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प्रकृति और पर्यावरण


ऋतुओं की झाँकी (वसंत ऋतु)
-महेन्द्र सिंह रंधावा


उत्तर भारत में ऋतुओं की झाँकी सचमुच उत्साहवर्धक है। हिंदुओं के अनुसार वर्ष में छ ऋतुएँ होती हैं।

फागुन और चैत वसंत ऋतु के महीने हैं। जेठ और अषाढ़ में ग्रीष्म ऋतु झुलसाती है। इसके बाद सावन और भादों के महीनों में वर्षा होती है। क्वार में शरद ऋतु का आगमन होता है। तब आकाश साफ हो जाता है। रंग बिरंगे मेघों की आभा और स्वर्णिम संध्या दर्शक के मन को लुभाने लगती है। कार्तिक के महीने में रातें रजत चंद्रिका चमकाती हैं। शरद ऋतु कार्तिक माह के अंत तक रहती है। अगहन से पौष के आरंभ तक हेमंत ऋतु रहती है। इस ऋतु में जलवायु ठंडी और स्वास्थ्य के लिये लाभकारी होती है। आधे पौष से माघ मास के आरंभ तक शिशिर ऋतु का समय है। शिशिर ऋतु में कड़ाके की सर्दी पड़ती है, खेत पाले से ढँक जाते हैं और हिमालय पर बर्फ गिरने लगती है। तापमान के आधार पर भारतीय वर्ष वसंत, ग्रीष्म, शरद और शिशिर नामक चार ऋतुओं में विभाजित किया जाता है। इन चारों ऋतुओं की उपमा दिन के चार भागों — सूर्योदय, मध्याह्न सूर्यास्त और रात्रि — से दी जाती है। मादक वसंत ऋतु सूर्योदय के समान, ग्रीष्म ऋतु मध्याह्न के समान, शरद ऋतु सूर्यास्त के स
मान और शीत ऋतु रात्रि के समान है।

वसंत

फरवरी के प्रथम सप्ताह में पंडुकों की कूक और सरसों के पीले फूल ऋतुराज के आगमन की घोषणा करते हैं। खेतों में फूली हुई सरसों, पवन के झोंकों से हिलती, ऐसी दिखाई देती है, मानो, सामने सोने का सागर लहरा रहा हो। शीशम के पेड़ हरे रंग की रेशम सी कोमल पत्तियों से ढँक जाते हैं। स्त्री पुरूष केसरिया रंग के कपड़े पहनते हैं। उनके वस्त्रों का रंग प्रकृति के रंगों में घुल मिल जाता है, मानो, वे भी प्रकृति के अंग हों। प्रचीन भारत में कामदेव के सम्मान में सुवासंतक नामक पर्व मनाया जाता था। यह उन दिनों का सबसे अधिक आमोद और उल्लासपूर्ण पर्व था। उसे वसंतोत्सव या
मदनोत्सव के नाम से भी पुकारते थे। उत्सव के दिन गाँव गाँव में नाच–गान होते थे। उनमें स्त्री और पुरूष दोनो ही भाग लेते थे।

कचनार (बौहीमिया) की पत्तियों–रहित काली शाखाएँ जो फरवरी माह में बड़ी कुरूप दिखाई देती थीं, वे अब गुलाबी, सफेद और बैंगनी–नीले फूलों से ढँक जाती हैं। वे पूरे एक महीने तक आसपास के दृष्य की शोभा बढ़ाती हैं। कचनार के कोमल फूल चित्त को प्रफुल्लित करते और आँखों को सुखद मालूम होते हैं। कचनार के बाद सेमल के फूलने की बारी आती है। कांगड़ा घाटी में ये वृक्ष बहुत संख्या में मिलते हैं। वसंत में इनकी पत्तियोंरहित टहनियों में कटोरी जैसे आकार के नारंगी और लाल फूल निकल आते हैं। फूलों से आच्छादित सेमल के वृक्षों को देख कर ऐसा आभास होता है मानो, साक्षात लक्ष्मी अपनी अनेक भुजाओं को फैला कर हथेलियों पर लाल दीपक लिये विराज रही हैं। गंभीर मुद्रा वाली अमराइयों में भी सहसा नया जीवन आ जाता है, और आम्र वृक्षों में पीली मंजरियों के बौर आ जाते हैं। बौर की मधुर सुगंध से कोयलें
अमराइयों में खिंच आती हैं और उनकी कुहू–कुहू की मधुर पुकार अमराइयों में गूँज उठती है। मार्च मास का प्रथम पक्ष बीतने पर वसंत में पूर्ण यौवन की मस्ती आ जाती है।

टेढ़े मेढ़े ढाक के पेड़, जिन्हें शीत ऋतु में देखने को जी भी नहीं चाहता था, वसंत के आते ही अपनी त्रिपर्णी पत्तियाँ गिराने लगते हैं। और उनकी टहनियाँ गहरे भूरे रंग की कलियों से भर जाती हैं। कुछ दिनों के बाद सारी कलियाँ एक साथ अचानक ही इस प्रकार खिल जाती हैं, मानो, किसी ने उन्हें जादू की छड़ी से छू दिया हो। आग की लपटों जैसे नारंगी–लाल रंग के फूलों से लदे हुए ढाक के पेड़ प्रज्वलित अंगारों से दिखाई देते हैं। गहरे लाल रंग के फूलों के परिधान में वसुंधरा नववधू सी मालूम होती है।

कांगड़ा घाटी में खेतों और झाड़ियों के बीच–बीच में बर्फ से सफेद फूलों वाले कैथ के वृक्ष लगे हैं। कैथ का पेड़ जो कुछ दिन पहले कुरूप झाड़ की तरह दिखाई देता था, वही फरवरी के अंतिम सप्ताह में, पत्तियों के निकलने से पहले ही फलने को है। उसका सफेद फूलों का गुम्बद बन जाता है, मानो, कहता है, "मैं सृष्टि का शुभ्र गीत हूँ।" मार्च के मध्य तक नयी पत्तियाँ निकल आती हैं। वे हवा में लहराते हुई ऐसी दिखाई देती हैं, मानो, प्रत्येक वृक्ष से हल्के हरे रंग की रेशमी पताकाएँ फहरा रही हों। रूपहले सफेद फूलों के साथ उनकी शोभा देखते ही बनती है। झाड़ियों की कतारों में वसंत के पीले फूल अधिकता से दिखाई देते हैं। उनकी उभरी हुई कटोरियाँ वसंत ऋतु की विलक्षण द्योतक हैं। उनके उभरे हुए दल पुंज विचित्र प्रकार से वसंत ऋतु के द्योतक प्रतीत होते हैं। पानी की नालियों के आसपास हज़ारों की संख्या में उगे हुए फ़ीरोज़ी फूलों से सुशोभित किरात (जैटियन) गेहूँ के हरे खेतों के चारों ओर ऐसे मालूम होते हैं, मानो, किसी चित्र के वे सुंदर चौखटे हों। कुछ खेतों में सरसों के पीले फूलों के साथ अलसी के नीले फूल अपनी अलग ही छटा दिखाते हैं।

वायु में उष्णता आ जाती है और प्रणय केलियों के बाद प्रणयी उनींदे से लगते हैं। फागुन के दिन और उसकी रातें भी, फागुन मास की तरह रंगीली होती हैं। फागुन प्रणय की ऋतु होती है और प्रणयी फागुन की बाट उसी तरह जोहता है, जिस तरह अमावस की रात पूर्णिमा के चाँद की।

कु
सुमित वृक्षों की शाखाओं में हिंडोले डाले जाते हैं। पुष्पित वृक्षों पर मधुमक्खियों के झुंड के झुंड गुंजार करते और पुष्प गंध का आनंद लूटते हैं। वसंत ऋतु की पूरी छटा निखर आती है। प्रेम और उल्लास इस मास में अपनी चरम सीमा को पहुँच जाते हैं। चमेली की कलियाँ खिल जाती हैं और अपने सौरभ से वायु को सुवासित करती हैं। मानसरोवर झील की तरह आकाश भी निर्मल और नीला हो जाता है, मानो उसमें सूर्य और चंद्र रूपी दो बड़े फूल खिल रहे हों।

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(अगले अंक में ग्रीष्म ऋतु की झाँकी)

 
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