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बापू तो कर्ज़ के बोझ से पहले ही अधमरा था, वह तो यूँ ही मर जाता..."

उसके होंठ तो चुप कर गए, पर यादें बोलने लगीं...एक दूसरे से पहले बाहर निकलने की होड़ में भागने लगीं। उसने यादों को समेटा और वे कतारबद्ध बाहर आईं। आज वह अपने अतीत में डूब जाना चाहता था, शायद उसी से ही उसका मन स्थिर हो जाए।
गरीबी से तंग आ चुका था वह, बापू के थोड़े से खेत और बड़ा परिवार, गरीबी दूर करने का उसे कोई मार्ग नज़र नहीं आता था। माले के घर से लाई गई लस्सी में, बासी रोटी भिगो कर, वही खा कर वह अपनी भूख मिटाता था। पाँचवीं से आगे वह पढ़ नहीं पाया था, स्कूल की फीस, किताबों, कापियों के पैसे कहाँ से आते?
''बख्शिंदर का भला हो, जिसकी बदौलत आज मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ।'' वह अँधेरे में हल्की-सी रौशनी की किरण को देख कर बोल रहा था, जो अपने प्रियतम के आगमन से पहले सारी सृष्टि को सचेत कर रही थी।

बख्शिंदर उसके गाँव का लम्बा-ऊँचा पहला नौजवान था, जो गाँव से बाहर नौकरी करने गया था । साल में या कभी दो -तीन साल में एक बार वह गाँव आता, और दिल खोल कर पैसा खर्च करता। वह उससे बहुत प्रभावित था और बख्शिंदर की तरह बन कर पैसा कमाना चाहता था।
एक बार वह बख्शिंदर से मिला, ''भाजी, मैं भी आप की तरह पैसा कमाना चाहता हूँ।'' उसने ने साहस बटोर कर कहा था। बख्शिंदर ने मुस्करा कर उसकी तरफ़ देखा था, ''पैसा कमाना आसान नहीं है, मुंडिया। हम अनपढ़ लोग हैं, सब कुछ लुटाना पड़ता है, अपना अहं, अपनी होंद मिटानी पड़ती है।''
''हर तरह की चुनौती के लिए तैयार हूँ जी, पर मुझे अपने साथ ले जाओ।'' बड़े आत्मविश्वास से उसने कहा था।
बख्शिंदर ने उसे टालते हुए कहा था, ''जा अपने बापू की रज़ामंदी ले आ।''
ज्योंही, उसने बख्शिंदर के साथ जाने की बात, घर में जा कर बताई, उसके बापू ने डंडा पकड़ लिया और उस दिन उसे बहुत मार पड़ी थी। बदन पर पड़ते हर डंडे के साथ, गालियाँ भी सुनने को मिली, ''हरामदा, खेताँ विच तैथों कम नहीं हुँदा, समुद्री जहाज़ ते मज़दूरी करेंगा, ओये कंजरा, मज़दूर नालों किसान दी इज़्ज़त ज्यादै।''(हराम के, खेतों में तेरे से काम नहीं होता, समुद्री जहाज़ पर मज़दूरी करेगा, ओये कंजरा, मज़दूर से किसान की इज़्ज़त ज़्यादा है।)

''बापू किस इज़्ज़त दी गल करदैं, घर तां दो वेले दी रोटी वी खान नूँ नहीं।'' (बापू किस इज़्ज़त की बात करते हो, घर में तो दो वक्त की रोटी भी खाने को नहीं) बस मोणे (घर में उसे इसी तरह बुलाया जाता था) का इतना कहना था, कि बापू के डंडे उस पर ताबड़तोड़ पड़ने लगे। बापू अपनी निराशा, बेबसी, असमर्थता, क़र्ज़ के बोझ के गुस्से को, उसके बदन पर निकाल रहा था। वह चीखता-चिल्लाता रहा, बापू उसे पीटता रहा और मार-मार कर जब वह हाँफने लगा, तो बाहर चारपाई पर जा बैठा। बहनों और माँ ने कई बार उसे बचाने की कोशिश की, उन पर भी बापू के डंडे बरसे और वे रोती हुईं, घर के कोनों में दुबक गईं। मोहन सारी रात दर्द से तड़फता रहा, बहनें, रात भर, गर्म ईंट से मार की चोटों पर सिंकाई करती रहीं। उस रात उसने सोच लिया था, कि वह इस गाँव और घर से दूर चला जाएगा, यहाँ रहा, तो इसी तरह, पिटते-पिटते मर-मिट जाएगा। इस घटना की याद ने, मोहन के बदन में झुरझुरी पैदा कर दी, वह उस पीड़ का दर्द, आज फिर महसूस कर रहा था। ये चोटें, शरीर से ज़्यादा, उसकी आत्मा पर लगी थीं। कई दिन, वह अपने दर्द भरे शरीर को घसीटता रहा था। उसकी किस्मत अच्छी थी, बख्शिंदर कुछ दिनों बाद ही, गाँव लौट आया। इस बार उसने आते ही, मोहन से सम्पर्क किया, वह उसके दृढ़-आत्मविश्वास से प्रभावित हुआ था।

''मोणे, अमरीका चलेगा?''
''मुझे कौन अमरीका लेकर जाएगा?''
''मैं और कौन?''
''भाजी, आप तो समुद्री जहाज़ पर काम करते हैं?''
''अरे वहीं पर, मुझे अमेरिका के यूबा सिटी का, एक ज़मीदार सरदार बिशन सिंह दोसांझ मिला था, उसे खेतों में काम करने के लिए कुछ कामगार चाहिए। अमरीका जाने के लिए ही तो मैं समुद्री जहाज़ पर काम कर रहा था, अब मैं हाथ आया मौका गँवाना नहीं चाहता, चलेगा मेरे साथ। दो जने होंगे, तो दुःख-सुख बाँट लेंगे।''
''भाजी, मैं तो तैयार हूँ, पर बापू को इसके बारे में ना बताएँ।''
''ओये डर ना, मैं नहीं बताने वाला, मुझे पता चला है, तेरे साथ क्या हुआ!''
''पर पासपोर्ट, वीज़ा, इन सब पर ख़र्चा, मेरे पास तो एक पैसा भी नहीं है।''
''मोणे, तूँ चिंता न कर, लैंड लौर्ड सब कुछ करेगा, हमने अपना कपड़ा- लत्ता लेकर, उसके साथ चले जाना है।''
मोहन बहुत खुश था, उसे इसी दिन का इंतज़ार था, पर उसने इस ख़ुशी को, अपने भीतर ही दबाए रखा। अपनी माँ-बहनों को इस बात की भनक तक नहीं पड़ने दी।
एक दिन छोटी ने मोहन को छेड़ा भी, ''वीर जी, आज कल आप, बड़े खिले-खिले रहते हैं, गाँव की कोई मुटियार पसन्द आ गई।''
वह सचेत हो गया था, कहीं चोरी पकड़ी ना जाए, ''चुप, छोटा मुँह बड़ी बात, वैसे कोई ख़ुश नहीं हो सकता, मुटियार बीच में कहाँ से आ गई?''
''पर वीर जी, कोई बात तो है, मैंने आप को इतना ख़ुश पहले कभी नहीं देखा।''
वह स्नेह से उसके सिर पर हाथ रख, बिना कुछ कहे, वहाँ से चला गया, और छोटी देखती रह गई थी।
और...एक रात दोनों ने चुपचाप अपना गाँव, अपना परिवार छोड़ दिया। बस साथी मुख्तियार को बता गए, कि उनके जाने के बाद, वह उनके घर वालों को सूचित कर दे।
उसे अमेरिका जाने और पैसा कमाने की ख़ुशी और उत्तेजना तो थी, पर साथ ही गाँव छोड़ने और अज्ञात भविष्य का डर भी था।

उसकी आँखें और गला भर गया। अमेरिका आने के दस साल बाद तक वह अपनों को देख नहीं पाया, वह अपनी माँ और बहनों को बहुत प्यार करता था, उनकी याद कभी-कभी उसे उदास कर जाती, पर वे यादें ही, उसे हिम्मत भी बँधा देती। वह उनके लिए, जी तोड़ मेहनत करना चाहता था, उन्हें अच्छी ज़िन्दगी देना चाहता था। बापू का कर्ज़ा उतार कर, उसे स्वाभिमानी किसान बनाना चाहता था, जो किसी के आगे हाथ न फैलाये। भारत आने-जाने वालों के हाथ, वह उनको चिट्ठी-पत्री और कुछ पैसे भेज देता था। सीधा संपर्क और पत्र-व्यवहार तो ज़मीदार के द्वारा ही होता था, जिससे वह हर बात खुल कर नहीं कर सकता था। अमेरिका आने के कुछ समय बाद, उनके वीज़ा की अवधि समाप्त हो गई थी, कई बार उस अवधि को बढ़ाया गया, फिर वह भी संभव नहीं रहा। अवैध रूप से छिप कर वे रहने लगे थे, ज़मींदार ने उन्हें अपने खेतों में बने कमरों में स्थान दे रखा था। कई साल उन्होंने जानवरों की तरह काम किया। मालिक उन्हें बहुत कम वेतन देता और दस गुना काम लेता था, उसमें से ही पैसा बचा कर, वह भारत भेजता था।

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