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साहित्य संगम  साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है लक्ष्मी रमणन की तमिल कहानी का हिन्दी रूपांतर "टूटा हुआ स्वर"। रूपांतरकार हैं डॉ जयलक्ष्मी सुब्रह्मण्यम।

"प्रारंभ करें?"
"जी हां।"
"स!  . . .प!  . . .अ  . . .!"
उनकी गुरू गंभीर और सुस्पष्ट वाणी मंदिर के घंटे की नाद–ध्वनि के सहज गूंज उठी।  सभी स्वर उचित स्थान पर व्यक्त हुए।  मैं स्वभाव से ही बहुत सकुचानेवाली थी उन दिनों।  इसलिए जब संगीतज्ञ गुरूमूर्तिजी मुझे संगीत की शिक्षा देने के लिए आये तो बस उनकी वाणी सुनती रही, सिर उठाकर उन्हें देखने से डरती रही।  पूरा–पूरा ध्यान उन्हीं की वाणी पर केंद्रित था।  अचानक उन्होंने प्रश्न किया।
"कितने कीर्तन सीखे हैं तुमने?"
"जी!  कुल पचास के करीब होंगे।"
"अच्छा! वर्णम?" (संगीत शिक्षा में प्रयोग का एक शब्द)
"बीस!"
"राग आभोगी का वर्णम जरा गाओ।"
बस!  मैं घबरा गयी।  एक ओर डर, दूसरी ओर लज्जा!  मन व्यग्र हो उठा।  'अकेले कैसे गा सकूंगी?'  सो भी अपरिचित व्यक्ति के सामने?  

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