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रचना प्रसंग

थोड़ा धैर्य थोड़ा श्रम- व्यक्तित्व एक लेखक का
--पूर्णिमा वर्मन

पिछले लेख में हमने यह विमर्श किया था कि लेख में ग़लतियाँ कहाँ कहाँ रह जाती हैं। इन ग़लतियों के समझने और सुधारने की कोई मशीन नहीं होती। हमें अपने आप इनको धैर्य और श्रम से इन पर निरंतर काम करना होता है। इसमें समय लगता है और मेहनत भी।

लेखक बनने के लिए हमें अपने भीतर लेखक के व्यक्तित्व को विकसित करना होता है और व्यक्तित्व का विकास कोई एक दिन की चीज़ तो नहीं। यह भी सही है कि हर लेखक एक दूसरे से अलग होता है। होता नहीं हमें बनना पड़ता है। किसी जमे जमाए लेखक के पद चिह्नों पर चलकर नया लेखक नहीं बना जा सकता। कुछ तो अपना अलग लेकर आना होता है। ये सब एक दिन के काम नहीं हैं। इस लिए लेखक को बहुत धैर्य और बहुत श्रम की ज़रूरत होती है।

अस्वीकृति और आलोचना से दोस्ती

बड़े बड़े लेखक यह कहते सुने गए हैं कि मैं आलोचना से नहीं डरता मैं वही लिखता हूँ जो मेरी अंतरात्मा कहती है या मैं भोगा हुआ यथार्थ लिखता हूँ इत्यादि इत्यादि। पर यह सब वे लोग तब कहते हैं जब वे प्रसिद्ध हो चुके होते हैं और अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर चुके होते हैं। नए लोगों के लिए चुप रह कर देखने-समझने की नीति ज्यादा फ़ायदेमंद रहती है। आलोचना से दोस्ती रखना अच्छी बात है। वह बिना माँगे मिलती है, उसमें काम की बहुत सी चीज़ें होती हैं जो हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में काम आती हैं। हर आलोचना पर ध्यान देना और उसमें से अपने काम की चीज़ को अपनाना बहुत बड़ी कला है हर लेखक को इसे सीखने की आदत बनाना चाहिए। विनम्रता से हम बहुत से लोगों का स्नेह प्राप्त करते हैं और उनके आशीर्वाद स्वरूप बताए गए गुरों को अपनाकर जीवन में आगे बढ़ते हैं। अकड़ू और बड़बोले व्यक्ति से कोई भी बात नहीं करना चाहता उसे अपने अनुभवों का ख़ज़ाना कौन देगा? इसलिए आलोचना करने वाला क्या कह रहा है उस पर गंभीरता से विचार ज़रूर करना चाहिए। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अस्वीकृति को आलोचना समझना चाहिए विफलता या तिरस्कार नहीं। संपादक के लिए लेखक महत्त्वपूर्ण होते हैं। समयाभाव के कारण रचनाओं पर प्रतिक्रिया देना संपादक के लिए संभव नहीं होता पर रचना को हटाते समय उनके मन में तिरस्कार की भावना नहीं होती है। वे यही सोचते है कि इस रचनाकार को अभी विकास की ज़रूरत है। इसलिए निराशा छोड़ कर अस्वीकृति और आलोचना से दोस्ती रखना लेखक के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।

१०० प्रारंभिक रचनाएँ

बहुत से नवोदित लेखकों को किसी ने यह गुरुमंत्र दिया होता है कि १०० रचनाएँ तो अस्वीकृत होंगी ही। लेकिन आँख बंद कर के १०० रचनाओं के अस्वीकृत होने का इंतज़ार करने वाले लेखक बुद्धिमान नहीं कहे जा सकते। लेखन एक प्रक्रिया है। यह संगीत की तरह निरंतर रियाज़ से निखरती है। १०० रचनाओं के अस्वीकृत होने की बात इसलिए कही जाती है कि आमतौर पर इतना अभ्यास एक लेखक को प्रकाशित होने वाले सामान्य लेखक के स्तर तक पहुँचने में लगता है। हो सकता है कि प्रसिद्ध होने के बाद इन अस्वीकृत रचनाओं में से कुछ रचनाएँ प्रकाशित भी हो जाएँ लेकिन १०० लेख लिखने के बाद लेखक की यह समझ ठीक से विकसित हो जाती है कि पहली रचनाओं में गलत क्या था। अगर ठीक से कोशिश की जाय तो १०० तक पहुँचने से पहले भी प्रकाशन के योग्य रचनाएँ लिखी जा सकती हैं। इसके लिए सही दिशा में प्रयत्न करने की ज़रूरत होती है। आँखें बंद कर के एक दिन में २५-२५ रचनाएँ लिखते रहना सही दिशा नहीं है। बहुत से लेखक एक ही संपादक को अपनी रचनाएँ लगातार भेजते रहते हैं। इसका असर यह होता है कि संपादक बिना पढ़े ही रचना को हटाने लगते हैं। अगर तीन रचनाओं तक कोई उत्तर नहीं मिलता है तो थोड़ा रुक कर पत्र या पत्रिका को ठीक से पढ़ना चाहिए और समझने की कोशिश करनी चाहिए कि यहाँ पर रचना अस्वीकृत क्यों हो रही है। एक महीने बाद जब इसी लेखक की कोई रचना आती है तो संपादक को देखने का मन होता है कि इस बीच लेखक का कितना विकास हुआ है। हो सकता है कि इसके बाद भी संपादक इस लेखक की रचना को अस्वीकृत कर दे पर निराशा छोड़ कर इस लेख-माला को पूरा का पूरा ध्यान से पढ़कर अपनी दिशा को सही रखते हुए सही दिशा में बढ़ना चाहिए।

धैर्य धैर्य धैर्य

धैर्य हर व्यवसाय के लिए ज़रूरी होता है पर कला के क्षेत्र में इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है। लेखन भी आखिर एक कला ही है। हम कहाँ से शुरू करते हैं और कहाँ पहुँचते हैं यह सिर्फ समय तय करता है। कोई भी रचनाकार शुरू में यह नहीं जानता कि आगे चलकर वह कवि बनेगा, कथाकार बनेगा, पत्रकार बनेगा या समीक्षक-आलोचक। इसलिए अपने को समय देना ज़रूरी है। समय देने से लेखक के भीतरी रचनाकार को अपना रास्ता तय करने में आसानी होती है। धैर्य के साथ जो भी अवसर मिलते हैं उनका लाभ उठाने और उनसे कुछ सीखने की कोशिश करनी चाहिए। उदाहरण के लिए अगर एक स्नातक हिन्दी का छात्र अपनी कहानी लेकर संपादक के पास जाए और संपादक उसकी कहानी प्रकाशित करने की बजाय विश्वविद्यालय की समाचार रिपोर्ट लिखने के लिए कहे तो छात्र को बिना निराश हुए इस काम को मेहनत से कर लेना चाहिए। इससे उसको अपने कथाकार में रिपोर्टर के गुणों को शामिल करने का अवसर मिलेगा और आगे लिखी गई कहानियों में अप्रत्याशित सुधार आएगा। संपादक उसकी लगन से प्रभावित होगा और कहानी में अपने पत्र या पत्रिका के अनुरूप सुधारों के लिए सुझाव देने की कोशिश भी करेगा। धैर्य का मेहनत और आशा पर सीधा प्रभाव पड़ता है। धैर्यवान लोगों को निराशा जल्दी नहीं सताती। निराशा न हो तो मेहनत करने की शक्ति बनी रहती है। आखिर में जीवन में जो कुछ प्राप्त होता है वह मेहनत से ही होता है, तिकड़म या भाग्य के सहारे लंबी पारी नहीं खेली जा सकती। सबसे बड़ा सच है यह है कि कठिन परिश्रम को बहुत दिनों तक कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता। इसलिए निरंतर श्रम एक दिन चमकेगा ज़रूर।

अंत में-

हर व्यक्ति के काम में उसके उसके व्यक्तित्व की झलक होती है इसलिए अच्छे लेखक के लिए अच्छा इंसान बनना भी ज़रूरी है। समाज, सरकार और प्रसिद्ध व्यक्तियों की आलोचना करने से कहीं बेहतर है अपने विकास की ओर ध्यान देना। प्रसिद्ध लेखक के लेखकीय गुणों की ओर ध्यान दें उनके व्यक्तिगत आचार व्यवहार को अपनाने की कोशिश न करें। ये नवोदित लेखक को उसके रास्ते से तो विचलित करते ही हैं सफलता के रास्ते को भी लंबा करते हैं।

२१ जुलाई २००८

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