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हम सब ही तो अगले सोपान पर चढ़ने के लिए भाग रहे हैं, समाज के इस सारे चक्रव्यूह को तोड़ कर यह आबनूसी औरत कहती है कि मैं केवल मनुष्य की तरह जीना चाहती हूँ। यह औरत जो नर्स थी, अब नर्स नहीं होना चाहती। लोगों के मल-मूत्र साफ़ कर, उनकी बीमार देहों को नहला-धुला कर, उनके झूठे बर्तन माँज कर, उनके दवाई की बदबू में लिपटे, घाव के पसों से सने गँदे कपड़े धो कर, उनके चिड़चिड़ेपन से भरी झिड़कियाँ सुन कर शेष जीवन बिता देना चाहती है, आखिर क्यों? कोई इस चक्रव्यूह से ऐसी आसानी से निकल कर अपने को संत कैसे घोषित कर सकता है? मेरी बुद्धि, भाव सब अहंकार से दपदपा उठे।
गंभीर स्वर में बोली, ''वह सब तो ठीक, पर तुमने भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचा? क्या तुम कुछ बनना नहीं चाहतीं? कुछ होना नहीं चाहतीं?''
''मेरे अधिकारीपने का उस पर उल्टा असर हुआ। वह लज्जित होने की बजाय अपने नकली बालों को झटका दे कर सीधी बैठ गई।
''नहीं, मैं कुछ बनना नहीं चाहती, कुछ होना नहीं चाहती। 'पर्सनल सपोर्ट वर्कर' बनना चाहती थी, बन गई। क्या आपकी कंपनी के लिए यह काफ़ी नहीं है? मेरा स्कूल का अनुभव और मेरा अपनी माँ के साथ का अनुभव मुझे इस कार्य में सफल बनाएगा, मैं आपको विश्वास दिला सकती हूँ।''
''नहीं मैं तुम्हारे अनुभव पर संदेह नहीं कर रही...पर यह तो स्वाभाविक ही है कि आदमी आगे बढ़े।''

वह शायद कुछ तीखा कहने जा रही थी पर अपनी आवेदनकर्ता की स्थिति की याद कर सँभल गई। बोली, ''पिछ्ले छ्ह माह में आगे बढ़ी हुई ज़िन्दगी को बार-बार पीछे पलटते देखा है मैंने। जीवन में सब कुछ हो कर भी नाकुछ तक आते देखा है इसलिए अब कुछ होने, करने की इच्छा शेष नहीं रह गई है। इसे आप शमशानिया वैराग्य कहना चाहें तो कह सकती हैं पर माँ के जीवन ने साहस के महत्त्व को बताया तो माँ की मॄत्यु ने वर्तमान के महत्त्व को, इसी से बहुत आगे देखने की इच्छा नहीं होती।'' वह पल भर रुकी साँस लेने के लिए...

फिर कहने लगी, ''और सब सोचा हुआ पूरा भी कहाँ होता है। मेरी माँ भी बहुत कुछ सोचती थी...मुझे डाक्टर बनाना चाहती थी, अपने देश में ही रहना चाहती थी और वहीं मरना चाहती थी पर कहाँ पूरा हुआ उसका सोचा हुआ। युगांडा और तंज़ानिया के युद्ध ने हमें अपने गाँव ''मसक्का'' से निकाल दिया, ''लूले'' नाम ने हमें कहाँ-कहाँ नहीं भटकाया,'' मेरी आँखों के सवाल को पढ़ते हुए उसने स्पष्ट किया, ''परिवार के एक सदस्य तत्कालीन शासक ईदी अमीन से लड़ने वाली 'यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट' में सक्रिय थे, अत: उन्हें पकड़ न पाने पर उनके घर वालों को पकड़ उन पर अत्याचार करने की कहानियाँ मेरे परिवार के प्रत्येक सदस्य से आप सुन सकती हैं। माँ भी राजनैतिक कार्यवाहियों में सक्रिय थी, यह मैं अभी जान पाई। मुझे 'कम्पाला' (राजधानी) पढ़ने के लिए भेज दिया था सो मैं सब कैसे जानती...भागने के दिनों में थोड़ा-सा बताया था बस...''

वह जैसे अपने से बात कर रही थी...''सारा जीवन मैं उसे गाँव की सीधी सरल औरत समझती रही...सोचती थी उस के दिमाग में मेरी चिन्ता के अलावा कुछ और है ही नहीं, मेरी सुरक्षा के लिए ही वह परेशान है पर उसके दिमाग में देश को ईदी अमीन से छुड़ाने और सुरक्षित करने की योजनाएँ पला करती थीं...। हम सारे जीवन इस भ्रम में ही रहते हैं कि हम कम से कम अपने बिल्कुल अपनों को तो जानते हैं पर सब भ्रम ही है।'' उसकी नज़रें मुझे जीवन का रहस्य बताते हुए मुझ पर गढ़ गईं। गहरी साँस ले कर वह कथा निपटाने की मुद्रा में बोली... ''बाद में तो वह मुझे पहचानती भी नही थी, न कभी आवाज़ देती थी...बस अजाने से नाम पुकारती..अजानी बातें करती रहती...सारे जीवन मेरे साथ रह कर भी मेरे साथ नहीं थी वह...भला हो उसके रोग का जो मैं उस को कुछ जान पाई वरना कहाँ जान पाती...'' कहते-कहते वह अपनी नम आँखों को झुठलाती हुई-सी हँस पड़ी।
मैं उस की कहानी से सम्मोहित सी बैठी थी, तुरंत कुछ कह नही पाई। वह उठते हुए बोली..'' नौकरी तो अब आप मुझे देंगी नहीं ..आप का इतना समय नष्ट किया, माफ़ कीजिएगा।''
''पर नौकरी देने का फैसला तो मेरा है, तुमने कैसे ले लिया? और रही बात समय की...तो अपने यहाँ के कर्मचारियों से अच्छे संबंध बनाना और उन्हें जानना हर अच्छी कंपनी का काम है। मैं तुम्हें आवश्यक कार्यवाही कर के सूचित करूँगी परंतु आसार अच्छे ही हैं, तुम में योग्यता और क्षमता दोनों ही हैं।'' कहती हुई मैं भी कुर्सी से उठ खड़ी हुई।

दरवाज़े तक उसे छोड़ कर मैं पलटने ही वाली थी कि कुछ याद आने से ठिठक कर रुक गई..मुझे रुकता देख शार्त्र भी रुक गई, उस की आँखों में प्रश्न था।
''तुम्हारे सबसे पहले प्रश्न का उत्तर देना तो भूले ही जा रही थी...तुम सचमुच शार्त्र...यानि खुश लगती हो...तुमने जीवन के प्राप्य को आदर देना जो सीख लिया है।'' कह कर मुस्कुराती हुई मैं अपने कमरे की ओर बढ़ गई थी।

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२२ फरवरी २०१०

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