूध पचता नहीं है वो मरी अंग्रेजी में क्या बोले हैं... उसे अलर्जी है दूध से। मेरे तो पीछे पड़ी रहती थी.. कहती भावजआप इतना हँसती क्यों हैं?(ठंडी सांस) अब तो हँसे हुए भी एक ज़माना हो गया है'' भावज का पोपला मुँह एक बार फिर यादों में खो गया है।

चाहत सकीना की भी एक ही है कि छोटी जान एक बार संध्या ठाकुर से मिलकर दीवार में से रास्ता खुलवा दें। जवान लड़की को खेतों में से होकर वक़्त बेवक़्त जाना पड़ता है, कहीं कोई अनहोनी न घट जाए। पति पर भी झुंझलाहट हो रही है कि अभी तक लंदन फ़ोन पर बात नहीं की है।
मोहसिन बिना बात किए ही सपने देखे जा रहा है। सलमान मियाँ ख़ुद भी तो इतने बड़े बैंकर हैं। छोटी जान और सलमान मियाँ से घर की मरम्मत के लिए भी तो बात की जा सकती है। अगर एक कमरा और पक्का बनवा लिया जाए, तो नई बैठक सज सकती है। मगर फ़िलहाल जो बैठक है उसमें भी तो कोई फ़र्नीचर नहीं है। वैसे भी तो ईद के अलावा घर में आता ही कौन है? बस ईद से पहले टेंट वाले से फ़र्नीचर किराए पर ले लिया जाता है। हफ़्ते भर की अय्याशी के बाद फ़र्नीचर वापस हो जाता है। पिछली ईद पर तो कोई भी मेहमान घर तक नहीं पहुँच पाया। लोग साफ़ कहने लगे हैं कि कौन खेतों में से हो कर आए। मोहसिन मियाँ, आप लोग ही हमारे यहाँ आ जाया करिये। आज ज़रूर छोटी जान को फ़ोन करेगा। मोहसिन ने निर्णय ले लिया है।

फ़ोन भी तो अजीब किस्म की चीज़ है। उस पर मोबाईल का तो कहना ही क्या! कभी भी कहीं भी बज उठता है। मोहसिन भी अपने बजाज चेतक स्कूटर पर घर से निकला ही था कि उसका मोबाइल बज उठा। देश में मोटर साइकिल क्रान्ति आ जाने के बावजूद मोहसिन अपने पुराने दुपहिये को जोते जा रहा है। स्कूटर रोका, मोबाइल पर एक अनजान नम्बर उभरते देखा... माथे पर सिलवटें पड़ीं।
''हेलो!''
आवाज़ में एकाएक बुलन्दी आ गई।''अरे छोटी जान! कैसी हैं आप? कब आने का पक्का किया है? फूफा मियाँ भी साथ आ रहे हैं न?''
जब तक बात ख़त्म हुई मोहसिन तनाव के मारे पसीने-पसीने हो रहा था। अब उसमें स्कूटर चलाने की ताक़त शायद नहीं बची थी। यह कैसे हो सकता है? यह कैसी साज़िश है? क्या दीवार में रास्ता बनने की बजाए दीवार और ऊँची उठा दी जाएगी? सक़ीना को कैसा लगेगा?  अम्मा क्या सोचेंगी? ये हुआ कैसे? अल्लाह मियाँ कैसे-कैसे इम्तहान लेते हैं! क्या पूरे आज़मगढ़ में एक भी मुसलमान इस काबिल नहीं था जो छोटी जान का मेज़बान बन पाता?

तीन महीने पहले जब एक शूटर ने अपनी मोटर साइकिल से मोहसिन पर गोली चलाई थी, उससे तो बच निकला था मोहसिन मगर इस समाचार की मार से कैसे बचा पाएगा अपने आपको? सकीना को बताता हूँ। अल्लाह भी कैसे कैसे मज़ाक करता है ग़रीब बन्दों के साथ?
सकीना को तो मोहसिन थोड़ा खिसका हुआ लगा। भला छोटी जान ऐसा कैसे कर सकती हैं? यह कैसी राजनीति है? छोटी जान की मेज़बान संध्या ठाकुर! यह नहीं हो सकता। भला संध्या ठाकुर ने ये क्या प्रपंच रचा है। अल्लाह की मार पड़ेगी उस पर!''बोलीं क्या छोटी जान?''
''वो बोलीं कि कोई संध्या ठाकुर हैं जिन्होंने उन्हें बुलाया है। बस एक रात के लिए आ रही हैं। बनारस से आज़मगढ़ इनोवा वैन से आएँगी। साथ में फूफा जान तो हैं ही, दो हिन्दू जर्नलिस्ट भी हैं। पहले अपने इस्कूल जाएँगी, वहाँ से हमारे घर आकर दोपहर का खाना खाएँगी। फिर नेहरू हाल में उनका पब्लिक रिसेप्शन है, शाम को प्रेस कान्फ़्रेंस हैं और रात का डिनर संध्या ठाकुर के घर। वैस शाम को ही डी.एम. के साथ चाय भी है।''
''दोपहर का खाना हमारे घर? या अल्लाह! रोज़ा नहीं रखती हैं क्या?''
''बड़े लोगों की बड़ी बातें होती हैं। फिर उम्र भी तो खासी हो गई है। साथ में हिन्दू जर्नलिस्ट भी हैं। पाँच लोगों के खाने की बात कह रही हैं''
''अगले दिन कहाँ जा रही हैं?  कहीं आसपास घूमने जा रही हैं क्या? सुनिये, क्या आपको डी.एम. के घर चाय पर साथ नहीं ले जा सकतीं? आप उनसे भी बात कर सकते हैं''
''मैं तो यह सोचकर परेशान हो रहा हूँ कि संध्या ठाकुर से हमारे बारे में बात कब करेंगी?''
एक लम्बी सी चुप्पी छा जाती है। पति पत्नी दोनों गहरे सोच में डूबे बैठे हैं। क्या छोटी जान को मालूम है कि संध्या ठाकुर का परिवार हमें कितना कष्ट दे रहा है? फिर वे ऐसा क्यों कर रही हैं?  संध्या ठाकुर के गुंडों ने तो मुझ पर गोली भी चलाई थी फिर क्या कारण हो सकता है?
''अरे पगले, भला उस मासूम को कहाँ पता होगा कि संध्या ठाकुर ने ही हमारी ज़मीन हड़प रखी है। उसे तो यह भी नहीं मालूम होगा कि संध्या उन्हीं ठाकुरों की बहू है जिनको सैंतालीस में सरकार ने दरिया महल का हिस्सा दे दिया था। अगर शाहिद और जमाल सैंतालीस में पाकिस्तान न चले जाते तो ठाकुर दरिया महल के इतने बड़े हिस्से पर कब्ज़ा नहीं कर सकते थे। उन दोनो भाइयों ने किसी की नहीं सुनी। मेरी बिट्टो तो सड़सठ तक भारत में रही जब तक फूफी ने उसकी शादी कराची में नहीं कर दी दरिया महल के साथ सबसे गहरी तो मेरी बिट्टो ही जुड़ी थी। यहाँ के चप्पे-चप्पे से प्यार था उसको उसे तो इलाहाबाद और बनारस से भी बहुत प्यार था। बहुत रोई थी जब उसकी शादी कराची में तय हो गई थी। मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता कि वो आज़मगढ़ क्यों आ रही है। उसे अच्छी तरह मालूम है कि दरिया महल अब उसका नहीं है। लेकिन दरिया महल उसके दिल में है आत्मा में है। मुझे मालूम है यहाँ का हाल देख कर उसकी आँखों से ख़ून के आँसू निकलेंगे। मैं जानती हूँ वह ठाकुरों से ज़रूर बात करेगी। अरे पगले तूने क्या कभी बिट्टो को बताया है कि ठाकुरों के शूटर ने तुम पे गोली चलाई थी?.. और फिर अब दरिया महल तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। वह बेचारी तो अपने बचपन को दोबारा जीने आ रही है।.. मेरे गले लग कर रोने आ रही है। तुम उसे अपने पचड़े में मत फँसाओ। मैंने तो सुना है कि जमाई राजा खासे सख़्त आदमी हैं। न मालूम बिट्टो कैसे गुज़ारा कर रही होगी'' भावज अपनी कमज़ोर नज़र से पुराने चित्रों को इकट्ठा कर रही थी। आज उसकी यादों का बाँध टूट रहा था, यादें छन-छन कर बाहर आ रही थीं।

''अरे छुटकी-सी थी। वो पगला कासिम यहाँ आया करता था। दोनों बंसी ले कर निकल जाते थे मछली पकड़ने। यह छुटकी नदी किनारे मिट्टी से केंचुए निकाल निकाल कर बंसी पर लगा कर कासिम को देती थीं। दोनों घन्टों मछली पकड़ते रहते। फिर बिट्टो मछली लाकर मुझे देती। गर्मी के मारे मुँह लाल हो जाता था उसका। मैं उसका मुँह धुलवाती थी और उसकी लाई मछली उसे फ्राई करके देती थी। कितने चाव से खाती थी मेरी बिट्टो! मुझे तो डर ही लगा रहता था कि कहीं कासिम को पागलपन का दौरा न पड़ जाए मछली पकड़ते पकड़ते। मगर मजाल है कि यह छटांक भर की छोकरी ज़रा भी डरे। बस दो चोटियाँ बनवाती थी और उनमें लाल रिबन पहन लेती थी। सारे काम लड़कों वाले। मरी को चैन तो मिलता ही नहीं था। चोटें तो इतनी लगतीं थीं उसे कि बदन का कोई न कोई हिस्सा तो फटहड़ रहता ही था। मगर प्यारी बहुत है मेरी बिट्टो। ख़ुद ही देख लीजो''

सकीना और मोहसिन ने कभी अम्मा को किसी के प्रति इतना भावुक होते नहीं देखा था। कभी उनकी आवाज़ गीली होती तो कभी आँखें। सक़ीना की समस्या सबसे अलग है। उसे ऐसे मेहमान की प्रतीक्षा करनी है जिसे कभी देखा नहीं। केवल सुन-सुन कर किसी भी रिश्ते को कैसे महसूस करे! मोहसिन ने भी छोटी जान को कितना देखा होगा? छोटी जान तो चालीस साल पहले शादी करके कराची चली गईं थी। मोहसिन तो उस वक़्त दस साल के रहे होंगे। उनकी यादें भी कुछ ख़ास गहरी नहीं होंगी। फिर भी छोटी जान का रुतबा है उन्होंने विलायत में अपने लिए जगह बनाई है कहते हैं कि पाकिस्तान की सियासत में भी उनकी अच्छी पैठ है शायद यहाँ हिन्दुस्तान में भी उनकी चलती हो। एक तो मोहसिन भी सीधी बात करना नहीं जानते। इधर उधर की हाँकने लगते हैं। मूल मुद्दा कहीं ग़ायब हो जाता है। क्या मुझे ख़ुद छोटी जान से बात करनी चाहिए? मुझे तो छोटी जान का नाम भी ठीक से मालूम नहीं! आज अम्मा से पूछती हूँ अम्मा भी तो उन्हें बिट्टो ही कह कर काम चला लेती हैं।

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