मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


''सर आप भीग रहे हैं, बारिश में कहाँ जाओगे?'' जोसेफ ने पूछा। मैंने जवाब दिया, ''अरे, बरसों बाद बारिश में भीगने का मौका मिला है, सोच रहा हूँ पुरानी यादें ताज़ा कर लूँ। तुम मेरी फिक्र छोडो।''
''ओके सर।'' कहकर जोसेफ ने गाड़ी को जैसे-तैसे शुरू किया और वह चला गया।

मैं सीधा-सीधा चल रहा था। थोड़ी देर तक चलने के बाद अचानक किसी के गुनगुनाने की आवाज सुनाई दी। मुझे खुशी हुई- चलो कोई तो है जो इस बात की अंधेरी रात में जाग रहा है, बारिश का लुत्फ उठा रहा है। देखा तो एक चौबीस-पच्चीस साल का नौजवान हाथों में तानपुरा धरे, बजाते हुए गा रहा था। गाना अरबी था। गीत को बोल का हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार था- हर कोई चाहता है, अपने जीवन में एक पल हो प्यार का, एक प्यार का पल हो।
गम नहीं, शिकवा नहीं, शिकायत नहीं फिर अगर मौत की बारिश हो।

वाह!  वाह! क्या बात है, अचानक मेरे मुँह से बोल निकल पड़े। अरब लडके ने मेरी प्रशंसा को स्वीकार करते हुए मुस्कराहट बिखेरी और मुझसे पूछा, ''कीफ हालक (तुम कैसे हो?)
जेन, शुक्रन (मैं ठीक हूँ, धन्यवाद) मैंने जवाब दिया।

चट्टान पर बैठा वह युवक मुझसे दोस्ती करने के मूड में था। उसने मुझसे दोस्ती के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया और मैंने तुरंत उसे अपना हाथ सौंप दिया।
उसने कहा, ''इस्मी हासन (मेरा नाम हासन है)।
''मिलन, अना हेंदियाह (मिलन, भारत से)। मैंने कहा।
 ''मालूम!'' उसने कहा," और हम दोनों बातचीत में लग गए। इस दौरान पता चला कि वह एक शौकिया कवि है और मैं एक शौकिया लेखक।
मैंने कहा, ''इस रेत के शहर में, रेत के पन्नों पर, रेत की स्याही से रेतीले शब्दों से मैं अपनी कहानियाँ, कविताएँ और अन्य लेख लिखता हूँ। धूल-मिट्टी, बालू-रेत, पानी आते हैं उन तमाम नामों को निशानियों को मिटाकर चले जाते हैं जो मेरे अपने थे, मेरे करीब थे। सूरज की किरणें फिर उगकर मुझे मेरे उन आशाओं की, सपनों की यादें उजागर कराती हैं, जिन्हें पूरा करने मैं यहाँ 'इमारात' आया था। देश-भाषा और विकास के सपने।"

मेरी बातों से उसे पूरा यकीन हो गया था कि समय गुजारने के लिए उसे एक अच्छा और सच्चा साथी मिल गया था। और मेरे जीवन का तत्व- इन्सान को इन्सान से घबराना कैसा? मुझे और आराम देने के लिए उसने मेरे मुँह की बात छीन ली।
उसने पूछा, ''काहवा (कॉफी)?
मैंने पूछा, ''वीन (कहाँ)?

मेरा हाथ पकड़कर वह मुझे ले जाने लगा एक अनचाही, अनजानी अजनबी दिशा में। चट्टानी रास्ते से ऊपर। मैंने भी बुरा नहीं माना क्योंकि बरसात अब पूरी तरह से थम गई थी। हालाँकि बिजलियों की गडगडाहट अभी तक जारी थी। बादल गरज रहे थे। उसने मेरा हाथ पकड़ा और दबाकर कहा, ''मिलन? ए...'' अब वह हिंदी पर उतर आया था, '' किससे किसका मिलन? नदिया से दरिया का, दरिया से सागर का या हासन से मिलन का?''

मुझे उसकी ये हरकत बिलकुल अच्छी नहीं लगी। हम दोनों की उम्र में काफी फर्क था। पहली बार मुझे एक अजीब-सा एहसास हुआ। कहीं इस अपरिचित व्यक्ति से मित्रता का हाथ बढ़ाकर मैंने कोई गलती तो नहीं की थी। शायद उसने भी यही सोचा था, मगर उसमें आत्म-विश्वास झलक रहा था और मुझमें थोड़ा-सा डर, थोड़ा-सा गुस्सा और थोडी-सी चिंता- कहीं मेरा ये फैसला गलत तो नहीं था।!

''एक कविता सुनो'' कहकर वह अउद (गिटार की तरह का अरबी वाद्य) पर एक धुन बजाने लगा। धुन गंभीर थी, गहरा दर्द छिपा था उसकी आवाज में बोल अरबी थे मगर दर्द ऐसा था कि किसी की भी रूह को छू जाए। वह गा रहा था- कबसे है इंतजार में एक घर खुला हुआ, एक चिराग जल रहा है तो एक दिल बुझा हुआ। लाओ कहीं से ढूँढ़ के यादों की रोशनी, एक चेहरा दिखाई देगा और एक नाम लिखा हुआ- सकीना, सकीना कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगा। मुझसे रहा नहीं गया। उसे सांत्वना देते हुए मैंने पूछा, ''सकीना कौन?''
हासन ने कहा- ''जावजाह- मेरी बीवी'',
थोडी देर चुप रहने के बाद फिर रो गाने लगा- ''देखे थे कल जो ख्वाब न जाने कहाँ गए, आँसू बनकर मेरे आँसुओं को रुला गए, साहिल की नर्म रेत पर तन्हा खड़ा हुआ, कबसे है इंतजार में एक घर खुला हुआ।''

कहकर उसने फिर से एक दो साल के बच्चे की तरह रोना शुरू कर दिया। उसे समझाना और सँभालकर चुप कराना मेरे काबू से बाहर था। एक छोटे बच्चे की तरह वह मुझसे लिपट गया। उसका यों लिपटना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। पूरे चौबीस-पच्चीस साल का छोरा था वह।
''हासन, देखो मुझे एक फोन करना है''- कहकर मैंने उसे अपनेसे अलग कर दिया। जेब से मोबाइल फोन निकाला और जोसेफ का नंबर मिलाया। जोसेफ जवाब नहीं दे रहा था। मौका मिलते ही हासन ने अपनी बत्तानीया (कंबल) मुझे ओढा दी और मुझसे पूछ बैठा- इत तिलिफून अतलान? अलखल मशगूल? (फोन आउट ऑफ ऑर्डर है या व्यस्त है?

मैंने ठान लिया अब इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दूँगा। मैं चुप रहा।
हासन की दोनों आँखें गुस्से के मारे लाल हो चुकी थी।
चट्टान की चोटी तक हम दोनों पहुँच चुके थे। हासन को नाराज़ करना मतलब हो सकता था मौत को दावत देना। मैं सहम गया था। क्या चाहता था वह मुझसे? साथ, दोस्ती, सहानुभूति या फिर कुछ ऐसा भयंकर जिसकी मैं कल्पना करने से घबरा रहा था। मैं तो सिर्फ कॉफी पीना चाहता था, जोसेफ लौटने तक उसका साथ चाहता था, सही-सलामत अपने घर लौटना चाहता था। मगर नहीं किस्मत और हासन दोनों कुछ और चाहते थे और उनकी चाहत की बलि का बकरा था मैं। लेकिन मुझे सबकुछ बर्दाश्त करना होगा। एक बार चट्टान के उस पार पहुँच जाऊँ, फिर कॉफी हो न हो, जान बचाकर भागना ही सही होगा। अपने डर को मिटाने के लिए मैंने हासन से पूछा, ''और कितनी देर चलना होगा?''

उसने कहा, ''बस चट्टान से नीचे उतरते ही मेरा घर है।'' अँधेरे में हम एक-दूसरे को ठीक से देख भी नहीं पा रहे थे। आसमान में यदा कदा चमक उठनेवाली बिजली की रोशनी से ही काम चल रहा था। दोनों चुप थे। चुप्पी को तोड़ने तथा अपना भय कम करने के लिए मैंने अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और लाइटर देकर उससे सिगरेट सेवन करने के लिए कहा। मेरे निमंत्रण को उसने बड़ी प्रसन्नता से स्वीकारा। मुझे भी मौका मिल गया जोसेफ को फोन लगाने का। अबकी बार जोसेफ ने जवाब दिया, कहा, ''गाडी तैयार है।''
मैंने जोसेफ से कहा, ''कुछ देर तुम्हें इंतजार करना होगा। ऐसा करो जहाँ मैं गाडी से उतरा था उसके समांतर रोड पर मेरा इंतजार करो- जहाँ 'इमारात' का पेट्रोल पंप है। समझ गए ना?''
''ओके सर।'' जोसेफ ने कहा और मैंने फोन काट दिया यह कहकर कि नो प्रोब्लेम।

मगर यहाँ प्रोब्लेम शुरू हो गई थी, हासन अब मुझे घूर रहा था। शेर की तरह दहाडना चाहता था वह उसके दिल में उसने कोई बात दबाकर रखी थी जो अब वह जुबान पर लाने वाला था। खैर, हाल-फिलहाल तो उसकी बात से मुझे कोई मतलब नहीं था। एक बार कॉफी पीकर जो चला जाऊँगा तो वापस पलटकर देखूँगा भी नहीं इस भूत को... भूत... कहीं हासन भूत तो नहीं। अगर ऐसा है तो मुझे उससे बच निकलने का कोई रास्ता ढूँढना होगा। मैंने हासन से कहा, ''कॉफी फिर कभी...इस समय मुझे जाना होगा।  हासन ने अपनी सिगरेट बुझाते हुए कहा, ''काफी पीकर चले जाना।"

बस थोड़ी ही देर में हम चट्टान की शिखर से नीचे उतरे। सामने इमारात का पेट्रोल पंप भी नजर आ रहा था, जहाँ मैंने जोसेफ को गाडी के साथ रुकने के लिए कहा था। जोसेफ और गाडी का अता-पता तो था नहीं मगर हासन ने कहा, ''अला यसारेक (बाएँ तरफ मुड़ना), ताल इला बेयती (चलो घर चलें।)

मैंने दाएँ-बाएँ देखा, दोनों तरफ अंधेरा ही अंधेरा था। रोशनी की कोई किरण नहीं थी वहाँ। सिर्फ सामने सडक पार नजर आ रहा था इमारात पेट्रोल पंप।
मैंने कहा, ''कॉफी फिर कभी,  मुझे देर हो रही मुझे जाना होगा।" मैं भागने लगा। उसने दौडकर मुझे पकड़ लिया, जेब से एक मोटी रस्सी निकाली और मेरे दोनों हाँथ बाँध दिये। मेरा मोबाइल फोन मुझसे छीन लिया। मैं भाँप गया था कि वह एक गुनहगार था, लेकिन अबतक काफ़ी देर हो चुकी थी। वह क्या गुनाह करता था और मुझे पकड़ने का उसका मकसद क्या था, यह जानना अभी बाकी था। बूँद बूँद बारिश शुरू हो गई थी। मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मौत के मुँह में धँसकर, बाहर निकलकर दोबारा मौत के मुँह में घुस रहा था मैं, अब तो मौत निश्चित थी मगर मौत का रूप कितना भयंकर होगा, इस बात की कल्पना कर रहा था मैं।
हासन ने पूछा, ''काम क्या करते हो?''
''दुबई की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में इंजीनियर हूँ।''
''तनख्वाह कितनी है?''
''महीना बीस हजार।''
''जेब में कितने दिरहाम होंगे?''
मेरी बोलती बंद हो गई। उसने दोबारा पूछा। सारी साँसें एकसाथ बटोरकर मैंने कहा, ''लगभग पाँच हजार दिरहाम।''
हासन ने अब सख्ती से कहा, ''मुझे दे दो।''
मैंने जेब से अपना पर्स निकाला और पैसे निकालने ही वाला था कि उसने जोर-जबरदस्ती से मेरा पर्स अपने हाथों में लिया और बोला, ''काफी हैं।'' आगे पर्स टटोलकर बोला, ''तो क्रेडिट कार्डस भी हैं। बहुत अच्छा'' मेरा पर्स उसने अपनी जेब में रख लिया। जेब से एक छोटी-सी सीटी निकाली, बजाई। अउद पर एक हल्की-सी धुन भी बजाई, यह एक सिग्नल था, इशारा था आनेवाले खतरे का।

पृष्ठ : . . .

आगे-

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।