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'आज सुबह जब मैं गई तो हॉस्टल गेट से बंटू निकल रहा था। उसने मुझे देखा भी नहीं। नहीं तो हमेशा नमस्ते तो कर लेता था।मुझे लगा, कुछ गड़बड़ है। आपके कमरे में पहुँची तो...."
मैने उसे बीच में रोका -" तो क्या बतलाया उसने?"
"बंटू आज सुबह उसे यह बतलाने आया था कि वह अब भी उससे शादी करना चाहता है लेकिन घर में तूफ़ान खड़ा हो गया है। वह उससे मैत्री रखेगा लेकिन शादी किसी और से करेगा। हालाँकि उसकी निमी से मैत्री को लेकर भी उसके घर में अब सबों को आपत्ति है।"

"लेकिन निमी में ऐसा क्या है? उसके पेरेन्टस का डाइवोर्स हुआ है, यही न?"
"उसने आपको ऐसा कहा है?"

"नहीं, मुझे ऐसा लगता है। जिस तरह से वह अपनी माँ की बातें करती है और पापा से दूर रहती है। मैंने सोचा उनका तलाक हुआ होगा।"
"शादी ही नहीं हुई।"
"क्या मतलब?" मैं चौंक गई।
"हाँ राका दी, उसके माँ -पापा की आपस में शादी नहीं हुई थी। निमी के पापा तब गाजीपुर में सीमेन्ट कम्पनी में मैनेजर थे। निमी के मामा उसी कम्पनी में काम करते थे।कुछ गलत किया था कि नौकरी चली गई। उनकी शादी हो चुकी थी। बच्चे थे। निमी की माँ तब अविवाहित थीं। स्कूल में पढ़ाती थीं। सुन्दर थीं, युवा थीं। अपनी पुन: बहाली के लिए भाई ने मैनेजर का बहन से परिचय करा दिया।"
"उन्हें फिर से नौकरी मिल गई?"
"नहीं। निमी के पापा का जल्द ही ट्रांसफ़र हो गया। लेकिन निमी के पापा और ममी आपस में मिलते रहे। दूसरे शहर में भी। भाई के परिवार का खर्च निमी की माँ ही चलाती थीं इसलिए गाजीपुर की नौकरी छोड़ नहीं सकती थीं। लेकिन उनके सम्बन्ध बने रहे।"

"और निमी आ गई!"
"हाँ! "
"तो शादी क्यों नहीं की?"
"निमी के पापा पहले से शादीशुदा थे। उनके बड़े- बड़े बच्चे हैं। उनकी पत्नी को जब पता चल गया तो उन्होने निमी को तो स्वीकार लिया लेकिन कसम दिलवा कर उसके पापा-मम्मी के सम्बन्ध खत्म करवा दिए। निमी की माँ को उस घर में कोई जगह नहीं मिली। कभी भी नहीं।"
'मुझे निमी ने एक बार कहा था "मैं पापा को कभी माफ़ नहीं कर सकती। माँ आखिरी समय में पापा को देखना चाहती थीं।मैने खबर भेजी थी। लेकिन वे ट्रेन से आए, प्लेन से नहीं।
माँ की आखिरी इच्छा भी उन्होंने नहीं रखी।माँ उन्हें बिना मिले ही चली गईं। वो चाहते तो आ सकते थे!"

"आखिरी दिनों में उनके सम्बन्ध पूरी तरह खत्म हो गए थे।"

"वह टेंथ क्लास में थी न, जब उसकी माँ की मृत्यु हुई? उसने बतलाया था। उन्हें कैंसर था। अभी उसके खर्चे कौन देता है?"

"उसकी माँ सारी सम्पत्ति उसके नाम छोड़ गईं है न। उसके पास एक मकान है और बैंक बैलेंस।वह पापा से कुछ नहीं लेती। बस मिल लेती है, कभी कभी। उस घर में अपने भाइयों से भी। उसके पापा के एक बेटे की तो शादी भी हो चुकी है।"

"हूँ। लेकिन वह काफ़ी खुश मिजाज है। कोई सोच भी नहीं सकता......."

"आप भी राका दी....खुश मिजाज है वह? नाटक करती है। कहती है, मैं जानती हूँ मुझे जिन्दगी में कुछ नहीं मिलनेवाला।मेरे हिस्से में बस रेत ही रेत आई है। आयेगी। मैं रेत को मुट्टियों में भरती हूँ। पलों में जीती हूँ। पलों में मिली खुशी समेटती हूँ और मस्त रहती हूँ। अन्दर अन्दर रोती हूँ, ऊपर ऊपर हँसती हूँ। कौन झेलेगा मेरा रोना! मुझे तो अकेले ही रहना है।"

"किसे मिलती है जिन्दगी भर की खुशी? कोई न कोई अभाव सबके जीवन में होता है।"

"लेकिन उसका अभाव बहुत गहरा है। माँ-बाप के रिश्ते को कोई नाम न दे पाने का अहसास उसे छीलता रहता है। इसीलिए वह इतना हँसती है, घूमती है, लड़कों से फ़्लर्ट करती है।"
"बंटू से तो फ़्लर्ट नहीं कर रही थी।"
"बहुत भावुक है उसे लेकर। इसीलिए तो मरने जा रही थी।"

हॉस्टल सामने था। मैने वंदना से कहा वह वापस जाए। मैं अकेले कमरे में जाउँगी।
"मैने उसे कह दिया था कि आज मैं राका दी को सब बता दूँगी।" इतना कहकर वंदना चली गई।

दुपहर हो रही थी जब मैं हॉस्टल में घुसी।
यह प्रेम का आखिरी पायदान है, मैंने सोचा। क्लाइमेक्स!

प्रेम के आखिरी सोपान पर

कमरे का दरवाजा उढ़का हुआ था। अगल बगल के सारे कमरों के दरवाजे पर ताले लटक रहे थे। दोपहर के भोजन में अभी देर थी।मैं चुपचाप अन्दर घुसी। वह बिस्तर पर मुँह के बल लेटी थी।दुबली- पतली काया। गोरे चेहरे पर बिखरे हुए उसके कटे हुए छोटे बाल। रुलाई को घोंटने की कोशिश में रह रहकर काँपता उसका पूरा शरीर .....
मैंने उसे देखा और फट पड़ी-

"मरना ही है तो कहीं और जाकर मरो। मुझे क्यों हथकड़ियाँ लगवाना चाहती हो? गाजीपुर जाकर मरो। मामा के घर में। पापा के पास। हॉस्टल का कमरा ही मिला था? क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा? किस बात का बदला ले रही हो? एक तुम्हारे होने न होने से इस इतनी बड़ी दुनिया में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला। शौक से मरो। अपनी मर्जी से आई थी न दुनिया में, अपनी मर्जी से जाओगी !"

फिर मैने चौंक कर महसूसा कि ऐसा कुछ तो मैने नहीं सोचा था। कमरे में घुसने के पहले मेरे मन में कुछ भी स्पष्ट नहीं था। कैसा व्यवहार करना है इसकी कोई निश्चित रूपरेखा नहीं थी। क्या कर रही हूँ मैं? क्या कह रही हूँ? लेकिन मैं क्या कहना चाहती हूँ, मुझे खुद भी नहीं मालूम था। मुझे उस पर बेहद गुस्सा आ रहा था। वह गुस्सा इसलिए नहीं था कि उसने उस कमरे में यह कोशिश की थी। वह कहीं और जाकर मरती तो क्या मैं निर्लिप्त रहती? मैंने खुद से पूछा।

मैं न तो अपने गुस्से को पहचान पा रही थी न उस वक्त किसी आत्म विश्लेषण के लिए तैयार थी। मैं बस उस पर बरस रही थी। जो जी में आए कहे जा रही थी। उसका रोना तेज होता जा रहा था। अब वह फ़ूट फ़ूट कर रो रही थी। आवाज भींच कर। उसने सुबह से कुछ खाया नहीं था। वंदना ने बतलाया था। वह नहायी नहीं थी। अनवरत रोने से सूजी हुई आँखें और दुबला चेहरा लिए वह मासूम बच्ची सी लग रही थी, अपनी उम्र से बहुत छोटी।

मैंने उसे बहुत प्यार किया था। छोटी बहन थी वह मेरी। अनचाहे ही मैं शायद बहुत गहरे जुड़ गई थी उससे। यह जुड़ना बहुत समय से हो रहा था, मैने आज पहचाना था।

वह सहसा उठ कर बैठ गई। दीवार से पीठ टिका ली। तकिया गोद में। आँखें झुकीं। मुँह से पहली बार बोल फूटे-
"माँ के मरने के बाद बहुत अकेली हो गई थी मैं। कोई मुझे डाँटता नहीं था। मैं जान बूझ कर गलतियाँ करती, तब भी..... कोई डाँटता नहीं था। आज पहली बार किसी ने मुझे इतना डाँटा है। थैंक्यू दीदी!"

मैं स्तब्ध थी।

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१८ अक्तूबर २०१०

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