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जाते-जाते कह गया -""किसी का भरोसा मत करना। असली नाम मत बतलाना। रेन्टल कार वाले को निबटने दो। तुम भी क्लेम फ़ाइल कर दो। पाँच हजार डालर का कम से कम। बोलो कि कमर दुखती है। बैक बोन में प्राबलम आ गई है। कुछ भी बोलो। हर्जाना वसूलो। यहाँ सब साले चोर हैं।"
हँसी आई श्रुति को। जो खुद नहीं वसूल पाया, वह उन्हें सिखा रहा था! बेईमानों के शहर में क्या वह इकलौता भला था? और बहुत सारे होंगे उस जैसे। जूझते हुए लेकिन, न्यूयार्क से प्यार करनेवाले लोग! रात गए भटक-भटका कर जब वे होटल वापस पहुँचे तो दस बज गए थे। तब सम्मेलन का आखिरी दिन बाकी था और श्रुति दोस्त के होटल में अपना बैग छोड़ आई थी।

पहला दिन ठीक ही बीता था। उन्होंने मैनहट्टन के चक्कर लगाए थे। वे सम्मेलन से वापसी में मैनहट्ट्न के गली-कूचों से गुजरे थे और इन्द्र ने रास्ते में रुक कर अपनी मनपसन्द चिकन बिरियानी खाई थी। वह खुश थी। इतने लोगों को पहली बार मिली थी। वह दिन भर दोस्तों के बीच चहकती फिरी। इतने सारे लोग। नई पुरानी दोस्तियाँ। पुरानी पड़ गई यादों की सिलवटें उतारना। अपने प्रेरणा स्वरूप मित्रों और अग्रजों से मिलना। जिनकी आजतक आवाज सुनी थी सिर्फ़, उन्हें सामने से देखना - समझना। उनसे सीखना। सुखद था सब। वह शाम तक पूरी थक गई थी। अभी तो बस शुरूआत हुई है। अगले दो दिन और हैं। जितना देख सके देख ले। जान सके जान ले। यूँ भी सबकुछ किसके हिस्से में आता है! सारे समीकरण बदल गए अगले दिन। उसके नसीब में तो न्यूयार्क की सड़कों पर भटकना लिखा था। लेकिन तब भी, बहुत कुछ ऐसा है जो सिर्फ़ श्रुति ने पाया है!
उस काली लड़की का चेहरा भी बार-बार आँखॊं के आगे कौंधता है। क्वीन्स की सड़क पर बस का इंतजार करती हुई वह मिली थी उसे। साथ ही बस में चढ़ी थी और बगल में बैठी थी। यह जानकर कि वह लेखिका है,बहुत सकुचाते हुए उसने श्रुति से पूछा था - "तुम मुझे अपनी कहानियाँ पढ़ने को दोगी?"
तब जीवन में पहली बार श्रुति ने सोचा था, काश! उसने अंगरेजी में लिखा होता! जाना था एक बार फिर कि उसका लेखिका होना मायने रखता है! वह भी अपनी कहानी उसे सुना गई है। इस सुझाव के साथ कि वह अपनी कहानियाँ अंग्रेजी में अनूदित तो करवा ही सकती है।

श्रुति ने उसका नाम-पता भी नहीं लिया। न उसने दिया। शायद वह अपनी कहानी पहचान लेगी, जब श्रुति लिखेगी और वह अंगरेजी में अनूदित होकर छपेगी। सब वे में भटक- भटक कर थक गई थी वह। भीड़ का एक रेला आता, गुजर जाता। फिर दूसरा ... इन्द्र खो गया था भीड़ में और वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे आगे जाना है या पीछे लौटना है? सब वे, यानी एक अन्तहीन लगती सी सुरंग जहाँ सेल फ़ोन काम नहीं करता। किधर ढूढ़े इन्द्र को? और इन्द्र को क्या रुकना नहीं चाहिए था उसके लिए? इतना सारा सामान घसीट रही है तब से। पसीने पसीने हो गई। होटल में लेन्टिल सूप के नाम पर खायी साबुत मसूर दाल, जिसमें मटर के साथ गाजर के टुकड़े थे, कब की पच चुकी। पता नहीं अभी कितना और चलना है। एक नम्बर प्लेट्फ़ार्म किधर आता है? भीड़ का ओर- छोर नहीं। वह खड़ी हो गई एक ओर। थोड़ा सुस्ता ले।
"नीड हेल्प?" बगल से गुजरती चाइनीज स्त्री रुक जाती है।
"नो, थैंक्स।"
किसी का भरोसा नहीं करना!

मन फिर रोने को हो रहा है। अटैची सचमुच भारी है। इससे भी भारी इन्द्र की होगी। एक बैग उसके भी कन्धे पर है। तब भी कैसे इतना तेज- तेज चल कर गुम हो गया! वह बार-बार पसीना पोंछ रही है। भीड़ का रेला गुजर रहा है .... वह चुप इन्तजार कर रही है। सहसा नजर पड़ती है। दायीं ओर जाते रास्ते पर प्लेटफ़ार्म वन लिखा है। वह कोशिश करती है तेज चलने की और फिर पसीने से भीगती है। आधा माइल और। हवा? कहीं नहीं है हवा। कागज का आखिरी रूमाल हाथ में है। भीगा हुआ।  सामने सीढियाँ हैं और सीढ़ियों से नीचे उतर कर इन्द्र एक किनारे खड़ा है - इन्तजार करता हुआ। भीड़ का रेला सीढ़ियाँ चढ़ रहा है। वह दाहिनी ओर किनारे हो जाती है। अटैचियाँ सामने। सामने से ऊपर चढ़ता हुआ लड़का एक क्षण को थमता है। आँखों में सवाल- "नीड हेल्प?"
वह सिर हिलाकर न कहे इससे पहले ही उसकी अटैची सीढ़ियों से उतार कर एक किनारे रख देता है। उसकी आँखों में उमड़ी कृतज्ञता उसने देखी क्या? उसका थैंक्स बुदबुदाना उसने सुना? वह तो चला भी गया! सारा सामान घसीटती वह इन्द्र के पास पहुँचती है -"कहाँ चले गए थे तुम?"
अभिमान, भय, क्रोध और विवशता के मिले जुले आँसू आँखों में तैर आए। धैर्य की प्रतिमा इन्द्र! सारा गुस्सा झेलता मुस्कराता रहा।
"मैं यहीं तुम्हारा इन्तजार कर रहा था। प्लेटफ़ार्म वन पर।" सहसा उसका ध्यान गया। इन्द्र के गालों से टपक कर पसीने की बूँदें उसकी कमीज के कॉलर को भिगा रही थीं। श्रुति ने अपना पर्स टटोला। एक कागज का रूमाल था अब भी। उसने हाथ बढ़ाकर इन्द्र का पसीना पोंछ दिया।

एक बस यात्रा और। आखिरी। रेन्टल कार वाले के यहाँ पहुँचना है। कार लेनी है। सम्मेलन खत्म। अपनी दोस्त के घर जाकर आराम करेगी एक रात। कल की फ़्लाइट है।
"हैव यू पेड फ़ॉर टू सीट्स?"( तुमने दो सीटों के पैसे दिए हैं?)
श्रुति ने मुड़कर देखा। बीसेक साल का युवा, एक हाथ से बस की रॉड थामे, दूसरे में कोई उपन्यास पकड़े, इन्द्र से मुखातिब था।
"नो। यू कैन हैव दिस सीट।"( नहीं। तुम यह सीट ले सकते हो।) इन्द्र उठकर खड़ा हो गया।
वह लड़का मुसकराया। तिरस्कृत करने वाली दृष्टि से उसने फिर एक बार इन्द्र को देखा और सीट पर बैठकर उपन्यास में डूब गया।
बाकी के रास्ते इन्द्र उसकी बगल में खड़ा रहा और बड़ी शान्ति से उसने उसे बतला दिया कि सीट पर सामान रखना उसकी मजबूरी है और ऐसा उसने चालक की जानकारी में किया है।
श्रुति देख सकती थी, उस लड़के का चेहरा उतर गया। पल भर पहले कायदे सिखाने वाला अब इन्द्र से नजरें नहीं मिला पा रहा था।
लेकिन वह उठा नहीं। उतरते वक्त जब इन्द्र ने उसे कहा - "हैप्पी नाऊ?" ( खुश हो अब?) तो वह सिर झुकाए ही उतर गया, उसी तरह नजरें चुराए।
श्रुति को लगा, इन्द्र हार कर जीत गया और उसके साथ ही जीत गई वह।
रेन्टल कार कम्पनी आश्वस्त हो चुकी थी शायद, कार ऐक्सीडेन्ट उनके लिए कोई परेशानी पैदा नहीं करनेवाला। बड़े सहज भाव से उन्हें एक और दिन के लिए कार दे दी गई और आखिरी रात इन्द्र और श्रुति ने सुनयना के घर पर डटकर खाया था और निश्चिन्त सोए थे। इन्द्र ने उसके बेटे के साथ यो-यो खेला था और वह प्रेम से सुनयना को सम्मेलन के अनुभव सुनाती रही थी। साथ में वह सारा कुछ जो उन्होंने न्यूयार्क की सड़कों पर झेला था। घर पहुँची तो लगा एक परिक्रमा पूरी हुई।

अब लगता है, उन तीन दिनों में उन्होंने एक पूरी जिन्दगी जी ली थी! इतने सारे अर्थ बदल गए जीवन के। इतने सारे सर्द अहसास जिन्दगी के खाते में दर्ज हो गए। जो चुभता है, उसे महसूस किया जाता है, उसकी व्याख्या नहीं होती! और आज उसे मालूम हुआ कि वह बेवकूफ़ भी है। अपने दर्द की कोई कीमत नहीं माँगी उसने डॉलर में। मांगती तो शायद वकील का भी कुछ फ़ायदा होता। याकि शायद उसका ही फ़ायदा होता। कौन जाने!
दिन भर में उसने घर के सारे काम निबटा लिए। वह काम करती रहती है और दिमाग चलता रहता है। सुबह से एक ही बिन्दु पर अटका हुआ है- "बेवकूफ़... बेवकूफ़...."

सम्मेलन का घोषणा पत्र अब भी उसके पास है। उसके कार्यक्रमों की सूची उठाकर देखती है। इतने सारे भाषण महत्वपूर्ण थे, वह नहीं सुन पाई। इतने सारे लोगों से व्यक्तिगत पहचान बनाने को गई थी, नहीं बना पाई। जो सुना, किया, उसे मन में कितना रख पाई इसका हिसाब आनेवाला कल देगा! एक अटैची में अब भी किताबें भरी हैं। यदि समझ होती तो कुछ कम कपड़े ले जाती कि कुछ और किताबें, जो छूट गईं, ला सकती।
"तुम्हारी किताबों की वजह से अटैची भारी हो गई।" इन्द्र ने लौटते वक्त शिकायती लहजे में कहा था।
"किताबों में वजन होता है इन्द्र! ये यूँ ही किसी के जीवन की दशा और दिशा नहीं बदल देतीं।"
वह मुस्कराया था और चुप हो गया था।

सांझ हो गई है।
इन्द्र काम से वापस आ चुका है। अपने आफ़िस वाले कमरे में है। वह दनदनाती हुई इन्द्र के कमरे में घुसती है,"मुझे मुआवजा चाहिए।"
"हाँ।"
"क्या हाँ? मैं कह रही हूँ मुझे मुआवजा चाहिए। मेरा सम्मेलन बर्बाद हुआ। मुझे "शब्द -संसार" के सम्पादक से मिलना था, नहीं मिल पाई। मेरे प्रिय लेखक/ कवि सब थे किसी के साथ बैठी-बोली नहीं। मुझे कुछ प्रकाशकों से परिचय करना था अपनी अगली किताब के लिए। नहीं कर पाई। कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं देखा। अनूप जलोटा आया था। कवि सम्मेलन नहीं सुना। कुछ नहीं कर पाई मैं। अपनी वकील से बोलना मुझे इस सबकी भरपाई चाहिए। मानसिक संताप की।"
"पहले इन्श्योरेन्स कम्पनी को मेडिकल बिल का क्लेम भरवाना है। उसके बाद।"
"उसके बाद कब?"
"इन्द्र ने श्रुति के कंधे थपथपा दिए,"रिलैक्स।"

वह जान चुका है, कोई मुआवजा नहीं मिलने वाला। बस मेडिकल बिल चुका दिए जाएँ वही बहुत होगा। वह भी पता नहीं कब तक? न्यूयार्क में सब भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। न्यूयार्क- अमेरिका का दिल -पूरे देश से भिन्न है। बहुत कठोर है अमेरिका का दिल। मनीष अरोड़ा का प्रिय न्यूयार्क!
लेकिन श्रुति आज फिर उत्तेजित हो गई है। यह होता रहता है। इतना कुछ खोया है उसने। लगता है श्रुति का भी चेक अप करवाना चाहिए फिर से। अवसाद ग्रस्त हो जाती है जैसे। अमेरिका के कानून कहते हैं कि मानसिक संताप के लिए भी मुआवजे का प्रावधान है। एहसासों को भी पैसे से तोलते हैं यहाँ। डॉलर में सबकुछ तुल जाता है इस देश में। मेडिकल बिल के इतने डॉलर! मानसिक संताप के लिए इतने हजार डॉलर....
वह चुपचाप उसके कंधे सहलाता रहा।
वह इन्द्र की बगल में सोफ़े पर धंस गई। आँखों से आँसू बह -बह कर गालों पर गिरने लगे। वह रोती रही देर तक। बहुत सारे आँसू जमा हो रहे थे अन्दर। बहुत समय से। न्यूयार्क की यात्रा से पहले से ही। वही सब निकल रहे हैं। कितनी बार रोना आया था। हर बार जब्त किया था उसने। वही सब... वही सब....
इन्द्र ने समेट लिया उसे अपने और करीब। वह रोती रही।.... खाली हो गई पूरी। वह उसे स्थिर देखकर मुस्कराया "हो गया? "
एक मुस्कराह्ट तैर गई श्रुति के चेहरे पर भी। क्या बैठी-बैठी बौखलाती रह्ती है! सुनती क्यों है सबकी? कोई पूछे तो कह दे, हाँ, मुआवजा मिला है उसे। मिल चुका है। एक-एक कर सारे चेहरे घूमते हैं उसके आगे। वह काली लड़की, अपनी दुर्घटना की कहानी सुनाती हुई। वह सहायता को बढ़ा हाथ। वह दो सीटॊं का हिसाब मांगता लड़का। वह क्वार्टर डॉलर के सिक्के खोजते हुए दूकान दर दूकान भटकना कि बसों में चढ़ा जा सके। पोर्ट अथारिटी टर्मिनस के फ़र्श पर रोशनी से बनती बिगड़ती तितलियाँ, उन तितलियों के साथ रात के अंधेरे में विलीन होते श्रुति के न्यूयार्क को लेकर, सम्मेलन को लेकर पाले गए सपने। भूख से तड़पने के बाद खाए गए मैक्डोनाल्ड की सैंडविच का अमृत जैसा स्वाद। मैनहट्टन के गली कूचे, बाजार - अस्पताल, लोग...। सबकुछ ... सबकुछ देखा उसने! तीन दिनों का वह समय अपने आप में सम्पूर्ण था। अनुभव की सम्पूर्णता, उसके अन्दर के लेखक को चाहिए थी न? मिली है उसे। झोली भरकर लौटी है वह!

धीरे से उसने अपने आँसू पोंछ लिए। फिर याद आया,, मनीष अरोड़ा की झोली खाली होगी अब भी। छह महीने और बीत गए। उसकी आँखों का खालीपन और गहरा हो चुका होगा अबतक। उसकी हँसी और खोखली। उसका फ़ोन नम्बर अब भी उसके पास है। फ़ोन करके फिर पूछे क्या?
"तुम्हें क्या लगता है अरोड़ा को मुआवजा मिल गया होगा?" उसे देर से चुप देखकर इन्द्र धीमे से कहता है।
वह मन ही मन प्रार्थना कर रही है - "मनीष अरोड़ा को मुआवजा मिल जाए!"

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५ अप्रैल २०१०

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