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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
सूरीनाम से भावना सक्सेना की कहानी- एक उधार बाकी है


पाँच बजते ही सुजीत सौम्या को दफ्तर से लेने आ जाते हैं, इस छोटे से शहर में सार्वजनिक यातायात सुविधाएँ अच्छी नहीं हैं। कुछ छोटी बसें नियत समय पर चलती हैं लेकिन पके ताँबे से रंग के और कईं तो एकदम रात्रि के अंधकार जैसे बड़े डील डौल वाले क्रिओल लोगों के साथ सफर करने के विचार से ही घबराहट होती हैं, तो सौम्या के लिए दो ही रास्ते बचते हैं- या तो पति का इंतज़ार करो या ग्यारह नंबर की बस पकड़ कर निकल चलो।

यूँ घर बहुत दूर भी नहीं हैं लेकिन इस देश में पैदल चलने का रिवाज ही नहीं हैं। एक-आध बार निकली भी तो कोई न कोई परिचित रास्ते में टकरा गया और घर तक छोड़ गया, या फिर प्रश्नवाचक नज़रों से बचती घर आ भी गयी तो लगता था सुजीत नाराज हो गए, सो बहुत दिन से पैदल चलने का विचार ही त्याग दिया था। आज कुछ तो मौसम खुशगवार था और कुछ अंदर की बेचैनी, दफ्तर की फाइलें और जीवन के उतार चढ़ाव अति में हो जाने पर उसे कईं बार ताज़ी हवा की आवश्यकता अनुभव होती है और उसका सबसे बेहतरीन तरीका है एक लंबी पदयात्रा।

घर फोन किया तो पता चला सुजीत अभी अध्ययन कक्ष में ही हैं। नौकरानी से कुछ न कहने को कह वह बैग उठाकर निकल पड़ी थी।

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