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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.के. से अचला शर्मा की कहानी- दिल में एक कसबा है


“हलो मिसेज़ जी!” प्रभा को यह संबोधन ज़हर जैसा लगता है।
कैंटिश टाऊन के एक घर के नीचे तल्ले के फ़्लैट की घंटी बजाकर पिछले दो मिनट से वह उसके खुलने का इंतज़ार कर रही थी। ये दो मिनट बीस मिनट जैसे लगे। हाथ के बैग प्रभा ने ज़मीन पर रख दिए थे। प्लास्टिक के बैग उठाए उठाए हथेलियों में लकीरें उभर आईं थीं। एक बैग में खाने के डिब्बे हैं और दूसरे में उसके रात के कपड़े। पहली बार इस बात पर खीज हुई कि क्यों नहीं कार से आई। कार से आती तो यह झोले उठाकर अंडरग्राउंड स्टेशन से यहाँ तक का सफ़र इतना मुश्किल ना होता। आमतौर पर यहाँ के होमलैस लोग इस तरह प्लास्टिक के झोलों में अपनी गृहस्थी उठाए घूमते हैं। लेकिन प्रभा जब घर से निकली थी तो महसूस हुआ था पैरों में जैसे कार के पहिए लग गए हैं। तय किया था कि आज पैदल ही चलेगी। कई दिनों से चलना फिरना कम हुआ है। टाँगें जकड़ सी गई हैं। वैसे भी मौसम बदल गया है। इस बार की लँबी बर्फ़ीली सर्दियों के बाद वसंत की आहट से
उसका मन कुछ हल्का हुआ था। क्या लौट जाए। उसने घंटी की तरफ़ फिर हाथ बढ़ाया। तभी दरवाज़ा खुला।

“हलो मिसेज़ जी।” सामने नीली जीन्स और लाल टीशर्ट पहने मार्टिन खड़ा था। दरवाज़ा देर से खोलने की सफ़ाई देते हुए उसने बताया कि वह शावर ले रहा था। वह असहज हो उठी। उसे उम्मीद थी कि दरवाज़ा नेहा खोलेगी।

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