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झर-झर झरते आँसू और जलती चिता की साक्षी बनी सौम्या रोम में खड़ी थी, जहाँ वापसी के समय रोहित कम-से-कम चार दिन रुकना चाहते थे। चार दिन सचमुच रोम में रुकना पड़ा था- औपचारिकताएँ जो पूर्ण करनी थीं। राजदूत ने उसे बेटी-सा स्नेह दे सांत्वना दी थी।
रोहित को रोम में अन्तिम यात्रा की विदाई दे, छोटे-से डिब्बे में उनके अवशेषों के साथ सौम्या प्लेन में बैठी थी। आशू के रोते ही रोहित याद आ गए थे-
''छोड़िए मैडम...मेरी बेटी मैं ही रखूँगा अपने कन्धे पर।'' क्या नन्ही आशू को भी पिता की सबल भुजाएँ याद आ रही थीं? सौम्या के नयन भर आए थे- कहाँ गए रोहित? हर पल अपनी बिटिया छीन लेते थे, क्या उसका रूदन सुन तुम्हारे भस्मावशेष व्याकुल नहीं हो उठेंगे?

भारत की धरती पर उरते ही सौम्या का हृदय धड़क उठा था। कैसे सामना कर सकेगी रोहित की ममतामयी माँ का? एयरपोर्ट पर माँ उसे लेने आई थीं। श्वेत परिधान माँ की करुणा उजागर कर रहा था। आँखें न जाने कब से सोई नहीं थीं। माँ के सीने से लग सौम्या जोर से रो पड़ी थी। सांत्वना का हाथ सौम्या की पीठ पर धरती माँ फूट पड़ी थीं-
''छह फीट के बेटे के साथ गई थी सौमी, उसे छह इंच डिब्बे में वापस लाई है बहू?''

गीली आँखों के साथ सौम्या उस सूने घर में पहुँची थी जहाँ जीवन का कोई अंश बस आशू के रूदन में ही बचा था। जिस घर के आँगन में रोहित कभी घुटने चले थे वहाँ आशू का पालना पड़ गया था। माँ ने साहस से काम लिया था। अपने को सहेज माँ आशू पर अपने प्यार का सागर उँडेलती थीं। आशू को दुलारते माँ हमेशा यही कहतीं-
''एकदम अपने पापा पर गई है। वो भी बचपन में ऐसे ही मेरे सीने में सिर छिपा सोता था। अपने स्नेह-विगलित स्वर को माँ झूठी मुस्कान का आवरण चढ़ा सौम्या को नहीं, अपने को झुठलाती थीं। सौम्या का अकेलापन माँ की चिन्ता का विषय था। जिद करके उन्होंने सौम्या को पी-एच डी के लिए राजी किया था, ''तेरे श्वसुर जी की हार्दिक इच्छा थी उनकी बहू उच्च शिक्षिता हो। तूने एम.ए. में फर्स्ट डिवीजन पाई हैं सौमी! उसे यों ही व्यर्थ न कर बेटी!'' रोहित के न रहने के बाद से माँ उसे बेटी ही कह सम्बोधित करती थीं।

घर में सम्पत्ति का अभाव न था। जो अभाव था वह कभी पूरा हो नहीं सकता था। उस विशाल भवन के कण-कण में रोहित का अस्तित्व था। यूनीवर्सिटी पहुँचाने माँ स्वयं साथ गई थीं। कार से उतरती सौम्या के सिर पर हाथ धर धीमे से कहा था-
''आज से तू एक नए जीवन में पदार्पण कर रही है बेटी! भगवान तेरा भविष्य उज्ज्वल करे!''
उसके बाद सब-कुछ कितनी जल्दी घटित हो गया था! एक ही पुस्तक को खोजते वह मनीष से टकरा गई थी। मनीष सौम्या के विषय के प्राध्यापक थे। समाज-शास्त्र विभाग में उनकी विद्वत्ता की धाक थी।
''आपको इसके पहले कभी नहीं देखा, आप यहाँ नई आई हैं मिस...।
''जी मैंने बनारस यूनीवर्सिटी से एम.ए. किया था। यहाँ पी-एच.डी. ज्वाइन की है।''
''ज़ाहिर है आपके गाइड डॉ. रजत रॉय हैं।''
''आपने कैसे जाना?'' सौम्या के स्वर में विस्मय था।
''अजी आप जैसी ज़हीन लड़कियों को डॉ रॉय भला कभी हम जैसों के लिए छोड़ेंगे!''
''मैं ज़हीन हूँ...यह तो सच नहीं।'' सौम्या के गम्भीर मुख पर मन्द स्मित तैर आया था।
''हो जाए शर्त... पर हारने पर क्या देंगी?''

''यह किताब जिसे हम दोनों खोज रहे हैं, मिल जाने पर आपके लिए छोड़ दूँगी।''
सौम्या के उत्तर पर मनीष ठठाकर हँस दिया था-
''जितना सोचा था आप तो उससे भी ज्यादा अक्लमंद निकली...हाँ, क्या नाम बताया था आपने अपना?''
''सौम्या...मिसेज सौम्या कुमार।'' सौम्या फिर गम्भीर हो उठी थी।
''आह, माफ़ कीजिएगा...असल में आपका चेहरा धोखा दे गया। देखकर शायद ही कोई आपको विवाहित समझे।'' मनीष जैसे कहीं निरुत्साहित-सा हो उठा था।
''इसमें आप अपने को अपराधी न समझें। अच्छा तो चलूँ?'' सौम्या की शान्त दृष्टि उठी थी।
''आपसे मिलना मेरा सौभाग्य रहा, मिसेज कुमार! मिस्टर कुमार कहाँ काम करते हैं?'' चलते-चलते मनीष अनजाने ही सौम्या का मन दुखा गया था।
''वे अब नहीं हैं...।'' सौम्या का कंठ अवरुद्ध हो उठा था।
''हे ईश्वर! आज मेरा दिन ठीक नहीं। ऐसा लगता है आपका मन दुखाने के लिए ही आज आपसे मिला था। मुझे क्षमा कर सकेंगी सौम्या जी? मैं सचमुच दुःखी हूँ।''
''जिसने कोई गलती ही नहीं की उसे किस बात की क्षमा करूँ।''
''मनीष सहाय...आपके विभाग में ही हूँ। कभी किसी काम आ सकूँगा, अपना सौभाग्य मानूँगा।''
''धन्यवाद।'' संक्षिप्त उत्तर दे सौम्या चल दी थी।

सौम्या का मौन मनीष को छू गया था। विभाग या लाइब्रेरी में अक्सर ही मनीष मिल जाते थे। सौम्या उनकी सहृदयता से प्रभावित थी। सौम्या को गम्भीरता के कवच से बाहर मनीष खींच ही लाते थे।
''सौम्या जी, ये जो गम्भीरता का मुखौटा आपने ओढ रखा है इसे डॉ राय के लिए छोड़ दें। यहाँ तो बस हम दो ही हैं। आप हँसती हुई ही अच्छी लगती हैं।''
''डॉ राय को गम्भीर अच्छी लगती हूँ?'' अनजाने ही सौम्या पूछ बैठी थी।
''अरे आप तो हर तरह से अच्छी लगती हैं, पर हँसते समय आपके ये डिम्पल्स बहुत प्यारे लगते हैं।''

चाह कर भी सौम्या मनीष को उस तरह की बात न करने को नहीं कह सकी थी। कभी-कभी मनीष के साथ रोहित इस कदर उभर आते थे कि सौम्या डरकर ओंठ सी लेती थी- कहीं मनीष को वह रोहित न पुकार बैठे! एक दिन मनीष बातें करते अचानक भावुक हो उठे थे-
''सौम्या जी! रोहित का स्थान तो नहीं ले सकता, पर क्या आजीवन आपका अकेलापन काटने के लिए आपका साथ नहीं दे सकता?''
सौम्या का विवर्ण मुख देखते ही मनीष फिर बोले थे,
''आशू को एक पिता के संरक्षण की आवश्यकता है सौम्या, मेरे प्रस्ताव पर शान्ति से विचार कर देखना। मैं प्रतीक्षा करूँगा।''

उस रात सौम्या सो नहीं सकी थी। रोहित और मनीष ने पूरी रात उसे जगाए रखा था। सुबह उसके उदास मुख और सूजी आँखों पर माँ की दृष्टि गई थी।
''क्या बात है सौमी, रात ठीक से नींद नहीं आई बेटी?'' माँ के स्नेहसिक्त स्वर पर सौम्या फूट पड़ी थी। रोते-रोते सौम्या सब बता गई थी। माँ का स्नेहपूर्ण हाथ उसकी पीठ पर सांत्वना दे रहा था। सब कह चुकने के बाद सौम्या ने माँ के मुख पर दृष्टि डाली थी। हमेशा की तरह माँ का मुख शान्तिपूर्ण था! अपने अन्तर की आँधी को मुख पर उन्होंने आने ही कब दिया था, सचमुच वो रोहित की माँ थीं। धीमे से माँ ने कहा था,
''मनीष ठीक ही तो कहता है बेटी! जीवन-यात्रा के किस पल तेरा साथ छोड़ जाऊँगी यही भय मुझे सोने नहीं देता। तुझे अकेले छोड़ मैं सुख से इस संसार से विदा भी न ले सकूँगी? समय सब सहन करने की शक्ति दे देता है बेटी!''

उसके बाद माँ ने सौम्या से कुछ नहीं पूछा था। घर में ही कुछ निकट आत्मीयों के समक्ष माँ ने सौम्या का स्वयं कन्यादान किया था। विदा के समय माँ के कन्धे पर सिर रखकर रोती सौम्या को यही लग रहा था, अपने मायके से ही विदा ले रही है। अपने रोहित की प्रिया को मनीष को सौंपते कैसा लगा होगा माँ को?

मनीष ने एक सप्ताह का अवकाश ले ऊटी जाने का प्रोग्राम बनाया था। आशू माँ के पास रही थी।
मनीष के साथ उनके नए घर में जाते समय अपने सामान के साथ जब सौम्या आशू का सामान भी सहेजने लगी तो माँ अस्थिर हो उठी थीं, ''सौमी, क्या आशू को साथ ले जाएगी?''
''हाँ माँ, पर बीच-बीच में यह आपके पास भी आती रहेगी। मैं स्वयं छोड़ जाया करूँगी।''
''नहीं सौमी, इसे न ले जा, मेरे रोहित की यही तो अन्तिम निशानी है, मेरा संबल है।'' माँ असहज हो उठी थीं।
मनीष ने समझाना चाहा था,
''ठीक ही तो है सौम्या, आशू को यहाँ माँ के पास ही रहने दो न! तुम्हारा जब मन चाहे उसे आकर देख जाना।''
सौम्या के मुख के भावों को पढ़ते ही माँ उसके अन्तर की बात जान गई थीं। अन्दर से आशू की उँगली पकड़ माँ उसे बाहर ले आई थीं।
''जा गुड़िया, अपनी मम्मी-पापा का कहा मानना। दादी का ढेर-सा आशीर्वाद!''

आशू का माथा चूम माँ तुरन्त अन्दर चली गई थीं। माँ के नम नयन देखकर भी, मातृत्व से पराजित सौम्या माँ की वेदना नकार गई थी। आशू को गोद में लिए सौम्या जब बाहर आई तो मन में कहीं गड़ने लगा था- मनीष ने आशू को गोद में लेने का तनिक भी आग्रह नहीं किया, रोहित के साथ तो वह आशू को गोद में लेने को भी तरस जाती थी।

नए घर में आशू एडजस्ट नहीं कर पा रही थी। दादी की स्नेहिल छाया में पली आशू मुरझाने लगी थी। बात-बात में खीजती, रोती आशू कभी-कभी समस्या उत्पन्न कर देती थी। मनीष ने दो-एक बार दबी जबान से सौम्या को समझाना चाहा था।

''आशू को माँ के पास छोड़ना ही ठीक होगा सौम्या! माँ कितनी अकेली पड़ गई है!''
सौम्या को मनीष का यह प्रस्ताव असहज प्रतीत होता। कभी-कभी रात में आशू के लगातार रोने पर मनीष खीज उठते थे। अपना तकिया उठा ड्राइंगरूम के सोफ़े पर जा सोते थे। कभी सौम्या को महसूस होता अपने दोनों के बीच मनीष को आशू की उपस्थिति अनधिकार चेष्टा-सी लगती थी। कभी तो सचमुच मनीष आशू की जिद पर बुरी तरह झुँझला उठते थे। उस समय कल्पना में रोहित का उदास मुख सौम्या को आहत कर जाता था। नन्ही आशू मनीष के झुँझलाने पर सौम्या से चिपक सहम जाती थी।

राहुल के जन्म के बाद मनीष आशू को भूल ही गए थे। राहुल को गोद में उठाए मनीष को टुकुर-टुकुर ताकती आशू को देख सौम्या का रोने को जी चाहता था।
''सुनो, इसे भी कभी-कभी गोद ले लिया करो- साथ बैठकर प्यार कर लिया करो!''
''मैंने कभी झिड़का तो गाँठ बाँध लेती है, कभी उसकी आँखों में देखों तो पता लगे कितनी नफरत है उसे मुझसे।''
''छीः, कैसी बातें करते हो? बच्ची है, भला वो...''
''छोड़ो सौम्या, उसे प्यार करने को तुम अकेली ही काफ़ी हो। कभी तो लगता है उसके कारण राहुल पर भी तुम उतना ध्यान नहीं दे पाती।

सौम्या के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मनीष चले गए थे। उस दिन के बाद सौम्या आशू को प्यार करते सतर्क-सी रहती थी, कहीं मनीष कुछ फिर न कह दें। डबडबाई आँखों से जब कभी आशू मनीष द्वारा किए अन्याय की शिकायत लेकर आई तो सौम्या क्या प्रतिकार कर सकी थी? सिसकती आशू को सीने से लगाने का साहस भी मनीष के सामने सौम्या खो चुकी थी। आशू के प्रति प्यार में मनीष की कृपणता के आगे रोहित के प्यार का सागर सौम्या की खिल्ली उड़ाने लगता था।
अन्ततः सीने पर पत्थर रख आशू को उसकी दादी के पास छोड़ने गई थी-
''माँ, सम्हालो अपनी थाती... मैं हार गई।''
''छीः, इस तरह मन छोटा नहीं करते सौमी! जीवन की थकी साँस में किस बन्धन में डाल रही है मुझे- कैसे सम्हाल सकूँगी इसे?'' माँ का स्वर थका हुआ था।
''माँ, मैंने सोचा था मनीष से आशू को पिता-सा प्यार मिलेगा पर...।''
''यहीं तो तू गलती कर गई सौमी! 'पिता का प्यार' कहती तो बात समझ में आती। 'पिता-सा प्यार' भला इस शब्द का क्या अर्थ? यह तो अर्थहीन हुआ न?''
''माँ?'' सौम्या समझ नहीं सकी थी।
''कोई किसी का विकल्प बनकर स्वीकारा जाए तो उससे विकल्प की ही आशा रखनी चाहिए न सौमी!''
''मैंने किसे विकल्प-रूप में स्वीकारा माँ?''
''क्यों, मनीष को तूने आशू के लिए पिता के विकल्प-रूप में नहीं स्वीकारा क्या? हमेशा यही तुलना करती रही अगर रोहित होता तो आशू को यों प्यार करता, यों दुलारता... तूने मनीष को विकल्प समझा, पर याद रख सौमी, कोई किसी का विकल्प नहीं होता।'' आशू को गोद में उठा माँ अन्दर चली गई थी।

आज आशू सौम्या से कितनी दूर अपनी स्नेही दादी के पास बैठी अपने पापा के बचपन की कहानियाँ सुन रही होगी। सौम्या को लगता उसने आशू को माता-पिता दोनों के प्यार से वंचित कर दिया था। छोटे-से मुख को कोहनी पे टिकाए आशू दूर क्षितिज में जब देखती, तो सौम्या को लगता आशू अपने पापा को खोज रही है।
''क्या देख रही है आशू?''
''पापा उस बादल के पीछे छिपे हैं न मम्मी? जब बादल हटेंगे तो पापा सामने आ जाएँगे?''

माँ ने आशू को सत्य से परिचित कराना ही ठीक समझा था। सौम्या के विरोध पर शान्त-सधे स्वर में माँ ने कहा था-
''बड़ी होकर जब यह सत्य जानेगी तो शायद स्वीकार कर पाना कठिन होगा सौम्या! इसे विकल्प स्वीकार करने का साहस मिलना ही चाहिए।''

गोआ जाने की बात सुन आशू पुलक उठी थी, ''मैं भी गोआ चलूँगी मम्मी!''
''पर तुम्हारी छुट्टियाँ नहीं हैं- पढ़ाई मिस करोगी तो रिजल्ट अच्छा नहीं आएगा।'' मनीष ने सौम्या की जगह उत्तर दिया था।
''मैं तुम्हारे लिए ढेर-सी सीपियाँ लाऊँगा दीदी- इत्ती-इत्ती बड़ी लाऊँगा।'' नन्हे राहुल ने दीदी को सांत्वना दी थी।

चलते समय आशू की आँखों से ढुलकी सीपियाँ सौम्या अपने आँचल में समेट लाई थी। मनीष का एक सेमिनार गोआ में आयोजित किया गया था- सौम्या और राहुल भी मनीष के साथ गोआ जा रहे थे, पर आशू...?
''मम्मी, देखो बाहर कितना तूफ़ान आ रहा है- कहीं लहरें हमारे जहाज़ को उलट न दें...''
सौम्या की आँखों में आँसू देख राहुल डर गया था,
''मम्मी, डरो नहीं, जहाज़ को कुछ नहीं होगा।''

सौम्या ने कितना चाहा था गोआ जहाज़ से न जाएँ, पर मनीष से यह कह सकने का वह साहस न सहेज सकी थी। एक बार उसकी अन्य-मनस्कता पर मनीष ने कहा था,
''जो चला गया उसके नाम को लेकर जी रही हो, जो जीवित है उसका शायद अस्तित्व न के बराबर है न?''
उस बात को सुनने के बाद भला जीवन में फिर सौम्या वही सत्य दोहरा सकती थी? तूफान के आसार बढ़ते जा रहे थे। केबिन का द्वार खोलते मनीष अन्दर आ गए थे-
''लगता है इस बार मानसून जल्दी आ रहे हैं। कहीं मौसम खराब हो गया तो गोआ जाना बेकार हो जाएगा।'' मनीष के मुख पर आए खीज के भाव देख सौम्या सोचने लगी- क्या मनीष उस तूफान को बिल्कुल भूल गए जो सौम्या झेल चुकी थी? लेकिन वह स्वयं भी उस तूफान को क्यों दोहरा रही है? चलते समय आशीर्वाद देती माँ ने यही तो कहा था-
''यह दोहरा जीवन कब तक जिएगी सौम्या? रोहित तेरा अतीत था जो बीत गया, मनीष तेरा आज है और वही सत्य है। मनीष किसी का विकल्प नहीं बेटी!''

बाहर क्षितिज से उठती घनी मेघमालाओं से आशू का उदास चेहरा झाँकता लग रहा था। नन्हें-नन्हें उमड़ते मेघ, मानों बाहें फैलाए आशू सौम्या की ओर दौड़ी आ रही थी। टपटप पलकों से गिरते हरसिंगारों से रोहित को अर्घ्य देती सौम्या केबिन में आ गई थी। कानों को कसकर बन्द करने पर भी लहरों का कोलाहल...नहीं, रोहित का अट्टहास सुनाई दे रहा था।
''मुझे शक्ति दे भगवान, मैं आज में जी सकूँ!''
दृढता से आँसू पोंछ सौम्या ने मुँह उठा बाहर देखा तूफ़ान से जूझता जहाज़ आगे बढ़ता जा रहा था।

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८ मार्च २०१०

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